जैव विविधता सम्मेलन में कुछ ऐतिहासिक फैसले हुए हैं लेकिन बायोडाइवर्सिटी को क्षति पहुंचाने वाले कारणों को तालिकाबद्ध नहीं किया गया है।
मॉन्ट्रियल (कनाडा) में अभी संपन्न हुए जैव विविधता सम्मेलन की तुलना 2015 में जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण के लिए हुई ऐतिहासिक पेरिस डील से की जा रही है। हालांकि करीबी अध्ययन से इस जैव विविधता संधि की कई कमज़ोरियों का भी पता चलता है।
हर दो साल में होने वाली इस बायोडाइवर्सिटी समिट में — जिसे सीबीडी भी कहा जाता है — दुनिया के करीब 200 देशों ने हिस्सा लिया था।
आखिर क्यों माना जा रहा है इसे ऐतिहासिक
मॉन्ट्रियल में 190 देश इस बात पर सहमत हुए हैं कि मूल और आदिवासी समुदाय के अधिकारों का सम्मान करते हुए धरती के 30 प्रतिशत हिस्से को 2030 तक संरक्षित किया जाए। इसमें ज़मीन के साथ, नदियां, तालाब, तटीय क्षेत्र और समुद्र सभी शामिल हैं।
वर्तमान में धरती की केवल 17% भूमि और 10% समुद्री क्षेत्र ही कानूनी रूप से संरक्षित हैं।
साल 2030 तक इकोसिस्टम के क्षरण को रोकने और उसकी बहाली के लिए इन देशों ने 23 लक्ष्य निर्धारित किए हैं।
सभी देशों ने तय किया है कि बायोडाइवर्सिटी के लिहाज से अति महत्वपूर्ण इलाकों की लगभग शून्य क्षति होने दी जाएगी।
दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में लीगल रिसर्चर कांची कोहली कहती हैं कि जंगलों और जैव विविधता समृद्ध इलाकों में रहने वाले लोगों के अधिकारों का सम्मान इस सम्मेलन की बड़ी उपलब्धि है। कोहली के मुताबिक, “बायोडाइवर्सिटी के संरक्षण का जो संकल्प है यह बहुत बड़ी बात है और लोकल कम्युनिटी के अधिकारों का सम्मान करते हुए यह संरक्षण करना और बड़ी बात है। यह बात पहले नोगोया प्रोटोकॉल (साल 2010) में आई थी लेकिन तब यह एक्सेस और बैनेफिट शेयरिंग तक सीमित था। लेकिन अब पूरे बायोडाइवर्सिटी फ्रेमवर्क में इन दोनों बातों — जैव विविधता संरक्षण और सामुदायिक अधिकारों का सम्मान — को लाना बड़ी बात है।”
टिकाऊ जीवनशैली पर ज़ोर
भारत और कई अन्य विकसित देश कृषि सब्सिडी को जारी रखने के पक्ष में थे और इन पर चोट नहीं हुई है। हालांकि सरकारें इस बात पर सहमत हुई हैं कि पूरी दुनिया में जैव विविधता को क्षति पहुंचाने वाली हानिकारक सरकारी सब्सिडी में सालाना 50,000 करोड़ की कटौती की जाएगी।
समावेशी और टिकाऊ (सस्टेनेबल) जीवनशैली पर ज़ोर देते हुए इस सम्मेलन में वैश्विक खाद्य बर्बादी को आधा करने और अतिउपभोग (ओवरकंजम्पशन) और कचरे को घटाने का लक्ष्य रखा गया है। सम्मेलन में स्वीकार किए गए ग्लोबल डाइवर्सिटी फ्रेमवर्क में खतरनाक रसायनों और कीटनाशकों का भी इस्तेमाल आधा करने का लक्ष्य है।
इस संधि की कमियों की ओर इशारा करते हुए जानकार कहते हैं कि न तो जैव विविधता क्षति के बड़े कारणों की पहचान की गई है और न ही उन्हें रेखांकित किया गया है। जैसे कीटनाशकों की बात हुई, उसी तरह सड़क, रेलमार्ग और सुरंग बनाने या खनन प्रोजेक्ट्स की बात नहीं हुई जिनकी लिए जैव विविधता से समृद्ध इलाकों को बर्बाद किया जाता है।
कोहली कहती हैं कि यह बात जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में होनी वाली वार्ता से समझी जा सकती है। वह कहती हैं, “इन वार्ताओं में बात यहां आकर अटक जाती है कि किसे विकसित होने का हक़ है और किसे नहीं और इसीलिए पर्यावरण और जैव विवधता को क्षति पहुंचाने वाले प्रोजेक्ट्स को लेकर कोई स्पष्टता वार्ता के दस्तावेज़ में नहीं दिखती।”
कुनमिंग-मॉन्ट्रियल वार्ता में पर्यवेक्षक के तौर पर मौजूद रहीं क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क की प्रतिष्ठा सिंह कहती हैं, “कॉप-15 में हुई डील महत्वपूर्ण है और वास्तविक दुनिया में जैव विविधता संरक्षण के लिये बड़ी ज़रूरी भी। लेकिन वार्ता में किए वादे कितने प्रभावकारी होंगे यह इस पर निर्भर है कि राष्ट्रीय स्तर पर इन्हें कितना लागू किया जाता है।”
वित्त पर विवाद कायम, अफ्रीकी देशों की अनदेखी
हमेशा की तरह फाइनेंस की कमी इस सम्मेलन में भी एक बड़ा मुद्दा रही है। विकसित और विकासशील देशों में फ्रेमवर्क में तय लक्ष्यों को हासिल करने के लिए वित्त की ज़रूरत को लेकर गंभीर मतभेद उभरे। साथ ही राष्ट्रीय परिस्थिति के हिसाब से अलग-अलग देशों की ज़िम्मेदारियों में अंतर को लेकर भी मतभेद रहा।
सम्मेलन के आखिर में अफ्रीकी देश कांगो ने एक नए बायोडाइवर्सिटी फंड को क्रियान्वित करने की मांग की और कहा कि जैव विविधता संरक्षण के तय लक्ष्यों के लिए अधिक महत्वाकांक्षी वित्त लक्ष्य पर बहस होनी चाहिए।
कांगो के विरोध के बावजूद सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे चीन ने फ्रेमवर्क को स्वीकार करवा लिया, जिसे लेकर काफी विवाद हुआ।
प्रतिष्ठा सिंह के मुताबिक, “बात मूल निवासियों और आदिवासियों के अधिकारों के लिए अधिक सेफगार्ड बनाने की हो या जैव विविधता संरक्षण के लिए वित्त मुहैया कराने की, तमाम देशों के बीच अधिक विश्वास बनाने के प्रयास करने चाहिए।”
कांची कोहली कहती हैं, “पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था या विकास का ढांचा ही ऐसा बना हुआ है कि उसकी कीमत जैव विविधता को चुकानी पड़ती है। इसलिए कोई भी देश — चाहे वहां जैव विविधता को नष्ट होने से बचाया जाना है या संरक्षण कार्यक्रम चलाने हों — उसके लिए वह धन मांग रहा है, जो समझा जा सकता है। लेकिन यह बात भी ध्यान देने की है कि सिर्फ वित्त के भरोसे ही जैव विविधता संरक्षण नहीं हो पाएगा। सारी अंतर्राष्ट्रीय नीतियां फाइनेंस पर ज़ोर दे रही हैं लेकिन जब तक जैव विविधता संरक्षण के लिये घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दबाव नहीं होगा तब तक केवल फाइनेंस काम नहीं करेगा।”