Photo: UNFCCC

क्या पैसे का वादा जलवायु परिवर्तन सम्मेलन पर मंडराते अविश्वास का समाधान है?

अगले महीने हो रहे जलवायु सम्मेलन की सफलता के लिए आवश्यक है कि मुख्यतः इक्विटी यानी समानता और क्लाइमेट फाइनेंस के मुद्दों पर विकसित और विकासशील देशों के बीच विश्वास की कमी पर ध्यान दिया जाए। 

संयुक्त राष्ट्र महासभा के 76वें सत्र के लिए विश्व भर के नेता सितम्बर के आखिरी पखवाड़े  में न्यूयॉर्क पहुंचे।

यह बैठक अफगानिस्तान में चिंताजनक घटनाओं, वैश्विक स्वास्थ्य पर कोविड -19 महामारी के प्रभावों, आर्थिक और दो बड़ी सैन्य ताकतों अमेरिका और चीन के बीच तनाव और तेजी से जटिल होते जलवायु संकट के बीच आयोजित की गई।

महासभा के मंच पर एक आम सहमति बनती दिखाई दी कि इनमें से किसी भी वैश्विक मुद्दे का समाधान इस बात पर निर्भर होगा कि विभिन्न राष्ट्र एकजुट होकर, साझा प्रयासों के द्वारा इन संकटों का सामना करने में कितने सक्षम हैं।

विभिन्न देश अच्छी तरह जानते है कि इन प्रयासों के लिए यह कितना आवश्यक है कि सरकारों के बीच विश्वास बना रहे — जबकि हाल के वर्षों में ऐसा कम ही देखने को मिला है।

अब जबकि संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (सीओपी26) का बेहद महत्वपूर्ण 26वां सत्र निकट है, सरकारों के बीच अविश्वास के कारण विकसित और विकासशील देशों के बीच की खाई गहरी होने का खतरा बढ़ रहा है।

जहाँ एक ओर विकसित देश यह उम्मीद करते हैं कि विकासशील देश, विशेषकर भारत जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाएं, इमीशन रोकने के लिये बड़े कदम उठायेंगे, वहीं विकासशील देश इस तरफ इशारा करते हैं की दुनिया के उत्तरी गोलार्ध में बसे विकसित देशों द्वारा अब तक उठाए गए कदम दीर्घकालिक रूप से अपर्याप्त सिद्ध हुए हैं।

कोविड-19 से निबटने के लिए वैश्विक टीकाकरण कार्यक्रम के प्रभावहीन कार्यान्वन ने न केवल दक्षिणी गोलार्ध के देशों में भेदभाव की भावना को बढ़ावा दिया है, बल्कि अन्य अंतर-सरकारी वार्ताओं के प्रति — विशेषकर जलवायु के सन्दर्भ में — गहरी आशकाएं उत्पन्न की हैं।     

अब तक तो यह आशंकाएं तर्कसंगत लगती हैं।

विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन संबंधी समस्याओं के निराकरण के लिए दी जाने वाली वित्तीय सहायता उनके वादों के मुताबिक नहीं हैं  और उसमें कई पेंच हैं। 

विशेषज्ञों का कहना है कि विकासशील देशों पर सीओपी-26 के दौरान अधिक महत्वाकांक्षी घोषणाएं करने का दबाव है यानी उनसे इमीशन रोकने के लिये अधिक कड़े कदम उठाने को कहा जा रहा है। लेकिन विकसित देशों की और से धन और  तकनीकी सहायता देने के ठोस वादों के अभाव में इस बात पर प्रश्न चिन्ह लग जाता है कि व्यवहारिक रूप से यह कैसे संभव होगा। 

पेरिस समझौते के अंतर्गत, अब तक अंतरिक्ष में सबसे अधिक कार्बन जमा करने के लिये ज़िम्मेदार विकसित देशों के लिए अनिवार्य है कि वो विकासशील अर्थव्यवस्थाओं और उभरते बाजारों को ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती करने में सक्षम बनाने के लिए पैसा और ज़रूरी टेक्नोलॉजी दें। 

