जस्ट ट्रांजिशन की रणनीति विकसित करने की आवश्यकता को धीरे-धीरे स्वीकृति मिल रही है, लेकिन भारत में यह अभी भी बहुत नया विषय है। Photo: Mohammed Nesaei/Wikimedia Commons

राष्ट्रीय जस्ट ट्रांजिशन योजना भारत के लिए क्यों है जरूरी

भारत को आनेवाले समय में तेजी से कोयले और थर्मल पावर के उपयोग में कटौती करनी होगी। लेकिन क्या देश इस बदलाव को झेलने के लिए तैयार है?

कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी ने पिछले 7 दिसंबर को लोकसभा में कहा था कि फिलहाल सरकार की जस्ट ट्रांजिशन (न्यायोचित परिवर्तन) पॉलिसी शुरू करने की कोई योजना नहीं है। उन्होंने कहा, ‘निकट भविष्य में कोयले से ट्रांजिशन नहीं हो रहा है’ और भले ही नवीकरणीय ऊर्जा पर जोर दिया जा रहा हो, लेकिन देश के ‘ऊर्जा उत्पादन में कोयले की हिस्सेदारी आने वाले वर्षों में महत्वपूर्ण रहने वाली है’। 

इसके बाद 12 दिसंबर को बिजली मंत्रालय, नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन (एनटीपीसी) और सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी एजेंसी (सीईए) के अधिकारियों के बीच एक बैठक हुई। बैठक में ऊर्जा मंत्री आर के सिंह ने निर्देश दिया कि 2030 तक और थर्मल पावर इकाइयों को रिटायर न किया जाए। बल्कि जो संयंत्र रिटायर होने की कगार पर हैं उनके कार्यकाल में विस्तार करने के उपाय किए जाएं। क्योंकि इस दशक में देश में ऊर्जा की मांग बढ़ सकती है। 

इन कथनों की समीक्षा करने की जरुरत है, क्योंकि सैकड़ों कोयला खदानें और बिजली संयंत्र पहले ही बंद हो चुके हैं और सवाल उठता है कि उनके बंद होने के बाद क्या हुआ?

कोयला मंत्रालय के अनुमान के मुताबिक पिछले साल अप्रैल तक 293 कोयला खदानें बंद हो गई थीं। इनमें से अधिकांश कोल इंडिया लिमिटेड द्वारा संचालित थीं। और सीईए के अनुसार थर्मल पावर स्टेशनों की 259 इकाइयां बंद हो चुकी हैं। इनमें 191 इकाइयां (जिनकी क्षमता लगभग 17 गीगावाट थी) कोयले और लिग्नाइट पर चल रही थीं।

इसमें से अधिकांश कोयले के भंडार (या बिजली संयंत्रों के मामले में कोयले की आपूर्ति) में कमी या वित्तीय कारणों से बंद हुए। 

वहीं कुछ ही महीने पहले जारी की गई राष्ट्रीय विद्युत् योजना 2022 में ऐसे संयंत्रों को सूचीबद्ध किया गया है जिन्हें 2022 और 2027 के बीच सेवानिवृत्त किया जाना है। इनकी कुल क्षमता 4.6 गीगावाट से अधिक है। कल्पना कीजिए कि 2070 तक नेट-जीरो तक पहुंचने के लिए भारत को किस पैमाने पर कोयले का उपयोग कम करने की जरुरत है, भले ही ऐसा तुरंत न किया जाए।

कोयला मंत्री ने भी कहा है कि 2040 तक कोयले का उपयोग चरम पर पहुंच सकता है।

यदि सरकार यह सपष्ट रूप से स्वीकार करती है कि भविष्य में कोयला-जनित ऊर्जा का उपयोग कम हो जाएगा, तो फिर क्यों देश के पास कोई स्पष्ट राष्ट्रव्यापी जस्ट ट्रांज़िशन रणनीति नहीं है?

