विकास का मूल्य: एटालिन परियोजना के लिये 1,165 हेक्टेयर वन भूमि का इस्तेमाल होगा और घने जंगल में चौड़ी पत्तों वाले करीब 2.8 लाख पेड़ कटेंगे।

एटालिन जलविद्युत परियोजना पर केंद्र ने की अरुणाचल सरकार से बात

अरुणाचल प्रदेश में स्थानीय मूल निवासियों द्वारा 3097 मेगावॉट की एटालिन जलविद्युत परियोजना  के विरोध के बाद अब केंद्र सरकार ने राज्य सरकार से पूछा है कि उसके इस पर क्या विचार हैं। इस जल विद्युत परियोजना के लिये 1165 हेक्टेयर वन भूमि का इस्तेमाल होगा और घने जंगल में चौड़ी पत्तों वाले करीब 2.8 लाख पेड़ कटेंगे। एटालिन प्रोजेक्ट एक रन-ऑफ-दि-रिवर पावर प्रोजेक्ट है जिसमें टर्बाइन चलाने के लिये नदी से पानी को काटकर एक नहर या सुरंग में डाल दिया जाता है।  अरुणाचल में पिछली 9 दिसंबर को तय फॉरेस्ट एडवाइज़री कमेटी की बैठक से ठीक पहले प्रोजेक्ट से प्रभावित लोगों और जानकारों ने कमेटी को चिट्ठी लिखी थी। फिर 20 दिसंबर को केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने राज्य सरकार से इस बारे में पूछा है। 

देश में ज़मीन से जुड़े तीन-चौथाई विवाद होते हैं कॉमन लैंड पर  

दिल्ली स्थित रिसर्च संस्था लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच (एससीडब्लू) की ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है वर्तमान में हल किये गये या चल रहे सभी भू-संबंधी विवादों में तीन-चौथाई से अधिक मामले  सार्व (कॉमन) लैंड  से जुड़े हैं। एलसीडब्लू द्वारा प्रकाशित इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिये देश भर में 600 से अधिक मामलों का अध्ययन और विश्लेषण किया और पाया कि इन विवादों के तहत 15.15 लाख हेक्टेयर भूमि फंसी हुई है और सवा छह लाख से अधिक लोग इससे प्रभावित हैं। इन विवादों में एक चौथाई मामले आदिवासियों को विशेष अधिकार देने वाली पांचवीं अनुसूची से जुड़े हैं। सार्व भूमि यानी कॉमन लैंड के अंतर्गत जंगल, चरागाह, तालाब और ‘वेस्टलैंड’ जैसे प्राकृतिक संसाधन आते हैं जिनका उपयोग समुदाय मिलकर करते हैं। वन अधिकार कानून 2006 को ठीक से लागू न करना इन विवादों की मुख्य वजह है। इस रिसर्च पर विस्तार से यहां पढ़ा जा सकता है। 

विलुप्त हो जाएंगी पेंगुइन समेत अंटार्कटिका की 65% प्रजातियां

वैश्विक तापमान बढ़ने के साथ ही अंटार्कटिका के प्राचीन परिदृश्य में बदलाव हो रहा है और नए शोध से पता चलता है कि इस क्षेत्र के पौधों और जानवरों की अधिकांश प्रजातियां — खासकर इसके ख्यातिलब्ध पेंगुइन — संकट में हैं। 

पीएलओएस बायोलॉजी नमक पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन में पाया गया कि अंटार्कटिका की लगभग 65% मूल प्रजातियां इस सदी के अंत तक विलुप्त हो जाएंगी, यदि दुनिया के तरीकों में कोई बदलाव नहीं आया और उत्सर्जन में कटौती नहीं की गई तो। सबसे ज्यादा खतरा एम्परर पेंगुइन को है।

अध्ययन से यह भी पता चला है कि अंटार्कटिका में वर्तमान संरक्षण प्रयास तेजी से बदलते महाद्वीप पर प्रभावी नहीं हो रहे हैं।

शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि लागत प्रभावी रणनीतियों के एक और स्तर को लागू करके अंटार्कटिका की कमजोर जैव विविधता का 84% तक बचाया जा सकता है। 

भारत पर जलवायु परिवर्तन का जोखिम विशेष रूप से अधिक है: आरबीआई के डिप्टी गवर्नर

भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर राजेश्वर राव ने कहा है कि भारत पर जलवायु जोखिमों का खतरा विशेष रूप से अधिक है और देश की लंबी तटरेखा, ऊर्जा मिश्रण में जीवाश्म ईंधन का बड़ा हिस्सा और ग्रामीण आजीविका की कृषि पर निर्भरता को देखते हुए त्वरित कार्रवाई करने की आवश्यकता है।

राव ने कहा कि जलवायु परिवर्तन का अर्थव्यवस्था पर सीधा असर पड़ता है और इसके परिणामस्वरूप वित्तीय संस्थान और प्रणालियां प्रभावित होती हैं।

उन्होंने एक रिपोर्ट का हवाला दिया और कहा कि 2050 तक नेट-जीरो उत्सर्जन हासिल करने के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था में परिवर्तन की आवश्यकता है और इसके लिए भौतिक संपत्ति पर हर साल औसतन 9.2 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर खर्च करने की आवश्यकता है, जो वर्तमान में खर्च किए जा रहे 3.5 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर से कहीं अधिक है।

भारत के मामले में, ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद ने पहले ही अनुमान लगाया है कि 2070 तक हमारी नेट-जीरो प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए 10.1 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर के कुल निवेश की आवश्यकता होगी।

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