भारत जब साफ ऊर्जा की ओर बढ़ने की बात कर रहा है तो उन लाखों लोगों के भविष्य का भी खयाल रखना होगा जिनकी रोज़ी कोयले पर टिकी है
हाल ही में, भारत के पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी और अमेरिकी ऊर्जा सचिव जेनिफर ग्रानहोम ने संयुक्त रूप से भारत-अमेरिका क्लीन एनर्जी पार्टनरशिप (एससीईपी) शुरू करने के लिए एक वर्चुअल मंत्रिस्तरीय बैठक बुलाई। एससीईपी ने बिजली और ऊर्जा दक्षता, तेल और गैस, अक्षय ऊर्जा, सतत विकास और नये ईंधन पर दोनों देशों के बीच अंतर-सरकारी सहयोग बढ़ाने के उद्देश्य से छह टास्क फोर्स का गठन किया। कोयला क्षेत्र में जस्ट ट्रांजिशन पर विचार-विमर्श करने के लिए एक संयुक्त समिति के गठन की भी घोषणा की है।
जस्ट ट्रांजिशन का मतलब है कि साफ ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा देते वक्त उन लोगों के रोज़गार पर कम से कम प्रभाव पड़े जिनकी रोज़ी जीवाश्म ईंधन पर टिकी है। रिपोर्ट्स के मुताबिक
जीवाश्म ईंधन का प्रयोग बंद करने से भारत में लगभग 2.15 करोड़ लोगों की रोज़ी प्रभावित हो सकती है। भारत में ऊर्जा ट्रांजिशन से प्रभावित होने वाले लाखों लोगों में से एक हैं ओडिशा के सरगीपाली खदान पर निर्भर समुदाय। हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड (HZL) द्वारा संचालित इस खदान को राज्य सरकार ने घाटे के कारण बंद करने का निर्णय लिया। इस से पहले यह खदान तीन दशकों से सक्रिय थी।
खदान के अचानक बंद होने से स्थानीय समुदाय को आय की हानि और बेरोजगारी का सामना करना पड़ा। चूंकि खदान सुदूर क्षेत्र में है, इसलिए वहां की लगभग सारी आबादी इस पर निर्भर थी। अधिकांश प्रभावित मजदूर और स्थानीय व्यवसायी थे क्योंकि स्थायी कर्मचारियों ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना का विकल्प चुना था।
कई स्थानीय लोगों ने कर्ज लिया और दूध के कारोबार में हाथ आजमाया। ऋण का भुगतान करने में असमर्थ, ये लोग उधारी के चक्र में फंस गये। कम आयु वर्ग को लोग पलायन कर गये जबकि अधेड़ उम्र के लोगों और बुज़ुर्गों ने काम की तलाश में आसपास के शहरों में 22 किमी से 40 किमी दूर तक जाना शुरू कर दिया।
सरगीपाली की कहानी बताती है कि योजनाओं में कैसे मनमानी होती है जिससे स्थानीय समुदाय बुरी तरह प्रभावित होता है। आने वाले दिनों में जब भारत साफ ऊर्जा की ओर बढ़ेगा तो यह कहानी जगह-जगह दोहराई जा सकती है। इस ट्रांजीशन का उन श्रमिकों और समुदायों पर गहरा प्रभाव पड़ेगा जो पूर्णत इन तेल गैस और कोयला कंपनियों पर निर्भर हैं।
लोगों और समुदायों के लिए स्थायी आजीविका सुनिश्चित करने और इन क्षेत्रों की सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय परिस्थितियों में सुधार करने के लिए, भारत को एक जस्ट ट्रांजीशन की ज़रूरत है।
कैसे हुई जस्ट ट्रांजिशन की शुरुआत?