वहीं ज्यादातर कोयला मजदूर भी इसकी जरूरत नहीं समझते। भारत की सबसे बड़ी ट्रेड यूनियनों में से एक हिंद मजदूर सभा (एचएमएस) के सदस्य नाथूलाल पांडे कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में अधिक कोयला भंडार उपलब्ध होने के कारण यहां कोयला खदानों में अभी भी बहुत जीवन बचा है, “इसलिए फिलहाल नौकरियों में कटौती कोई गंभीर चिंता नहीं है”।

दूसरी ओर भारत में कोल ट्रांजिशन पर काम कर रहे शोधकर्ता संदीप पई कहते हैं कि कोयला या थर्मल पावर उत्पादन बढ़ाने, और न्यायोचित परिवर्तन की दिशा में काम करने के बीच “कोई विरोधाभास नहीं” है। 

उदाहरण के लिए कोल इंडिया को लें, जो सीधे तौर पर लगभग 2,50,000 लोगों को रोजगार देती है। फिर इसके पास अनौपचारिक अनुबंधित कर्मचारी भी हैं। झारखंड के रामगढ़ जिले में अनौपचारिक कोयला श्रमिकों की संख्या औपचारिक से लगभग तीन गुना अधिक है।

फिर आते हैं कोयले की वैल्यू चेन में दूसरे कामगार जो कोयला उद्योग पर अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर हैं, जैसे ट्रांसपोर्ट वर्कर। अगर बिजली संयंत्रों को 25 साल बाद रिटायर किया जाता है, तो लगभग 192,028 औपचारिक और अनौपचारिक कामगारों का रोजगार छिन जाएगा।

“कुल मिलाकर जितनी खानें और बिजली संयंत्र बंद हो चुके हैं या अगले दशक में बंद होने वाले हैं, उनसे प्रभावित लोगों और समुदायों की संख्या पूरे यूरोप में कोल ट्रांजिशन से प्रभावित होने वाले लोगों से अधिक है,” पई ने कहा।

ऐसी स्थिति में जब केवल जर्मनी ने कोयले को फेज आउट करने के लिए 40 बिलियन यूरो आवंटित किए हैं, तो भारत को कितने पैसों की जरूरत होगी? ट्रांजिशन प्लान का मसौदा तैयार करके हम इस तरह के आकलन करने की ओर पहला कदम उठा सकते हैं।

भारत कई और तरीकों से भी कोयले पर निर्भर है। जैसे माल ढुलाई के लिए रेलवे को मिलने वाला राजस्व, जिसकी वजह से यात्री किराए में सब्सिडी भी मिलती है; भारत सरकार को मिलने वाला कर राजस्व और कोयले की खपत करने वाले सीमेंट और स्टील जैसे क्षेत्र।

फाइनेंस के क्षेत्र में भी इस बाबत जानकारी बढ़ाने की जरूरत है। ग्लोबल एनवायरनमेंटल चेंज पत्रिका ने हाल ही में 154 फाइनेंस प्रोफेशनल्स पर एक अध्ययन किया और पाया कि उनमें आधे से भी कम पर्यावरणीय मुद्दों जैसे जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और ट्रांज़िशन से होने वाले खतरों आदि से परिचित थे। इस अध्ययन में जिन 10 वित्तीय संस्थानों का सर्वेक्षण किया गया, उनमें से केवल चार पर्यावरण, सामाजिक और शासकीय (ईएसजी) मानकों पर जानकारी एकत्र करते हैं। यह मानक कंपनियों की वित्तीय स्थिति को प्रभावित करते हैं। संक्षेप में कहा जाए तो ऐसा बहुत कुछ है जिसपर ध्यान देने और योजना बनाने की जरूरत है।

कोल ट्रांजिशन की चुनौती और उससे होने वाले रोजगार के नुकसान के प्रभाव को कम करने के लिए हाल में एक समाधान सुझाया जा रहा है कि बंद हो चुकी खानों और थर्मल पावर इकाइयों में नवीकरणीय ऊर्जा अवसंरचना, जैसे सौर ऊर्जा संयंत्र, पंप स्टोरेज और ग्रेविटी स्टोरेज आदि की स्थापना की जाए। इसके अतिरिक्त, जस्ट ट्रांजिशन की योजना में श्रमिकों को सौर ऊर्जा जैसे दूसरे क्षेत्रों में लगाने के साथ-साथ इकोलॉजी की बहाली और इस प्रक्रिया में रोजगार पैदा करने पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। जैसे बंद हो चुकी ओपन-कास्ट खदानों को मत्स्य पालन केंद्र में बदलना। इसके लिए यह पता करने की जरुरत होगी कि हर क्षेत्र में कितने संसाधन उपलब्ध हैं, वैकल्पिक उद्देश्यों के लिए भूमि कितनी उपयुक्त है, नए उद्योगों की संभावना कितनी है आदि।

