जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे देशों के लिये जो नेटवर्क बनाया गया है क्या वह अपने लक्ष्य को हासिल करेगा या फिर कई दूसरी कोशिशों की तरह शोपीस ही बनकर रहे जायेगा।
कोरोना महामारी की छाया में आखिरकार इस साल ग्लासगो (यूके) में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हो रहा है। एक साल की देरी से हो रहे इस सम्मेलन में क्लाइमेट चेंज से जुड़े कई पहुलुओं पर दुनिया के 190 से अधिक देशों के बीच खींचतान होगी। नेट ज़ीरो, मिटिगेशन और क्लाइमेट फाइनेंस जैसे मुद्दों के बीच वार्ता का एक महत्वपूर्ण विषय रहेगा सेंटियागो नेटवर्क। क्या है यह सेंटियागो नेटवर्क और इसकी अहमियत किन देशों के लिये सबसे अधिक है।
दो साल पहले बना सेंटियागो नेटवर्क
दो साल पहले 2019 में स्पेन की राजधानी मेड्रिड में सेंटियागो नेटवर्क पर सहमति बनी। उस साल लेटिन अमेरिकी देश चिली की अध्यक्षता में यह सम्मेलन हुआ। इसमें यह तय किया गया कि जिन विकासशील (और गरीब) देशों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों – जैसे सूखा, बाढ़, चक्रवाती तूफान आदि – के कारण क्षति हो रही है उन्हें तकनीकी सहायता देने के लिये एक नेटवर्क बनाया जाये ताकि इन देशों को इस नुकसान (लॉस एंड डैमेज) से बचाने के लिये संबंधित संस्थाओं और विशेषज्ञों को सहायता की जा सके।
चूंकि उस साल पहले यह जलवायु परिवर्तन सम्मेलन चिली के सेंटियागो में होना था (जो कि बाद में मेड्रिड में कराना पड़ा लेकिन इस सम्मेलन की अध्यक्षता चिली ने ही की) इसलिये इस फैसले को सेंटियागो नेटवर्क कहा जाता है। यह नेटवर्क असल में लॉस एंड डैमेज की समस्या पर पोलैंड की राजधानी वॉरसॉ में लिये गये फैसले का ही अगला कदम है।
क्यों ज़रूरत है सेंटियागो नेटवर्क की
ग्लोबल वॉर्मिंग के बढ़ते प्रभाव एक्सट्रीम वेदर यानी विनाशकारी मौसमी घटनाओं के रूप में दिख रहे हैं। बाढ़, सूखा और चक्रवाती तूफानों के साथ जल संकट और फसलें नष्ट हो रही है। इसका असर बेरोज़गारी और पलायन के रूप में भी दिख रहा है। क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क के सीनियर एडवाइज़र हरजीत सिंह कहते हैं, “साल 2019 में ही करीब 2.5 करोड़ लोग मौसम से जुड़ी घटनाओं के कारण विस्थापित हुये हैं और यह स्पष्ट हो चुका है कि ग्लोबल वॉर्मिंग कैसे इन मौसमी घटनाओं की मार बढ़ा रही है। दुर्भाग्य से इसकी चोट उन देशों पर सबसे अधिक है जिनके पास संसाधन नहीं हैं।”
सिंह के मुताबिक, “भारत में तो फिर भी कई संस्थान और संसाधन हैं जिनसे जलवायु परिवर्तन प्रभाव से लड़ा जा सकता है या लड़ा जा रहा है लेकिन आप उन गरीब और साधनहीन देशों की सोचिये जिन पर क्लाइमेट चेंज की बड़ी मार पड़ रही है और उनके पास इससे लड़ने की कोई विशेषज्ञता नहीं है। मिसाल के तौर पर मलावी या नेपाल। अगर यह नेटवर्क बनता है तो कितने ही देशों को आपस में जुड़कर और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सहयोग से इस संकट का मुकाबला करने में मदद मिलेगी बशर्ते इस पर गंभीरता और ईमानदारी से अमल किया जाये।”
अभी कहां पहुंचा है नेटवर्क
पिछले साल जून में सेंटियागो नेटवर्क की वेबसाइट लॉन्च की गई। संयुक्त राष्ट्र के इस सेंटियागो नेटवर्क पोर्टल पर अभी 24 प्रभावित देशों के नाम हैं जिन्हें मदद की ज़रूरत है। इनमें भूटान, फिलीपीन्स, विएतनाम, मलावी, दक्षिण अफ्रीका, चिली, कोस्टा रिका, कांगो और फिलीस्तीन शामिल हैं। इनमें ग्रीन क्लाइमेट फंड, यूनमडीपी और यूएनईपी समेत करीब 20 संस्थाओं के नामों की सूची है जो अलग अलग तरीके से मदद कर सकते हैं।
लेकिन यह नेटवर्क कितना कामयाब होगा इसे लेकर जानकारों के कई सवाल हैं। इससे पहले जलवायु परिवर्तन सम्मेलनों में ऐसी कोशिश होती रही हैं जो किसी नतीजे तक नहीं पहुंच पातीं।
दिल्ली स्थित संस्था आई फॉरेस्ट के अध्यक्ष और सीईओ चन्द्र भूषण कहते हैं कि गरीब और विकासशील देश क्लाइमेट समिट में अपनी मांगें उठाते रहते हैं और उन्हें खुश करने के लिये ऐसे नेटवर्क और फंड्स की घोषणा कर दी जाती है। भूषण के मुताबिक इन कोशिशों से हेडलाइंस तो बन जाती हैं लेकिन कुछ ही सालों में इस भुला दिया जाता है। साल 2001 में इसी तरह एडाप्टेशन फंड की शुरुआत की गई थी लेकिन उसके तहत जिस क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म की बात की गई वह ठंडे बस्ते में है।
भूषण के मुताबिक “सेंटियागो नेटवर्क भी ऐसी कोशिशों का हिस्सा ही कहलायेगा अगर यह केवल एक वेबसाइट या पोर्टल तक सीमित हो जाये। अब तक की ऐसी कोशिशों में ग्रीन क्लाइमेट फंड ही एक गंभीर कोशिश है लेकिन इसमें भी अमीर देशों की ही चलती है और बहुत कुछ हासिल किया जाना बाकी है।”
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