- इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज यानी आईपीसीसी की छठी असेसमेंट रिपोर्ट जारी होने वाली है। यह पैनल जलवायु परिवर्तन से संबंधित विज्ञान के आकलन के लिए बनी संयुक्त राष्ट्र का ही एक अंग है।
- कुछ वर्षों के अंतराल पर आईपीसीसी एक आकलन रिपोर्ट तैयार करता है, जो पिछली रिपोर्ट के आने के बाद के वर्षों में प्रकाशित सभी वैज्ञानिक अध्ययन के आधार पर तैयार किया जाता है।
- आईपीसीसी की रिपोर्ट्स का उद्देश्य दुनिया के नीति-निर्धारकों को जलवायु परिवर्तन, इसके प्रभाव और खतरे से संबंधित वैज्ञानिक आकलन को समय-समय पर उपलब्ध कराना है। इसके साथ-साथ जलवायु परिवर्तन से स्थानीय स्तर पर निपटने की लोगों की तैयारी, कोशिश और तरीकों पर वैज्ञानिक समझ बढ़ाना है।
जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल यानी इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की असेसमेंट रिपोर्ट पर चर्चा शुरू हो गयी है। वर्किंग ग्रुप-1 की बैठक के साथ आईपीसीसी की छठी असेसमेंट रिपोर्ट (एआर-6) को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया इस सप्ताह ऑनलाइन शुरू हो गई। पृथ्वी का स्वास्थ्य बताने के लिहाज से इस असेसमेंट रिपोर्ट या कहें आकलन रिपोर्ट काफी महत्वपूर्ण है।
आईपीसीसी दुनिया भर के हजारों वैज्ञानिकों का एक समूह (निकाय) है जो विश्व भर के नीति-निर्माताओं को ध्यान में रखकर जलवायु परिवर्तन से संबंधित रिपोर्ट जारी करता है। नवीनतम वैज्ञानिक समझ के आधार पर तैयार इस रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन का आकलन और इसके संभावित परिणाम की व्याख्या की जाती है। पूरी दुनिया, खासकर सयुक्त राष्ट्र के 195 सदस्य देशों को ध्यान में रखकर यह रिपोर्ट तैयार की जाती है।
कुछ वर्षों के अंतराल पर आईपीसीसी एक आकलन रिपोर्ट तैयार करता है। पिछली रिपोर्ट के आने के बाद के वर्षों में प्रकाशित सभी वैज्ञानिक अध्ययन के आधार पर यह आकलन रिपोर्ट तैयार किया जाता है।
यह रिपोर्ट दो चरण में तैयार किया जाता है। पहले, वैज्ञानिकों का वर्किंग ग्रुप नवीनतम अध्ययन का आकलन करते हैं। फिर अधिकारियों के साथ मिलकर नीति निर्माताओं के लिए इसका सारांश तैयार किया जाता है। इस प्रकार, इसमें न केवल नवीनतम वैज्ञानिक समझ का इस्तेमाल किया जाता है बल्कि इसको नीति निर्माताओं के समझने के हिसाब से सरल भी बनाया जाता है। ताकि नीति निर्माता इसे पढ़ें, समझें और इसके आधार पर जरूरी निर्णय ले पाएं।
आकलन रिपोर्ट की प्रक्रिया में तीन कार्य समूहों की रिपोर्ट प्रकाशित होती है। पहला, वर्किंग ग्रुप I जो जलवायु परिवर्तन के भौतिक विज्ञान आधारित समझ समेटे हुए होती है। दूसरे, वर्किंग ग्रुप II जो इसके प्रभाव, निपटने की तैयारी और हमारी कमजोरी पर बात करती है। तीसरा, वर्किंग ग्रुप III जो जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए किये जा रहे प्रयास पर बात करती है तथा जरूरी प्रयास पर भी बल दिया जाता है।
इसे सरल भाषा में कैसे समझें?