एक और बात गौर करने वाली है कि अभी तक कोयले की खानें और बिजली संयंत्र घरेलू कारणों से बंद होते रहे हैं, जैसे भंडार में कमी और अक्षमता। लेकिन आगे चलकर वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन को लेकर बढ़ रही चिंताओं के बारे में भी सोचना होगा। “इन परियोजनाओं के वित्तीय आवंटन में इस बात का ध्यान नहीं रखा गया था। इसलिए इसका खर्च किसी और को उठाना होगा,” कोयला मंत्रालय के पूर्व सचिव अनिल कुमार जैन ने कार्बनकॉपी से कहा।

बंद हो चुकी खदानों के लिए जस्ट ट्रांजिशन सिद्धांतों के साथ एक व्यापक क्लोजर फ्रेमवर्क तैयार करने के प्रयास में कोयला मंत्रालय की बातचीत विश्व बैंक जैसे संस्थानों और जर्मन विकास एजेंसी जीआईज़ेड से चल रही है। जैन ने बताया कि “विश्व बैंक के साथ सहयोग इसके परिणामों को समझने के लिए किया जा रहा है”।

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सहयोग की बात करें तो पिछले 15 महीनों में जस्ट एनर्जी ट्रांज़िशन पार्टनरशिप (जेईटी-पी) एक पसंदीदा विकल्प के रूप में उभरी हैं। जेईटी-पी डील में विकसित देश कोयले का प्रयोग कम करने में विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की वित्तीय सहायता करते हैं। दक्षिण अफ्रीका, वियतनाम और इंडोनेशिया में इस तरह के समझौते पहले ही किए जा चुके हैं। भारत में इस तरह का समझौता संभावित रूप से कोयला और ताप ऊर्जा का उपयोग समाप्त करने की योजना पर निर्भर करेगा। इस स्थिति ने देश के कोयला और बिजली मंत्रालयों को थोड़ा असहज किया है।

हालांकि कि कोयले के उपयोग में बड़े पैमाने पर कटौती आने वाले दशकों में होगी, फिर भी “भारत को उन खानों और बिजली संयंत्रों के लिए एक योजना की जरूरत है जो बंद होने की प्रक्रिया में हैं,” पई ने कहा। 

ऐसी योजना एक पायलट प्रोजेक्ट हो सकती है जिससे प्रारंभिक तौर पर हम यह आकलन कर सकते हैं कि बड़े पैमाने पर परिवर्तन करने के लिए किस प्रकार की नीतियों और कितनी फंडिंग की जरूरत होगी। इससे जलवायु नीतियों को उन वर्गों में भी अधिक स्वीकृति मिलेगी जो इनसे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। 

खदानों को बंद करने की वर्तमान व्यवस्था और सुधार की गुंजाइश

भारत में कोयला खदानें बंद करने के वर्तमान दिशानिर्देशों में कर्मचारियों के लिए मुआवजे और खनन की गई भूमि के पुनर्वास का प्रावधान है। श्रम कानूनों के तहत भी नौकरी जाने पर कर्मचारी को वेतन और लाभों का एक पैकेज मुहैया कराए जाने का प्रवधान है। लेकिन इस व्यवस्था में भी सुधार की बहुत गुंजाइश है।

“जो कोयला खदानें बंद हो चुकी हैं उनमें काम करने वाले श्रमिकों को दूसरी खदानों में स्थानांतरित कर दिया गया है और उन्हें पहले जैसी मजदूरी और सुविधाएं दी जा रही हैं,” पांडे ने बताया। 

मजदूरों को एक खदान से दूसरी खदान में ले जाने की यह व्यवस्था उनके और प्रबंधन के बीच किसी समझौते के तहत हो सकती है। लेकिन खदानों के बंद होने पर दूसरे कई बड़े प्रभाव पड़ते हैं जिनपर ध्यान नहीं दिया गया है। 

