इस साल मार्च में केंद्र सरकार वन संरक्षण कानून (फॉरेस्ट कंजरवेशन एक्ट) 1980 को संशोधित करने के लिए एक बिल संसद में लाई। मोटे तौर पर देखें तो इस क़ानून के ज़रिए सरकार कुछ तरह की ज़मीन को वर्तमान क़ानून में परिभाषित संरक्षित भूमि के दायरे से बाहर करना चाहती है। इसके साथ वहां पर किए जा सकने वाले कार्यों की सूची को बढ़ाना चाहती है। जैसे वन भूमि पर चिड़ियाघर, इको टूरिज्म और सफारी जैसी गतिविधियां और सिल्वीकल्चर को इजाज़त देना। यह बिल अभी संसद की संयुक्त संसदीय समिति के पास है जिसमें तमाम पार्टियों के लोकसभा और राज्यसभा सदस्य हैं।
इस साल मई में इस संयुक्त समिति ने जनता से सुझाव मांगे। असम के कांग्रेस सांसद प्रद्युत बारदोलोई के मुताबिक कमेटी को 1,200 से अधिक सुझाव मिले हैं ।
पर्यावरण क़ानून पर काम करने वाली एनजीओ लाइफ ने सुझाव दिया है कि यह बिल मूल क़ानून के पूरे मकसद को बदल देगा।
इसलिए इसे संशोधन विधेयक नहीं कहा जा सकता, यह नया क़ानून है। इसी तरह संरक्षण के काम से जुड़ी प्रेरणा बिन्द्रा और केरल की आईएफएस अधिकारी प्रकृति श्रीवास्तव का कहना है कि प्रस्तावित संशोधन ‘मूल कानून को इतना क्षीण कर देते हैं कि वन संरक्षण और जंगलों का कटान रोकने के लिए उसका प्राथमिक उद्देश्य खत्म हो जाता है’।
अभी सरकार सोचती है कि लोगों में डर है कि वन संरक्षण कानून निजी पौधारोपण पर लागू होता है और लोगों को यह अधिकार नहीं है कि वह इसका प्रयोग कैसे करें और क्या वे इन्हें काट सकते हैं या नहीं।
लेकिन अपने सुझाव में गुड़गांव में रह रहे पर्यावरण कार्यकर्ता चेतन अग्रवाल ने कहा है कि हिमाचल प्रदेश, यूपी और तमिलनाडु जैसी बहुत सारी अदालतों के ऐसे फैसले हैं जहां निजी पौधारोपण के लिए अपवाद स्वरूप अनुमति मिली है। उन्होंने यह भी कहा है कि अगर इस क़ानून में संशोधन किया गया तो गुड़गांव और हरियाणा के बाकी हिस्से में अरावली के 40% क्षेत्र को मिला संरक्षण खत्म हो जाएगा और वहां रियल एस्टेट कारोबारियों के घुसने का रास्ता खुल जाएगा।
बहुत सारे संगठनों — जिनमें आदिवासी संगठन भी शामिल हैं, जैसे वन गुर्जर आदिवासी युवा संगठन — ने कहा है कि अगर यह संशोधन पारित हो गए तो समुदायों को मिले भूमि अधिकारों के कमज़ोर हो जाने का डर है।
(इस रिपोर्ट को विस्तार से अंग्रेज़ी में यहां पढ़ा जा सकता है)