ग्लोबल विंड एनर्जी कॉउंसिल द्वारा जारी 2023 की ग्लोबल विंड रिपोर्ट में कहा गया है कि पवन ऊर्जा उद्योग इस साल रिकॉर्ड ऊर्जा क्षमता स्थापना की उम्मीद कर रहा है, लेकिन आपूर्ति श्रृंखला (सप्लाई चेन) में आनेवाली चुनौतियों से निपटने के लिए नीति-निर्माताओं को तत्काल कदम उठाने होंगे।
रिपोर्ट के अनुसार पवन ऊर्जा के मामले में साल 2022 निराशाजनक रहा। हालांकि पिछले साल विंड पावर में विश्व-स्तर पर 78 गीगावाट (1 गीगावॉट = 1,000 मेगावॉट) की बढ़त हुई और कुल स्थापित वैश्विक क्षमता बढ़कर 906 गीगावाट हो गई।
ताजा अनुमान है कि 2027 तक 680 गीगावाट नई क्षमता स्थापित की जाएगी, यानि हर साल करीब 136 गीगावाट। यदि ऐसा हुआ तो 2023 पहला वर्ष होगा जब विश्व-स्तर पर 100 गीगावाट से अधिक की नई क्षमता स्थापित होगी। विशेषज्ञ कहते हैं पवन ऊर्जा में 2030 के जलवायु संबंधी लक्ष्यों को हासिल करने में काफी मददगार हो सकते हैं और 2050 तक नेट जीरो तक पहुंचने की राह भी आसान होगी।
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुट्रिश ने अमीर देशों से 2040 और विकासशील देशों से 2050 तक नेट जीरो पर पहुंचने का प्रयास करने का आग्रह किया था। उन्होंने कहा था कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने के लिए यह आवश्यक है।
भारत की स्थिति, तय लक्ष्यों से पीछे
भारत पवन ऊर्जा क्षमता के मामले में चीन, अमेरिका और जर्मनी के बाद दुनिया में चौथे नंबर पर है। नेशनल पावर पोर्टल पर उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक भारत की कुल पवन ऊर्जा क्षमता अभी 42,015 मेगावॉट यानी 42 गीगावॉट है। भारत ने 2022 में कुल तटवर्ती पवन ऊर्जा क्षमता में 1847 मेगावॉट की बढ़ोतरी की। साफ ऊर्जा मंत्रालय के मुताबिक भारत का लक्ष्य 2030 तक कुल 30,000 मेगावॉट के अपतटीय पवन ऊर्जा संयंत्र लगाने का है।
भारत ने 2022 तक 175 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का जो लक्ष्य रखा था, उसमें सौर ऊर्जा (100 गीगावाट) के बाद सबसे बड़ा हिस्सा पवन ऊर्जा से प्राप्त होना नियोजित था — 60 गीगावाट।
लेकिन जहां सौर ऊर्जा का लक्ष्य करीब 62 प्रतिशत हासिल हो पाया और पवन ऊर्जा के मामले में 2022 के अंत तक 60 की अपेक्षा लगभग 41 गीगावाट के संयंत्र ही स्थापित हो पाए।
भारत पिछले कई सालों से लगातार पवन ऊर्जा लक्ष्यों को हासिल करने में नाकाम रहा है। 2019-20 में 3,000 मेगावाट की जगह 2,117 मेगावाट, जबकि 2020-21 में 3,000 मेगावाट के लक्ष्य का करीब 50 प्रतिशत — 1,503 मेगावाट — ही प्राप्त हो सका।
विन्ड एनर्जी क्षेत्र के जानकार इसके लिए सरकार की नीतियों को दोष देते हैं। इंडियन विन्ड टर्बाइन मैन्युफेक्चरर्स एसोसिएशन के सेक्रेटरी जनरल डी वी गिरि ने कार्बनकॉपी हिन्दी को बताया कि भारत दुनिया में सबसे सस्ती पवनचक्कियां बनाता है और सत्तर प्रतिशत से अधिक निर्माण देश के भीतर होता है। इसके बावजूद पिछले 6 साल से विन्ड एनर्जी सेक्टर की हालात ठीक नहीं है।
गिरि कहते हैं, “हमारे पास हर साल 15 गीगावॉट की पवनचक्कियां लगाने की क्षमता है। फिर भी 2017 के बाद से हम प्रतिवर्ष केवल 1.5 गीगावॉट क्षमता ही हर साल बढ़ा रहे हैं। यानी हर साल हम अपनी क्षमता का 10 प्रतिशत ही इजाफा कर पा रहे हैं। यह बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं है।”