बैठक से पहले ही मची उथल-पुथल

सच यह है कि शुरू से ही सीओपी-26 की आधारशिला जिस ज़मीन पर है वही काफी पोपली है।

बैठक से पहले दुनिया के सबसे बड़े दो कार्बन उत्सर्जकों अमेरिका और चीन के बीच राजनयिक संबंधों में दरार सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है।

जलवायु परिवर्तन पर अमेरिका के विशेष दूत जॉन केरी इस वर्ष अपनी यात्राओं के दौरान चीन से जलवायु परिवर्तन से जुड़ा कोई भरोसा हासिल नहीं कर सके।

चीन ने एक बयान में कहा कि ग्लोबल वॉर्मिंग के खिलाफ अमेरिका के प्रयास एक ‘मरूद्यान की तरह है, लेकिन मरूद्यान के चारों ओर रेगिस्तान है और मरूद्यान बहुत जल्द मरुस्थलीय हो सकता है’।

सरल शब्दों में इसका मतलब है कि चीन और अमेरिका बीच जलवायु मुद्दों पर सहयोग को दोनों देशों के बीच के संबंधों की व्यापक स्थिति से अलग नहीं किया जा सकता है।

उसी प्रकार, इस साल दो यात्राओं के बावजूद, केरी भारत को महत्वाकांक्षी जलवायु कार्रवाई या नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन के वादे के लिए नहीं मना सके।

भारत का रुख स्पष्ट है कि ‘केवल नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन तक पहुंचना ही पर्याप्त नहीं है’; विकसित देशों को न केवल उत्सर्जन में तत्काल भारी कटौती कर अपनी अर्थव्यवस्थाओं का विकार्बनीकरण करना चाहिए, बल्कि विकासशील देशों को वित्तीय सहायता भी प्रदान करनी चाहिए।

वैश्विक औसत की तुलना में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन बहुत कम होने के बावजूद, दुनिया के तीसरे सबसे बड़े उत्सर्जक भारत पर सीओपी में अपनी जलवायु कार्रवाई में गति लाने का अत्यधिक दबाव है।

शीर्ष दो उत्सर्जकों, संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन ने अपनी शुद्ध-शून्य समय सीमा क्रमशः 2050 और 2060 तय की है।

ग़रीब देशों से भेदभाव 

इन सबके बीच, अल्पविकसित देश (एलडीसी), जो जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित हैं, पर्याप्त मात्रा में कोविड-19 के टीके पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

सीओपी आयोजन समिति की इस बात को लेकर तीखी आलोचना हो रही है कि वह सभी देशों के समान प्रतिनिधित्व वाले एक निष्पक्ष सम्मेलन का विश्वास दिला पाने में असफल रहे।

इन घटनाओं की सीओपी26 की सफलता या असफलता निश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका है।   

संयुक्त राष्ट्र प्रमुख एंटोनियो गुटेरेस और इस वर्ष सीओपी के मेजबान यूनाइटेड किंगडम ने महासभा के दौरान स्थिति को संभालने का प्रयास किया है।

सितंबर 20 को,  गुटेरेस और यूके के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने ‘विश्वास बनाने’ के उद्देश्य से विश्व के नेताओं की एक बैठक बुलाई।

“मेरा मानना है कि सीओपी26 पर असफल होने का खतरा है,”  गुटेरेस ने 20 सितंबर की बैठक से पहले वैश्विक समाचार एजेंसी रॉयटर्स को दिए एक साक्षात्कार में कहा।

 “अभी भी उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध, विकसित और विकासशील देशों के बीच कई स्तरों पर अविश्वास है, जिसे दूर करना आवश्यक है।”

इस चुनौती से निबटने के लिए अमेरिका भी वार्ता की मेज से वर्षों की अनुपस्थिति के बाद जलवायु क्षेत्र में अपने राजनयिक प्रभुत्व को पुनः स्थापित करने का इच्छुक है।