1970 के दशक में उत्तरी अमेरिका में जस्ट ट्रांजिशन का सोच पहली बार दिखी। तब सरकार के बनाये क़ानूनों के प्रभाव को देखते हुये मज़दूरों ने अपने आंदोलन में ऐसी मांगों को शामिल किया अधिकारों और जीविका का सवाल उठाती थीं। ऑयल, केमिकल एंड एटॉमिक वर्कर्स यूनियन (OCAW) के नेता टोनी माज़ाची इस आंदोलन का अग्रणी चेहरा थे।
पर्यावरण सुरक्षा के नये नियमों के परिणामस्वरूप माज़ाची ने श्रमिकों के लिए “सुपरफंड” की मांग की। 1990 के दशक में, श्रमिकों के लिए सुपरफंड के विचार को आधिकारिक तौर पर उत्तरी अमेरिकी मज़दूर संगठनों द्वारा समर्थन दिया गया था और बाद में इसे जस्ट ट्रांजीशन कहा गया।
वर्ष 1997 में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार संघ संघ (ITUC) द्वारा इस विचार को जलवायु नीति मंच पर लाया गया। क्योटो सम्मेलन में अपने बयान में, ITUC ने जस्ट ट्रांजीशन के प्रस्ताव की मांग की। इसे वर्ष 2009 में कोपेनहेगन शिखर सम्मेलन की वार्ता में शामिल किया गया था। बाद में इसे दिसंबर 2015 में पेरिस समझौते में शमिल किया गया।
वर्ष 2018 में, केटोवाइस सम्मेलन, COP-24 के दौरान ‘सॉलिडैरिटी एंड जस्ट ट्रांजिशन सिलेसिया डिक्लेरेशन’ को अपनाया गया था। इसमें ज़ोर दिया गया कि कम कार्बन अर्थव्यवस्था में जस्ट ट्रांजीशन के लिए, कार्यबल का न्यायसंगत ट्रांजिशन हो और समाज में सम्मान के साथ रहने लायक रोजगार के अवसर दिये जायें।
क्या पश्चिम का ट्रांजिशन मॉडल भारत में भी चल पायेगा?
जब जर्मनी ने रुहर घाटी में अपनी कोयला खदानों को बंद किया, तो उसने एक व्यापक और सुनियोजित दृष्टिकोण अपनाया। वर्ष 1957 में यह खदानें लगभग छह लाख लोगों को रोजगार देती थीं। घाटे के कारण, खदानों को वर्ष 1968 में बंद कर दिया गया था। अंतिम खदान 2018 में बंद कर दी गई थी – जो योजना शुरू किये जाने के लगभग 50 साल बाद हुआ।
विभिन्न हितधारकों को ट्रांजीशन के लिए चर्चा में शामिल किया गया था। श्रमिकों और समुदायों पर खदान बंद होने के प्रभाव को कम करने के लिए सरकार चर्चा के आधार पर नीतियां लेकर आई। योजनापूर्ण तरीके से खदानों को बंद करने के कारण वैसी बेरोज़गारी नहीं फैली जिसका डर था।
भारत के संदर्भ में, कुछ कोयला खदानें से लाभ नहीं हो रहा जिसके कारण वो बंद होने की कगार पर हैं, लेकिन कुल मिलाकर, कोयला खनन अभी भी एक मुनाफे का व्यापार है। इसके अतिरिक्त, विकसित देशों में सामाजिक-आर्थिक स्थितियां भारत जैसे विकासशील देशों से भिन्न हैं। विकसित देशों के लिए काम करने वाले जस्ट ट्रांजिशन मॉडल को भारत के लिए अलग तरीके से विकसित करना पड़ेगा।
आइफोरेस्ट में जस्ट ट्रांजिशन की निदेशक श्रेष्ठा बनर्जी का कहना है कि पश्चिमी देशों में कोयला खदानें लगभग 50-60 साल पहले बंद होने लगी थीं और उनकी सबसे बड़ी चुनौती संगठित कर्मचारियों को लेकर थी। “वर्तमान में, अगर हम एक पश्चिमी दृष्टिकोण से जस्ट ट्रांजीशन के बारे में बात करते हैं, जिसकी बहुत बात होती है, तो यह मुख्य रूप से इस [संगठित कर्माचारियों] के आसपास ही केंद्रित है। पश्चिमी देशों में ट्रेड यूनियन जस्ट ट्रांजीशन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।”
बनर्जी का कहना है, पश्चिम के उलट भारत में मुख्य चुनौती कोयला उद्योग में असंगठित मज़दूरों की संख्या है, जो संगठित कार्यबल से तीन गुना अधिक है।”
ओवरसीज डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट (ओडीआई) के प्रबंध निदेशक (अनुसंधान और नीति) रथिन रॉय कहते हैं, ” ऐसे समाज में जहां श्रम कानूनों का खयाल नहीं रखा जाता है, समाज अन्यायपूर्ण है और काम काफी हद तक अनौपचारिक है, चुनौतियां बहुत बड़ी हैं और जाहिर तौर पर भारत में जस्ट ट्रांजीशन को अंजाम देना अधिक कठिन होगा। ”
भारत को क्यों चाहिये जस्ट ट्रांजीशन?