सरल शब्दों में, वर्किंग ग्रुप I आकलन रिपोर्ट की रूपरेखा तैयार करेगा और दुनिया को बताएगा कि आज के समय में वैश्विक तापमान में वृद्धि, समुद्र की सतह और इसकी गहराई का तापमान, समुद्र-तल में वृद्धि, हिमनदों के पिघलने आदि को लेकर विज्ञान की दुनिया में क्या समझ बन रही है। इसको लेकर क्या अध्ययन हो रहे हैं और उन अध्ययन में क्या प्रकाशित हो रहा है। इन निष्कर्षों को विश्वसनीयता के आधार पर उच्च और निम्न श्रेणी में दर्शाया जाता है।
वर्किंग ग्रुप II, इस जलवायु परिवर्तन का जमीनी प्रभाव का आकलन करेगा। यह बताएगा कि दुनिया का कौन सा हिस्सा दूसरों की तुलना में जलवायु परिवर्तन से अधिक असुरक्षित है। इसमें यह भी सुझाव दिया जाएगा कि तमाम देश और वहां के रहने वाले लोग, जलवायु परिवर्तन के साथ कैसे सामंजस्य बना सकते हैं, इससे निपटने का क्या तरीका अपना सकते हैं या कहें इस कड़वी सच्चाई के साथ कैसे जीना सीख सकते हैं। इसे अंग्रेजी में ऐडप्टैशन कहते हैं।
वर्किंग ग्रुप III उन तरीकों और उपाय पर बात करेगा जिससे ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन कम किया जा सके ताकि पृथ्वी का बढ़ता तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न बढ़े। लक्ष्य यह निर्धारित किया गया है औद्योगिक क्रांति (1850-1900) के समय पृथ्वी का अधिकतम तापमान जितना था उससे मानक मानकर इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ने से पहले ही नियंत्रित कर लिया जाए। पृथ्वी के तापमान को नियंत्रित करने के इसे प्रयास को अंग्रेजी में मिटीगेशन कहा जाता है।
इन तीनों रिपोर्ट को मिलाकर एक मुख्य रिपोर्ट या कहें इसका सारांश तैयार किया जाएगा। नीति-निर्माताओं के लिए। यही एआर-6 रिपोर्ट कही जाएगी।
एआर-6 की प्रक्रिया में कितना समय लगेगा?
वर्किंग ग्रुप I की रिपोर्ट को अंतिम रूप देने के लिए ऑनलाइन बैठक 26 जुलाई से शुरू हुई जो 6 अगस्त तक चलेगी।
ऐसे ही वर्किंग ग्रुप II और वर्किंग ग्रुप III की बैठक के लिए 2022 के फरवरी और मार्च का महीना तय किया गया है।
एआर-6 सिन्थिसिस या मुख्य रिपोर्ट के लिए बैठक सितंबर 26 से अक्तूबर 6, 2022 तक होनी है।
हालांकि, दुनिया को नवंबर 2021 में ग्लासगो में होने वाली अंतरराष्ट्रीय बैठक में ही पता चल जाएगा कि हमने जलवायु परिवर्तन की लड़ाई में अब तक क्या हासिल किया है। लेकिन इसकी वृहत तस्वीर 2022 में होने वाले कान्फ्रेन्स ऑफ पार्टीज (कॉप) में ही सामने आ पाएगी। सनद रहे कि नवंबर 2021 में ग्लासगो में जलवायु परिवर्तन को लेकर होने वाली सालाना बैठक तय है। इसे कान्फ्रेन्स ऑफ पार्टीज टू द क्लाइमेट चेंज या कॉप कहते हैं।
आईपीसीसी की शुरुआत कैसे हुई और इसका उद्देश्य क्या है?