जलवायु परिवर्तन पर अमेरिका के विशेष दूत जॉन केरी की यात्राओं के अलावा, व्हाइट हाउस ने जॉनसन और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बातचीत के लिए आमंत्रित किया है जिसमें कथित तौर पर जलवायु कार्रवाई पर चर्चा भी शामिल है।

भरोसे की लगातार कमी

वैश्विक टीकाकरण प्रयासों में समानता के सिद्धांत की विकसित देशों ने जिस प्रकार अवहेलना की वह इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि विकासशील देशों के लिए विकसित विश्व पर भरोसा कर पाना इतना कठिन क्यों है।

 “सबसे पहले हमें यह स्वीकार करना होगा कि सीओपी26 टीकाकरण में असमानता की पृष्ठभूमि में हो रहा है,” क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क के वरिष्ठ सलाहकार हरजीत सिंह ने कार्बनकॉपी को बताया।

“देखिए विकसित देशों की इस पर कैसी प्रतिक्रिया है। कुछ [अमीर] देश और कॉर्पोरेशंस अपने दायित्वों को पूरा नहीं कर रहे हैं, अपने संसाधनों को साझा नहीं कर रहे हैं। और वह उन व्यवस्थाओं को बदलना नहीं चाहते जो मूल रूप से संकट या संकटों के लिए जिम्मेदार हैं,” उन्होंने कहा। 

वैश्विक महामारी की स्थिति में, गरीब देशों में टीकाकरण को बढ़ाने के लिए आपातकालीन सहायता या कुछ मिलियन टीकों के हस्तांतरण से कहीं अधिक प्रयासों  की आवश्यकता है।

“मूलभूत समस्या यह है कि बौद्धिक संपदा अधिकार यानी इटलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट (आईपीआर) किसके पास है,” सिंह कहते हैं।

वह बताते हैं कि इनमें से अधिकांश आईपीआर का भुगतान जनता के पैसों से किया जाता है, फिर भी कॉर्पोरेशंस पैसा कमाते हैं और टीकों के स्थानीय उत्पादन और वितरण हेतु पेटेंट किराए पर नहीं देते। इसका परिणाम यह होता है कि जहां यूरोप में लगभग 60% टीकाकरण हो चुका है वहीं अफ्रीका 6% भी नहीं हुआ है।

कोविड-19 की स्थिति इस बात का एक उपयुक्त उदाहरण है कि संकट के समय में कैसे वैश्विक शक्तियां अपने आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए अपनी प्राथमिकताएं बदल सकती हैं।

“ठीक ऐसा ही चलन जलवायु परिवर्तन के विषय में भी है। अपने बढ़ते उत्सर्जन को कम करने और अपने हिस्से की जलवायु कार्रवाई को पूरा करने की जगह, अमीर देश दूसरों को और अधिक जलवायु कार्रवाई यानी क्लाइमेट एक्शन करने और नेट-ज़ीरो की घोषणा करने का उपदेश देते हैं। अमेरिका अभी भी कोयले के शीर्ष उपयोगकर्ताओं में से एक है। वह फ्रैकिंग और प्राकृतिक गैस के उत्पादन में भी आगे है। यूके जहां एक ओर जलवायु का चैंपियन बनने की कोशिश करता है वहीं दूसरी ओर अपतटीय ड्रिलिंग का भी समर्थन करता है,” सिंह ने कहा।

नेट-ज़ीरो घोषित करने का अनुचित दबाव

इसमें कोई संदेह नहीं है कि शुद्ध-शून्य उत्सर्जन की प्रतिज्ञा करना महत्वपूर्ण है। समस्या यह है कि विकसित देश इसके लिए दबाव की रणनीति अपनाते हैं। यह भारत के लिए विशेष रूप से सत्य है, जो आगामी सीओपी में अपनी शून्य उत्सर्जन की समयसीमा शताब्दी के मध्य में तय करने की घोषणा करने के दबाव में है, ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (सीईईडब्ल्यू) में लो-कार्बन पाथवेज़ से जुड़े अर्थशास्त्री वैभव चतुर्वेदी कहते हैं।  