हाल ही में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में जलवायु घटनाओं की बढ़ोतरी की चेतावनी दी गई है और कहा गया है कि यह जलवायु पर अपरिवर्तनीय प्रभाव छोड़ेंगी। संयुक्त राष्ट्र प्रमुख ने रिपोर्ट को मानवता के लिए आखिरी चेतावनी करार दिया। भारत के लिए, रिपोर्ट ने अत्यधिक गर्मी की घटनाओं के बार-बार होने और मारक क्षमता में वृद्धि का अनुमान लगाया है।
ग्लोबल क्लाइमेट चेंज रिस्क इंडेक्स के अनुसार, भारत जलवायु परिवर्तन की चपेट में आने वाले शीर्ष पांच देशों में शामिल है। अध्ययनों के अनुसार, अगर यही स्थिति बनी रहती है तो वर्ष 2100 तक जलवायु संकट के कारण देश को अपने सकल घरेलू उत्पाद का 3% से 10% सालाना नुकसान होने का अनुमान है।
प्राथमिक ऊर्जा बाजार में जीवाश्म ईंधन हावी हैं, इसलिए भारत के लिए उनसे चरणबद्ध तरीके से बाहर निकलने की योजना बनाना महत्वपूर्ण है। भारत पहले ही बिजली बनाने के साफ विकल्पों की राह पर है।
भारत ने टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और वित्तपोषण पर अंतर्राष्ट्रीय समर्थन के साथ वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित बिजली की हिस्सेदारी को 40% तक बढ़ाने का वादा किया है। इसमें वर्ष 2022 तक 175 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा (जिसमें से 100 गीगावाट सौर ऊर्जा होगी) प्राप्त करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य शामिल है।
वर्ष 2019 में यूएन क्लाइमेट एक्शन समिट में, भारत ने घोषणा की, कि उसका लक्ष्य 2030 तक 450 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा क्षमता हासिल करना है, जो उसके द्वारा पेरिस समझौते में की गई घोषणाओं से भी अधिक है।
भारत में जस्ट ट्रांजीशन की चुनौतियाँ क्या हैं ?
