अज़रबैजान की राजधानी बाकू में चल रहे जलवायु महासम्मेलन के पहले हफ़्ते में एक मजबूत और महत्वाकांक्षी फाइनेंस समझौते की दिशा में कोई ख़ास प्रगति नहीं हुई है। जबकि इसी सम्मेलन में क्लाइमेट फाइनेंस पर नए लक्ष्य, जिसे न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल, या एनसीक्यूजी कहा जाता है, को फाइनल किया जाना है। एनसीक्यूजी के तहत क्लाइमेट प्रभावों और आपदाओं से निपटने के लिए हर साल 1 ट्रिलियन डॉलर जुटाये जाने का लक्ष्य रखा गया है।
विकसित और विकासशील देशों के ग्रुप फाइनेंस पर अपने विभिन्न मतों पर अड़े हुए हैं, इसलिए अब सभी की निगाहें ब्राजील में जी20 नेताओं के शिखर सम्मेलन पर टिकी हैं, जो कुछ राजनैतिक संकेत देकर गतिरोध को समाप्त करने में मदद कर सकते हैं।
संयुक्त राष्ट्र के जलवायु प्रमुख साइमन स्टील ने शनिवार को जी20 नेताओं से उत्सर्जन में तेजी से कटौती करने का आग्रह किया, ताकि जलवायु परिवर्तन से होने वाले आर्थिक नुकसान को रोका जा सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और अन्य नेता ब्राज़ील के रियो डी जनेरियो में 18 और 19 नवंबर को जी20 शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे। जानकारों का कहना है कि डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अब क्लाइमेट फाइनेंस पर अमेरिका से कोई उम्मीद बेमानी ही लगती है। बाकी विकसित देश भी उनकी नीतियों की आड़ में छुपना चाहेंगे। क्लाइमेट फाइनेंस पर आप हमारे दो विस्तृत लेख यहां और यहां पढ़ सकते हैं।
कॉप29 में अपने संबोधन में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के कार्यकारी सचिव स्टील ने कहा कि जी20 उन समस्याओं से निपटने के लिए बनाया गया था जिनसे कोई भी देश या देशों का समूह अकेले नहीं निपट सकता है। “इस आधार पर वैश्विक जलवायु संकट रियो में प्राथमिकता होनी चाहिए,” उन्होंने कहा।
हालांकि जी20 शिखर सम्मेलन जलवायु परिवर्तन पर निर्णय नहीं लेता है, लेकिन यह सम्मलेन के सर्वोच्च एजेंडे में शामिल है और उम्मीद है कि जी20 देश अधिक वित्तीय संसाधन जुटाने के लिए प्रतिबद्धता प्रदर्शित करेंगे, जो कॉप29 में गतिरोध समाप्त करने में सहायक होगा।
दूसरे हफ्ते से क्या हैं उम्मीदें
पहले हफ्ते की बहस इस बात पर केंद्रित रही कि अमीर देशों को विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने और स्वच्छ ऊर्जा में परिवर्तन के लिए कितनी वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए। फंडिंग की रकम पर असहमति के कारण तनाव बना रहा। विकासशील देशों ने सालाना 1.3 ट्रिलियन डॉलर की मांग की, जबकि अमीर देश इससे बहुत कम पर अड़े रहे।
विभिन्न देशों की सरकारों के मंत्री महत्वपूर्ण राजनैतिक निर्णय लेने के लिए इस हफ्ते बाकू पहुंच रहे हैं। जलवायु वार्ताओं में आम तौर पर समझौते अंतिम समय में होते हैं, और वार्ताकारों को उम्मीद है कि फंडिंग और प्रतिबद्धताओं को लेकर जो मतभेद हैं वह मंत्रियों की बातचीत में दूर हो सकते हैं। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि अधिक तात्कालिक निर्णयों की जरूरत है। ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने जैसे प्रमुख लक्ष्य, पर्याप्त वित्तीय प्रतिबद्धताओं और राजनैतिक इच्छाशक्ति के बिना पूरा होना मुश्किल है।
पहुंचे 1,773 जीवाश्म ईंधन लॉबीस्ट
अज़रबैजान की राजधानी बाकू में चल रहे संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में 1,750 से अधिक जीवाश्म ईंधन लॉबीकर्ताओं को प्रवेश की अनुमति दी गई है। ‘किक बिग पॉल्यूटर्स आउट’ गठबंधन के विश्लेषण के अनुसार, कॉप29 में मौजूद जीवाश्म ईंधन लॉबिस्टों की संख्या लगभग हर देश के प्रतिनिधिमंडल की तुलना में काफी अधिक है। बाकू में पंजीकृत 1,773 जीवाश्म ईंधन लॉबिस्टों की संख्या केवल मेजबान देश अजरबैजान (2,229), कॉप30 मेजबान ब्राजील (1,914), और तुर्किये (1,862) द्वारा भेजे गए प्रतिनिधिमंडलों से कम है।
जीवाश्म ईंधन — कोयला, तेल और गैस — का जलवायु परिवर्तन में सबसे बड़ा योगदान है। यह वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का 75 प्रतिशत से अधिक और कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का लगभग 90 प्रतिशत है।
भारत की उपस्थिति कमजोर?
इस वर्ष कॉप में भारत की कमजोर उपस्थिति की चर्चा हो रही है। हालांकि भारतीय वार्ताकार हमेशा ध्यान आकर्षित करने से बचते हैं, लेकिन भारतीय पैवेलियन (कॉप में देशों, संगठनों द्वारा लगाए गए स्टॉल) पिछले 10 वर्षों में काफी लोकप्रिय रहे हैं। लेकिन इस साल भारत ने पैवेलियन नहीं लगाया है। प्रमुख भारतीय नेता भी कॉप से अनुपस्थित हैं, जबकि पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2028 में कॉप की मेजबानी करने की बात कही थी। जानकारों का कहना है कि इस कमजोर उपस्थिति से भारत की बातचीत की रणनीति पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
कॉप में अब तक भारत ने यूरोपीय संघ के कार्बन बॉर्डर एडजस्टमेंट मैकेनिज्म (सीबीएएम) जैसी एकतरफा व्यापार नीतियों का कड़ा विरोध किया है और उन्हें भेदभावपूर्ण और वैश्विक जलवायु सहयोग के लिए हानिकारक बताया है। भारत ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसी नीतियों से विकासशील देशों पर अनुचित वित्तीय बोझ पड़ता है।
क्लाइमेट फाइनेंस पर भारत ने विकसित देशों से कर्ज-आधारित मॉडल से बचते हुए अनुदान और रियायती वित्त के माध्यम से विकासशील देशों के जलवायु प्रयासों का समर्थन करने के लिए 2030 तक सालाना कम से कम 1.3 ट्रिलियन डॉलर देने की मांग की है। विकसित देशों का ध्यान पेरिस समझौते की ओर खींचते हुए भारत ने इस बात पर जोर दिया कि नए फाइनेंस लक्ष्य को लाभ-संचालित निवेश योजना में नहीं बदला जा सकता है।
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