उनके मुताबिक, “भारत जैसे देश के लिए किसी एक साल को नेट-ज़ीरो की समयसीमा के रूप में चुनना आसान काम नहीं है। यह बेहतर ढंग से समझने के लिए गहन विश्लेषण की आवश्यकता है कि देश पर इसके क्या परिणाम होंगे। फिर सभी हितधारक यानी स्टेक होर्डर और संबंधित मंत्रालय सामूहिक रूप से इन विश्लेषणों पर विचार कर सकते हैं कि व्यावहारिक रूप से क्या किया जा सकता है।” 

सेंटर फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस (सीएसईपी) के वरिष्ठ फेलो राहुल टोंगिया के मुताबिक नेट-ज़ीरो लक्ष्य के तीन प्रमुख चिंताजनक पहलू हैं। “पहला, क्या यह वास्तव में ज़ीरो हैं, या फिर ‘नेट’ हैं जो भविष्य के उत्सर्जन के समायोजन अथवा अनुचित ऑफसेट के माध्यम से प्राप्त किए गए हैं। या फिर क्या यह इससे भी बदतर,  केवल कागज़ों पर की जाने वाली चालाकी है,” उनके नए वर्किंग पेपर में यह सवाल है। पेपर आगे कहता है कि ऑफ़सेट तब अनुचित माने जाते हैं जब वह ‘ऑल कार्बन इज़ इक्वल’ के सिद्धांत पर आधारित होते हैं, जबकि कार्बन इमीशन रोकने की लागत हमेशा बराबर नहीं होती। इसका आर्थिक पहलू उन देशों के पक्ष में है जो बड़ी मात्रा में इमीशन कर रहे हैं। उनकी बात का एक सार यह भी है कि दुनिया में तेज़ी से कार्बन फैला रहे देश ही छोटे देशों द्वारा मिटिगेशन के प्रयासों का फायदा उठा ले जाते हैं। 

दूसरा, पेपर कहता है कि यदि कोई शून्य तक पहुंच भी जाता है, तो वहां पहुंचने के लिए वक्रपथ का आकार क्या है? अधिकांश देश इस विवरण पर स्पष्ट रूप से चुप हैं। यह आकार समय के साथ बढ़ते हुए उत्सर्जन को निर्धारित करेगा, जो वास्तव में मायने रखता है।

“तीसरा, क्या सभी देशों से लगभग एक ही समय पर लक्ष्य तक पहुंचने की उम्मीद की जा रही है? यह न केवल निम्न-उत्सर्जकों [जो निरपवाद रूप से गरीब, विकासशील देश हैं] के लिए अनुचित है, बल्कि उनके 2050 तक शून्य पर आने का मतलब होगा कि कई उच्च-उत्सर्जक देश वैश्विक कार्बन बजट के विभाजन के माध्यम से अपने ‘उचित हिस्से’ से अधिक उत्सर्जन करेंगे,” पेपर कहता है।

हालांकि, विज्ञान या तर्क से परे राजनैतिक और आर्थिक रूपरेखाएं तय करेंगी कि ऊंट किस करवट बैठता है।

“अंततः, विकसित देश ही सीओपी का एजेंडा तय करते हैं। वह नेट-जीरो के मुद्दे पर समझौता नहीं करेंगे,” चतुर्वेदी कहते हैं। “विकासशील दलों के बीच अशांति को ठंडा करने के लिए वह क्लाइमेट फाइनेंस पर चर्चा के लिए सहमत हो सकते हैं, या फिर कोई प्रतीकात्मक वादा कर सकते हैं जैसे पिछली बार के 100 अरब डॉलर जो कभी नहीं मिले,” उन्होंने आगे कहा। “और यही कारण है कि विकासशील देशों में विश्वास की कमी है।”

