इस साल के अंत में संयुक्त अरब अमीरात में होने वाली जलवायु परिवर्तन वार्ता में “जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को घटाने (फेज़ डाउन)” की मुहिम को तेज़ किया जायेगा। यह बात इस वार्ता (कॉप-28) के अध्यक्ष और यूएई के इंडस्ट्री और एडवांस टेक्नोलॉजी मिनिस्टर सुल्तान अहमद अल जबेर ने कही है जो कि आबूधाबी नेशनल ऑइल कंपनी (एडनॉक) के सीईओ हैं। जबेर के कॉप-28 अध्यक्ष बनने पर काफी विवाद हुआ था और बड़े पर्यावरण कार्यकर्ताओं और क्लाइमेट समूहों ने उनसे अपना पद छोड़ने को कहा था।
जबेर के बयान को उनके रुख में बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है। इससे पहले दिये भाषण में जबेर ने “जीवाश्म ईंधन से उत्सर्जन को घटाने” का समर्थन किया था जो कि कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस) जैसी तकनीकी को बढ़ावा देने जैसा है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने पिछले महीने सभी देशों से जीवाश्म ईंधन का प्रयोग करने और तेल, गैस और कोयले को ज़मीन में ही पड़े रहने देने की बात कही थी। जबेर के इस बयान को वार्ता से पहले बातचीत के लिये दोस्ताना माहौल तैयार करने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है।
जीवाश्म ईंधन फेज़ आउट की कोशिश करने वाला नॉर्वे खोल रहा नए ऑयल और गैस फील्ड
यूरोपीय देश नॉर्वे ने बुधवार को बताया कि उसने तेल और गैस कंपनियों को देश के भीतर 19 नये ऑइल और गैस फील्ड विकसित करने की अनुमति दी है जिसमें 18.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश होगा। नॉर्वे ने अगले दशक के एनर्जी रोडमैप को देखते हुये यह फैसला किया है। महत्वपूर्ण है कि नॉर्वे ने 6 महीने पहले जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में जीवाश्म ईंधन फेज़ आउट को आगे बढ़ाने की असफल कोशिश की थी और माना जा रहा है वह इस साल के अंत में होने वाले सम्मेलन में भी यह कोशिश करेगा।
विरोधाभास यह है कि नॉर्वे की संसद ने 2020 में निष्क्रियता के समय तेल के क्षेत्र में निवेश बढ़ाने के लिये टैक्स में छूट प्रोत्साहन किया था जिसके बाद जीवाश्म ईंधन में निवेश की अर्जि़यों की बाढ़ आ गई। हालांकि देश के भीतर पर्यावरण कार्यकर्ताओं और अन्य संगठनों ने जलवायु परिवर्तन की दुहाई देकर इसका विरोध किया। अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी ने 2021 में कहा था कि अगर तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित करना है तो कोई नया तेल या गैस उत्पादन प्रोजेक्ट नहीं होना चाहिये। उधर पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने कहा है कि वह सरकार द्वारा अनुमोदित 19 में 3 प्रोजेक्ट्स के खिलाफ अदालत में जायेंगे क्योंकि ये अंतर्राष्ट्रीय संकल्प और मानवाधिकार संरक्षण की भावना के खिलाफ हैं।
सेनाओं द्वारा होने वाले उत्सर्जन को वैश्विक पर्यावरण समझौतों के तहत लाने के प्रयास जारी
ग्लोबल वार्मिंग में अभूतपूर्व वृद्धि के बीच वैज्ञानिक और पर्यावरण कार्यकर्ता संयुक्त राष्ट्र पर दबाव बढ़ा रहे हैं कि विभिन्न देशों की सेनाओं को उनके द्वारा किए जाने वाले उत्सर्जन का खुलासा करने के लिए बाध्य किया जाए। 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल और बाद में 2015 के पेरिस समझौते से भी सेनाओं द्वारा किए जाने वाले उत्सर्जन को बाहर रखा गया था। इसके पीछे यह वजह बताई गई थी कि सेनाओं के ऊर्जा प्रयोग का विवरण सार्वजनिक करने से राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पद सकती है।
विभिन्न देशों की सेनाएं जीवाश्म ईंधन के सबसे बड़े उपयोगकर्ताओं में शुमार हैं। अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने 2022 में अनुमान लगाया था कि वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सेनाओं का योगदान 5.5% है। वैज्ञानिकों का कहना है कि सुरक्षा बल अपने कार्बन उत्सर्जन को रिपोर्ट करने या उसमें कटौती करने के लिए बाध्य नहीं हैं, और कुछ सेनाओं द्वारा प्रकाशित डेटा अविश्वसनीय या अधूरा है।
कॉप28 के दौरान जब इस बात पर चर्चा होगी कि विभिन्न देश पेरिस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त करने से कितने दूर हैं, तब सबका ध्यान एमिशन अकाउंटिंग पर होगा। ऐसे में कुछ पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने यूएनएफसीसीसी से अनुरोध किया है कि सेनाओं द्वारा होने वाले उत्सर्जन को ग्लोबल कार्बन अकाउंटिंग में शामिल किया जाए।
दो साल पहले, हमने अंग्रेजी में एक डिजिटल समाचार पत्र शुरू किया जो पर्यावरण से जुड़े हर पहलू पर रिपोर्ट करता है। लोगों ने हमारे काम की सराहना की और हमें प्रोत्साहित किया। इस प्रोत्साहन ने हमें एक नए समाचार पत्र को शुरू करने के लिए प्रेरित किया है जो हिंदी भाषा पर केंद्रित है। हम अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद नहीं करते हैं, हम अपनी कहानियां हिंदी में लिखते हैं।
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