आईपीसीसी जलवायु परिवर्तन से संबंधित विज्ञान के आकलन के लिए बनी संयुक्त राष्ट्र का ही एक अंग है। यह संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) और विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्लूएमओ) द्वारा 1988 में स्थापित किया गया था। इसका उद्देश्य राजनीतिक नेताओं को जलवायु परिवर्तन, इसके प्रभाव और खतरे से संबंधित वैज्ञानिक आकलन को समय-समय पर उपलब्ध कराना है। इसके साथ-साथ जलवायु परिवर्तन से स्थानीय स्तर पर निपटने की लोगों की तैयारी, कोशिश और तरीकों पर वैज्ञानिक समझ बढ़ाना है। दूसरी तरफ पृथ्वी के तापमान को नियत दायरे में रखने की वृहत कोशिशों को लेकर भी समझ बढ़ाना है।
उसी वर्ष संयुक्त राष्ट्र महासभा ने संयुक्त रूप से आईपीसीसी की स्थापना में डब्ल्यूएमओ और यूएनईपी की कार्रवाई का समर्थन किया। वर्तमान में इसमें 195 सदस्य देश शामिल हैं।
आईपीसीसी ने अपनी पहली आकलन रिपोर्ट 1990 में, दूसरी 1995 में, तीसरी 2001 में, चौथी 2007 में और पांचवीं आकलन रिपोर्ट 2014 में प्रकाशित की।
एआर-5 को 2015 में हुए पेरिस सम्मेलन में चर्चा के लिए आधार बनाया गया जिसके परिणामस्वरूप पेरिस समझौता हुआ।
आकलन रिपोर्ट के अलावा, आईपीसीसी कई मौकों पर विशेष रिपोर्ट भी जारी करता है। हाल में आए सबसे प्रसिद्ध रिपोर्ट 2018 की है जिसमें 1.5 डिग्री सेल्सियस तक ग्लोबल वार्मिंग पर बात की गयी थी। ओसन एण्ड क्रायोस्फीयर (2019) और क्लाइमेट चेंज एण्ड लैंड (2019) पर भी विशेष रिपोर्ट जारी की गयी थी। भारत के संदर्भ में कहें तो 2012 में आई मैनिजिंग द रिस्क ऑफ इक्स्ट्रीम इवेंट्स एण्ड डिजास्टर महत्वपूर्ण है।
इस साल आने वाली आकलन रिपोर्ट क्यों महत्वपूर्ण है?
पिछले वर्ष – 2020 – को अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन वार्ताओं में एक मील का पत्थर माना गया। इसी साल पेरिस समझौता लागू होना था। कॉप-2020 को क्योटो प्रोटोकॉल से पेरिस समझौते की तरफ मुड़ने के लिए अहम साल माना गया। पर कोविड-19 महामारी की वजह से 2020 में आयोजित होने वाली कॉप की सालाना बैठक नहीं हो पायी। इस लिहाज से भी 2021 में ग्लासगो में होने वाले कॉप का महत्व बढ़ जाता है।
एआर-6 प्रक्रिया की भी कुछ झलक ग्लासगो में होने वाली कॉप की बैठक में देखने को मिलेगी।
भारत के लिए आईपीसीसी आकलन रिपोर्ट का क्या महत्व है?