संयोग से, इन टिप्पणियों के कुछ दिनों बाद, संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने भाषण के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने घोषणा की कि अमेरिका 2024 के अपने क्लाइमेट फाइनेंस के संकल्प को बढ़ाकर दोगुना कर देगा जो प्रति वर्ष 5.7 बिलियन डॉलर से बढ़कर 11.4 बिलियन डॉलर हो जाएगी और ‘अमेरिका अंतरराष्ट्रीय क्लाइमेट फाइनेंस के मामले में अग्रणी होगा’। इससे पहले यूरोपीय संघ ने भी इसी तरह की घोषणा की थी जब विकसित देश प्रति वर्ष $100 बिलियन की पाइपलाइन को सीओपी में पेश करने के लिए संघर्ष कर थे।

इतिहास की पुनरावृत्ति भले न हो लेकिन वैसा ही कुछ घटना निश्चित है। चतुर्वेदी चेतावनी देते हैं कि इस सीओपी का हश्र 2009 में कोपेनहेगन में हुई सीओपी15 के समान होगा, जो संयुक्त राष्ट्र जलवायु वार्ता के सभी सत्रों में सबसे बड़ी निराशा के रूप में बदनाम है। उनका कहना है कि वैश्विक स्थिति बहुत कुछ वैसी ही है जैसी 2009 में थी। सीओपी15 वैश्विक मंदी के बाद हुई थी और उस समय भी अमेरिका और चीन के संबंध तनावपूर्ण थे।

क्लाइमेट फाइनेंस के वादे जो कभी पूरे नहीं हुए

सीओपी26 के लिए क्लाइमेट फाइनेंस वित्त एक बड़ी बाधा है।

विकसित अर्थव्यवस्थाएं यूएनएफसीसीसी के तहत अपने कानूनी दायित्वों के निर्वहन की दिशा में 2020 तक सालाना 100 अरब डॉलर जुटाने के लिए प्रतिबद्ध थीं। यह सिद्ध करने के लिए कि वह इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए प्रयासरत हैं, विकसित देशों ने आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) को जलवायु संबंधी गतिविधियों और धन के लिए पूंजी प्रवाह का विश्लेषण करने वाली प्रगति रिपोर्ट तैयार करने के लिए नियुक्त किया।

सितंबर 2021 के मध्य में जारी नवीनतम ओईसीडी रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक प्रभाव झेलने वाले विकासशील देशों को 2019 में 79.6 बिलियन डॉलर प्राप्त हुये जो संपन्न देशों के वादे से करीब 21 बिलियन डॉलर कम है। रिपोर्ट ने यह भी दर्शाया कि वैश्विक महामारी से पहले ही पैसा आना बन्द हो गया। दिलचस्प बात यह है कि अमेरिकी डॉलर में भारी मुद्रास्फीति के कारण 2010 की कीमतों पर 100 अरब डॉलर आज के करीब 126 अरब डॉलर के बराबर होगा। यह विकसित देशों को डॉलर की गिरती क्रय शक्ति के कारण अपनी प्रतिबद्धताओं पर प्रभावी रूप से 25% की छूट देता है।

विकासशील देशों को जलवायु वित्त की वास्तविकता से कई समस्याएं हैं जिन्हें ओईसीडी रिपोर्ट चित्रित करती है। उनका तर्क यह है कि जलवायु वित्त की एक मानक परिभाषा के अभाव में, यह रिपोर्ट्स प्राप्त की गई वास्तविक राशि को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती हैं; मूल रूप से यह विकसित देशों पर मक्कारी का आरोप है। जलवायु वित्त की वास्तविक राशि बहुत कम हो सकती है, ऐसा कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आकलनों से पता चलता है, जिनमें अंतरराष्ट्रीय थिंक-टैंक ऑक्सफैम का आंकलन भी शामिल है।

