राहत नहीं: पूर्वी अफ्रीका के गरीबों देशों में टिड्डियों की मार और कोरोना संक्रमण के साथ घनघोर बारिश और बाढ़ का कहर है | Photo: Al Jazeera

मूसलाधार बारिश और बाढ़ से पूर्वी अफ्रीका में सैकड़ों मरे

अफ्रीका में यूगांडा, रवांडा, कीनिया और सोमालिया में लगातार मूसलाधार बारिश से भारी बाढ़ आ गई जिससे सैकड़ों लोगों की जान चली गई। अप्रैल से अब तक कम से कम 8,000 एकड़ में लगी फसल इस बरसात से नष्ट हो गई। बरसात के अलावा भूस्खलन से भी काफी नुकसान हुआ है।

संयुक्त राष्ट्र ने पहले ही चेतावनी दी है कि टिड्डियों का बड़ा हमला और कोरोना वायरस का मिलाजुला प्रभाव महाद्वीप के इस हिस्से में भुखमरी के हालात पैदा कर सकता है। यहां 2000 लोग पहले ही कोरोना वायरस से मर चुके हैं और टिड्डियों के दूसरा हमला खाद्य सुरक्षा के लिये खतरा बन रहा है।

अगले 50 साल में एक तिहाई आबादी होगी क्लाइमेट नीश से बाहर

इंसान जिस आबोहवा में रहता है वह हज़ारों साल से तकरीबन एक सी रही है। दुनिया की अधिकांश आबादी सालाना 11-15 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर रहती है हालांकि आबादी का एक छोटा हिस्सा  20-25 डिग्री के सालाना औसत तापमान पर रहता है। इस आरामदायक तापमान रेंज को “क्लाइमेट नीश” कहते हैं। अब एक नये शोध में यह चेतावनी दी गई है कि अगले 50 साल में यह स्थिति नहीं रहेगी।

अमेरिकी साइंस पत्रिका PANS  में चीन, अमेरिका और यूरोप के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया शोध छपा है जिसमें कहा  गया है अगर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण नहीं पाया गया तो दुनिया की करीब एक तिहाई आबादी साल 2070 तक सालाना इतने तापमान को झेलेगी जितना अभी सहारा जैसे इलाकों में है।

एक दूसरे अध्ययन में कहा गया है कि एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका के साथ उत्तरी अमेरिका के कुछ इलाकों में अभी से गर्मी और नमी का बड़ा विनाशकारी संयुक्त प्रभाव दिख रहा है। अभी ऐसा प्रभाव कुछ घंटों के लिये होता है लेकिन इस घटनाओं की तीव्रता बढ़  रही है और अब ये बार-बार हो रही हैं।  

हिमालय में बर्फ पिघलने से अरब सागर में हानिकारक शैवाल बढ़े

हिमालय-तिब्बत क्षेत्र में जमी बर्फ के पिघलने से अरब सागर की सतह पर तापमान वृद्धि हो रही है। इससे पानी में इतने बड़े हरित शैवाल खिल रहे हैं कि उन्हें आसमान से देखा जा सकता है। साइंस पत्रिका नेचर में छपे एक शोध में यह बात कही गई है जो अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा से मिली तस्वीरों पर आधारित है। ‘सी-स्पार्कल’ के नाम से मशहूर ये शैवाल भारत और पाकिस्तान की तट रेखा के अलावा अरब सागर क्षेत्र में और जगह भी दिख रहे हैं।

वैसे तो यह शैवाल ज़हरीले नहीं हैं लेकिन यह पानी से बड़ी मात्रा में ऑक्सीज़न खींच रहे हैं और उसमें अमोनिया बढ़ा रहे हैं जिससे इन इलाकों में मछलियों पर खतरा मंडरा रहा है। अरब सागर तट पर निर्भर रहने वाले कई परिवारों की जीविका पर भी इससे संकट मंडरा रहा है।

वनों के गायब होने की रफ्तार घटी पर यह कमी पर्याप्त नहीं: UN

संयुक्त राष्ट्र के नये आंकड़े बताते हैं कि धरती से जंगलों के गायब होने की रफ्तार पिछले कुछ सालों में कम हुई है। साल 1990 और 2000 के बीच हर साल करीब 78 लाख हेक्टेयर जंगल कटे लेकिन 2000 से 2010 के बीच यह आंकड़ा 52 लाख हेक्टेयर हो गया और 2010 से 2020 के बीच 47 लाख हेक्टेयर जंगल ही धरती से गायब हुए। यह गिरावट कम जंगल कटने, वृक्षारोपण और प्राकृतिक जंगल में बढ़ोतरी की वजह से हो सकती है लेकिन संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि हम अभी भी पर्यावरणीय लक्ष्य को हासिल करने से बहुत दूर हैं और हमें जंगलों के नष्ट होने की रफ्तार को और अधिक घटाने की ज़रूरत है।

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