कोयले से ट्रांजिशन भारत के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा, क्यूंकि देश के लगभग 40% जिलों की कोयले पर निर्भरता है और लोगों के जीवन और आजीविका को कोयला उद्योग द्वारा आकार दिया गया है।
ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय में इस वर्ष प्रकाशित शोध के अनुसार, भारत के 159 जिलों में लगभग 3.6 मिलियन लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कोयला और बिजली क्षेत्र में कार्यरत हैं। इनमें से अनुमानित 80% नौकरियां कोयला खनन क्षेत्र (51 जिलों में) से जुड़ी हैं, शेष 20% बिजली संयंत्रों (141 जिलों में) से जुड़ी हैं।
यह महत्वपूर्ण आंकड़ा है जो दर्शाता है कि नौकरियों में कोयला खनन क्षेत्र का सामाजिक-आर्थिक योगदान बिजली क्षेत्र से अधिक है। हालांकि, कोयले की खदानें कम संख्या में कुछ ही जिलों में केंद्रित हैं।
शोध में कहा गया है कि “इस बदलाव के सामाजिक-आर्थिक पहलू को लेकर – भारत और विदेश में भी – नॉलेज गैप यानी जानकारी का अभाव है।
खदानों के बंद होने से कई बार लोगों को ऐसे रोज़गार करने पड़ते हैं जिनसे वो अनजान होते हैं और इससे आर्थिक असमानता की स्थिति पैदा होती है।
रॉय कहते हैं की जिस तरीके से भारत कम कार्बन भविष्य की ओर बढ़ रहा है, उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इससे असमानताएं न बढ़ें। उनके हिसाब से जस्ट ट्रांजीशन में एक और चुनौती है- गरीब क्षेत्रों में रोजगार पैदा करना ताकि लोगों को नौकरियों के लिए दूसरे राज्यों में पलायन न करना पड़े।
झारखंड, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना जैसे कई कोयला उत्पादक राज्यों के लिए रॉयल्टी राजस्व का एक प्रमुख स्रोत है। डेटा से पता चलता है कि भारत में कोयला खनन से भुगतान की गई रॉयल्टी वर्ष 2014-15 में 99.93 अरब रुपये से बढ़कर वर्ष 2018-19 में 147.46 अरब रुपये हो गई है। यह बतलाता है कि इन राज्यों के लिए राज्य के खजाने में कोयला रॉयल्टी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। हालांकि, 2019-20 में रॉयल्टी घटकर 12,962 अरब रुपये रह गई।
इसके अतिरिक्त, कोयला कंपनियां अपने लाभ का 26% डिस्ट्रिक्ट मिनरल फण्ड (डीएमएफ ) में योगदान करती हैं। डीएमएफ के फंड का उपयोग खनन से प्रभावित लोगों और क्षेत्रों के हित और लाभ के काम करने के लिए होता है। कोयला राजस्व में कमी या अनुपस्थिति के कारण , डीएमएफ द्वारा समर्थित परियोजना को संचालित करना मुश्किल होगा।
जस्ट ट्रांजीशन में एक और दिक्कत है कोयला खनन क्षेत्रों के आर्थिक-सामाजिक हालात। जब एक कोयला खदान की स्थापना की जाती है, तो यह स्कूलों, अस्पतालों और संचार सेवाओं जैसी बुनियादी सुविधाओं को दूरदराज के गांवों तक पहुंचाती हैं। कोयला खदानें बंद होने से, इनमें से कई सामाजिक परियोजनाएं पटरी से उतर जाएंगी, जिससे स्थानीय समुदाय प्रभावित होंगे।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में सहायक प्रोफेसर सुरंजलि टंडन ने कार्बनकॉपी को बताया कि जस्ट ट्रांजीशन में सबसे कठिन चुनौती है जीवाश्म ईंधन, विशेष रूप से कोयले से बाहर निकलना।
“इससे परे एक बड़ा व्यापक आर्थिक जोखिम हमारे सामने है,” टंडन ने कहा। “यदि आप जीवाश्म ईंधन से जुड़ी कंपनियों और परिसंपत्तियों में विनिवेश शुरू करते हैं, तो आपको वित्तीय प्रणाली के भीतर जोखिम उठाना होगा क्योंकि इन क्षेत्रों को लंबी अवधि का ऋण किया जाता है।” उन्होंने कहा कि जब तक जस्ट ट्रांजीशन को अच्छी तरह से प्रबंधित नहीं किया जाता है, तब तक पूरे सिस्टम में इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है।
विशेषज्ञों का यह भी सवाल है कि जस्ट ट्रांजीशन का वित्तपोषण कौन करेगा? टंडन के अनुसार, सरकार से जन कल्याणकारी योजना के धन माँगना हमेशा स्वाभाविक होता है। लेकिन यह सरकार के लिए एक मुश्किल काम होगा क्योंकि सरकार के राजस्व का एक महत्वपूर्ण हिस्सा जीवाश्म ईंधन से प्राप्त होता है, जिस पर उल्टा प्रभाव होगा। उन्होंने कहा कि ट्रांजीशन के लिए आवश्यक सार्वजनिक वित्त के माध्यम से संसाधनों को हासिल करना एक चुनौती होगी।