सीओपी26 के पहले विकसित देशों को यह तय करना होगा कि वह संयुक्त रूप से प्रतिवर्ष 100 बिलियन डॉलर जुटाने की प्रतिबद्धता को कैसे पूरा करेंगे और उसे कैसे आगे ले जाएंगे। वैश्विक थिंक-टैंक विश्व संसाधन संस्थान के विशेषज्ञों ने हाल ही में लिखा है कि सीओपी26 की सफलता और विकासशील देशों के साथ विश्वास बहाल करने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि जलवायु वित्त के अंतर को कम किया जाए।

नई शुरुआत या वही पुराना ढर्रा  

डब्ल्यूआरआई से जुड़े जलवायु वित्त विशेषज्ञ जो थ्वाइट्स ने कार्बनकॉपी को बताया, “राष्ट्रपति बाइडेन की नई जलवायु वित्त प्रतिज्ञा अमेरिका द्वारा 100 अरब डॉलर की प्रतिबद्धता के अपने हिस्से को पूरा करने की दिशा में एक स्वागत योग्य और महत्वपूर्ण कदम है। यदि अमेरिका इस प्रतिज्ञा को पूरा करता है तो यह किसी एक देश द्वारा सबसे बड़ा जलवायु वित्त योगदान कर्ता होगा, हालांकि कई अन्य देश फिर भी अपनी अर्थव्यवस्थाओं के आकार के सापेक्ष अधिक योगदान दे रहे होंगे।” 

हालांकि, अमेरिका की 2024 तक 11.4 बिलियन डॉलर की जलवायु सहायता प्रदान करने की नई प्रतिबद्धता, 2019 में जलवायु सहायता पर यूरोपीय संघ द्वारा खर्च किए गए 24.5 बिलियन डॉलर की तुलना में अभी भी बहुत पीछे है। यह प्रतिज्ञा लगभग 43 बिलियन डॉलर की ‘उचित हिस्सेदारी’ की तुलना में निश्चित रूप से बहुत कम है, जिसे अमेरिका को हर साल देना चाहिए, क्योंकि वह दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और ऐतिहासिक उत्सर्जक होने के कारण जलवायु परिवर्तन के लिए किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक जिम्मेदार है। 

पिछले एक दशक में, अमेरिका क्लाइमेट फाइनेंस के मामले में पिछड़ गया है। पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ग्रीन क्लाइमेट फंड को 3 बिलियन डॉलर देने का वादा किया, लेकिन पद छोड़ने से पहले सिर्फ 1 बिलियन डॉलर दे सके।

उनके उत्तराधिकारी डोनाल्ड ट्रम्प ने उस प्रतिज्ञा को पूरी तरह से किनारे कर दिया और 2017-18 में अमेरिका ने फ्रांस, जर्मनी, जापान और यूके की तुलना में कम पैसा दिया, जबकि वह उन सभी की संयुक्त अर्थव्यवस्था से बड़ी अर्थव्यवस्था है।

थ्वाइट्स के मुताबिक बाइडेन की बातों और संकल्प से पता चलता है कि वह यह समझते हैं कि महत्वाकांक्षी कदम के लिये अमेरिकी क्लाइमेट फाइनेंस में वृद्धि कितनी महत्वपूर्ण है। 

“$100 बिलियन प्रदान करना भी विश्वास का विषय है, और अंतर्राष्ट्रीय जलवायु राजनीति में भरोसा का महत्व है,” यूके के सीओपी26 के मनोनीत अध्यक्ष आलोक शर्मा ने जुलाई 2021 में लिखा। उन्होंने इस साल ग्लासगो में होने वाली महत्वपूर्ण बैठक से पहले विकसित विश्व द्वारा जलवायु वित्त को और प्रोत्साहित करने की आवश्यकता पर बल दिया।

यह कार्बनकॉपी पर पहले अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुई रिपोर्ट का संपादित रूप। इसका हिन्दी अनुवाद उत्कर्ष मिश्रा ने और संपादन हृदयेश जोशी ने किया है। 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.