पांडे कहते हैं, “कोयले की खदानों के आसपास एक पूरी बस्ती बस जाती है, किराना की दुकाने खुलती हैं … खनन की गई भूमि को भी उनके पिछले मालिकों को लौटाना होता है, या [दूसरे उद्देश्यों के लिए उसे उत्पादक बनाना] होता है, लेकिन ऐसा नहीं किया जाता”। उन्होंने कहा कि ज्यादा से ज्यादा कंपनियां उस भूमि पर वृक्षारोपण कर देती हैं, जिससे स्थानीय समुदायों को शायद ही कोई फायदा होता हो। 

यह दिशानिर्देश भी कानूनी रूप से कंपनियों पर बाध्य नहीं हैं। दिलचस्प बात यह है कि कंपनियां खदानों को छोड़ देती हैं और कभी भी उन्हें औपचारिक रूप से बंद घोषित नहीं करती हैं, जिससे रही-सही जिम्मेदारियां भी उनपर नहीं आतीं। 

पांडे ने कहा कि फिलहाल कोयला कंपनियों के शीर्ष प्रबंधन और उनके कर्मचारियों के बीच जस्ट ट्रांज़िशन को लेकर कोई बात नहीं हो रही है। “यहां तक ​​कि कोयले पर निर्भर समुदाय भी इसमें शामिल नहीं हैं और उन्हें इस बात का अंदाजा भी नहीं है कि खदानों के बंद होने के बाद उनकी स्थिति कितनी खराब हो जाएगी,” उन्होंने कहा। 

वहीं इंटरनेशनल फोरम फॉर एनवायरनमेंट, सस्टेनेबिलिटी एंड टेक्नोलॉजी (आईफॉरेस्ट) ने एक शोध में पाया कि भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है जिसके तहत कोयला बिजली संयंत्रों के रिटायर होने के बाद उन्हें डीकमीशन करना, उनसे हुई क्षति की भरपाई करना और दूसरे कार्यों में उनका उपयोग करना अनिवार्य हो।

पिछले साल के अंत में झारखंड ने यह अध्ययन करने के लिए एक टास्क फोर्स का गठन किया था कि वास्तव में न्यायोचित परिवर्तन के क्या परिणाम होंगे, श्रमिकों और समुदायों पर क्या प्रभाव पड़ेगा और कैसी वित्तीय ज़रूरतें सामने आएंगी। हालांकि जस्ट ट्रांजिशन की रणनीति विकसित करने की आवश्यकता को धीरे-धीरे स्वीकृति मिल रही है, भारत में यह अभी भी बहुत नया विषय है। 

“रिसर्च और थिंक-टैंक की दुनिया में भी यह विषय केवल तीन साल पुराना है,” पई ने कहा।

जैन ने कहा कि एक राष्ट्रव्यापी रणनीति बनाने का “कार्य प्रगति पर” है। और जो वर्तमान में इस विषय का अध्ययन कर रहे हैं उनके सामने बड़ी चुनौती है।

इसके लिए जरूरी है की अलग-अलग क्षेत्रों में कोयले पर सामाजिक और आर्थिक निर्भरता के बीच के अंतर को समझा जाए। हालांकि, पई के शोध के अनुसार भारत में जिला-स्तर पर कोयला खदानों की लोकेशन और उत्पादन के आँकड़े सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं

दूसरे शोधकर्ता भी इसी तरह के निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि “भारत में मजबूत डेटासेट की कमी, ऊर्जा पर गंभीर शोध और विश्लेषण में एक बड़ी बाधा रही है”।

पई ने कहा कि इस तरह की योजनाओं को विकसित करने के लिए आने वाले वर्षों में भारत की ऊर्जा मांग और आपूर्ति के संभावित स्रोतों पर “लंबी गणनाएं” करने की जरूरत है। और चूंकि यह अनिश्चित हैं, इसलिए संभावनाओं के आधार पर योजना बनाना शुरू करना महत्वपूर्ण है। “यदि 2070 तक नेट-जीरो लक्ष्य को प्राप्त करना है, तो जितनी जल्दी आप योजना बनाना शुरू करेंगे, उतना ही बेहतर होगा।”

(यह रिपोर्ट कार्बनकॉपी अंग्रेजी से ली गई है।)

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