एआर-6 वर्किंग ग्रुप I की रिपोर्ट में दुनिया के अन्य हिस्सों की तरह भारत की भी जलवायु परिवर्तन संबंधित वास्तविक तस्वीर उभर कर आएगी।
हालांकि आईपीसीसी एआर आकलन वैश्विक स्तर का होता है पर इससे भारत को यह समझने में मदद मिलेगी कि जलवायु परिवर्तन के मानक पर देश के विकास और पर्यावरण संरक्षण संबंधित कोशिशें किस दिशा में जा रहीं हैं।
पिछले कुछ वर्षों में चरम मौसमी घटनाएं जैसे बाढ़, सूखे में तेजी आई है। इस रिपोर्ट में आने वाले भविष्य की झलकी भी देखने को मिलेगी।
पेरिस समझौते के बाद से भारत में भी अच्छा-खासा परिवर्तन हुआ है। उस समझौते के पहले भारत का उत्सर्जन कम करने का कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं था। आज के समय में राष्ट्रीय स्तर पर स्वैच्छिक तौर पर निर्धारित योगदान (इन्टेन्डेड नैशनली डिटरमाइंड कन्ट्रीब्युशन) के तहत उत्सर्जन में कमी लाने का एक लक्ष्य है।
पेरिस समझौते में भारत द्वारा स्वैच्छिक तौर पर निर्धारित योगदान के कुछ मुख्य लक्ष्य
अन्य देशों की तरह भारत ने भी स्वैच्छिक तौर पर कई लक्ष्यों की घोषणा कर रखी है। इसके तहत जलवायु के अनुकूल और स्वच्छ मार्ग अपनाना है।
सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के स्तर से 33 से 35 प्रतिशत तक कम करना है। इसकी समयसीमा 2030 निर्धारित की गई है।
2030 तक कुल ऊर्जा क्षमता का करीब 40 फीसदी गैर-जीवाश्म स्रोतों से हासिल किया जाना है।
2030 तक अतिरिक्त वन और वृक्षारोपण के माध्यम से 2.5 से 3 सौ करोड़ टन तक कार्बन सोखना है।
जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील क्षेत्र, विशेष रूप से कृषि, जल संसाधन, हिमालयी क्षेत्र, तटीय क्षेत्र, स्वास्थ्य और आपदा प्रबंधन में विकास कार्यक्रमों में निवेश बढ़ाकर जलवायु परिवर्तन से निपटने की तैयारी करनी है।
उपरोक्त लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए स्थानीय तथा विकसित देशों से अतिरिक्त धन जुटाना ताकि जलवायु परिवर्तन से निपटने की कोशिशों में तेजी लाई जा सके।
वर्किंग ग्रुप I की रिपोर्ट से भारत को जलवायु के हिसाब से अपने भविष्य की दिशा तय करने में मदद मिलेगी। वर्किंग ग्रुप II रिपोर्ट की मदद से अपनी कमजोरी और इससे निपटने के तरीकों को लेकर समझ बढ़ेगी। वर्किंग ग्रुप III की रिपोर्ट से भारत को अपनी जलवायु परिवर्तन से निपटने की वृहत्तर रणनीति (कार्बन सोखने इत्यादि) को ठीक करने में मदद करेगी।
अपनी आईएनडीसी प्रतिबद्धता को ध्यान में रखते हुए, भारत ने अक्षय ऊर्जा स्रोतों की तरफ मुड़ने का लक्ष्य निर्धारित किया है। इसके तहत 2022 तक 150 गीगावाट और 2030 तक 450 गीगावाट की अक्षय ऊर्जा की क्षमता विकसित करने का लक्ष्य रखा गया है। वर्तमान में भारत 96.9 गीगावाट की क्षमता विकसित कर चुका है।
हालांकि, 2020 में कोविड-19 से जुड़े पहले लॉकडाउन के बाद जब अर्थव्यवस्था को गति की बात हुई तो भारत ने कोयला खनन को बढ़ावा देने के लिए नीतिगत उपायों की भी घोषणा की। हाल के महीनों में, भारत पर भी नेट जीरो का साल घोषित करने का भी दबाव रहा है। नेट जीरो का साल से तात्पर्य उस वर्ष से है जब देश अपना कार्बन उत्सर्जन शून्य कर लेगा।
जब 6 अगस्त को वर्किंग ग्रुप I की रिपोर्ट के आंकड़े सामने आएंगे, तो भारत के पास जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अपने नीतिगत ढांचे को सुधारने और जमीन पर इससे निपटने के लिए हो रहे प्रयासों को मजबूत करने का अवसर मिलेगा।
ये स्टोरी मोंगाबे हिन्दी से साभार ली गई है।