अक्टूबर 2015 में सरकार ने ‘राष्ट्रीय अपतटीय पवन ऊर्जा नीति‘ (नेशनल ऑफशोर विन्ड एनर्जी पॉलिसी) अधिसूचित की थी, जिसके अंतर्गत गुजरात और तमिलनाडु में आठ-आठ ज़ोन संभावित अपतटीय क्षेत्रों के रूप में चिन्हित किए गए थे। इन क्षेत्रों के भीतर 70 गीगावाट ऊर्जा क्षमता स्थापित होने का अनुमान था। लेकिन अगस्त 2022 की संसद की स्थाई समिति की रिपोर्ट बताती है कि पॉलिसी नोटिफाई के सात साल बाद भी देश में एक भी अपतटीय पवन ऊर्जा प्रोजेक्ट स्थापित नहीं हो पाया है।
खरीद मूल्य का संकट, बिडिंग के तरीके पर सवाल
दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड इंवारेंमेंट (सीएसई) में रिन्यूएबल एनर्जी के डिप्टी प्रोग्राम मैनेजर बिनित दास कहते हैं, “भारत में एक बड़ी चुनौती पवन ऊर्जा की कीमत है। वर्तमान में रिवर्स बिडिंग प्रणाली के कारण डिस्कॉम बिजली कंपनियों से काफी कम कीमत पर विन्ड पावर खरीद रहे हैं। इससे डेवलपर हतोत्साहित हो रहे हैं और वह विन्ड एनर्जी से दूर जा रहे हैं और निवेशक इसके बजाय सोलर प्रोजेक्ट्स में पैसा लगाना चाहते हैं।”
दास ने कार्बनकॉपी से कहा कि पिछले तीन सालों में हमने पवन ऊर्जा की नई संयोजन क्षमता (कैपेसिटी एडिशन) का ग्राफ गिरते देखा है। असल में भारत ने 2030 तक कुल 500 गीगावॉट साफ ऊर्जा क्षमता का लक्ष्य रखा है जिसमें 140 गीगावॉट पवन ऊर्जा होगी यानी अगले साढ़े सात सालों में भारत को 98 गीगावॉट विन्ड एनर्जी के संयंत्र लगाने हैं। इसके लिए हर साल औसतन 13 गीगावॉट से अधिक क्षमता संयोजन (पावर एडिशन) करना होगा।
लेकिन अगर पवन ऊर्जा क्षमता बढ़ने की मौजूदा रफ्तार देखें तो वह 2 गीगावॉट से अधिक नहीं रही है। इस हिसाब से 2030 के लिए तय लक्ष्य हासिल करने में 50 साल लग जाएंगे।
गिरि कहते हैं, “अगर आप मुझसे पूछें कि समस्या कहां है तो मैं कहूंगा कि 2017 से पहले राज्यों के द्वारा बिजली खरीदी जाती थी। राज्यों के अपने आरपीओ होते थे। हर राज्य की बिडिंग और टैरिफ होते थे। 2017 में सरकार ने ई-रिवर्स बिडिंग लागू किया और एक ही एजेंसी सोलर एनर्जी कॉर्पोरेशन को कमान थमा थी। उन्होंने खरीद के बाकी रास्ते बन्द कर दिए।”
सरकार ने करीब 6 साल पहले प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने के लिए ई-रिवर्स बिडिंग शुरू की थी। इसमें पहले सबसे कम बोली लगाने वाले के खिलाफ बाकी कंपनियों से काउंटर बिडिंग के प्रस्ताव मांगे जा सकते हैं। इंडस्ट्री का कहना है कि रिवर्स बिडिंग के कारण खरीद मूल्य इतना गिर गया कि उनके लिए काम करना व्यवहारिक नहीं रह गया। निवेशकों का कहना है कि छोटे प्लेयर इसमें बड़े खिलाड़ियों के आगे नहीं टिक पाते।
रिवर्स बिडिंग से क्लोज़ बिडिंग की ओर
विन्ड सेक्टर को संकट से निकालने के लिए नवीनीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) ने विन्ड पावर के लिए घोषित रिवर्स ऑक्शन रद्द किए हैं और 2030 तक हर साल 8 गीगावॉट की नीलामी एक चरण में बन्द लिफाफे में बोली के आधार पर करेगी। हालांकि सरकार में बोली के तरीके को बदलने को लेकर काफी खींचतान हुई है और पावर मिनिस्ट्री ने एमएनआरई के प्रस्ताव का विरोध किया लेकिन साफ ऊर्जा मंत्रालय को लगता है कि वर्तमान तरीरे से फिलहाल विन्ड पावर क्षमता नहीं बढ़ेगी।
हालांकि इस फैसले से पहले एमएनआरई मंत्री आर के सिंह ने साफ कहा कि रिवर्स बिडिंग से (डिस्कॉम को) कम कीमत पर बिजली तो मिलेगी लेकिन मैं चाहता हूं कि कंपनियां संयंत्र भी लगाएं। इसका कोई मतलब नहीं है कि बिडिंग तो हो लेकिन संयंत्र न लगें।
क्लोज़ एनविलेप बिडिंग में कंपनियां दो अलग अलग लिफाफों में टेक्निकल और कमर्शियल बोलियां लगाती हैं। इसमें टेक्निकल बिड में सफल होने वाली कंपनियों के बीच देखा जाता है कि किसकी कमर्शियल बोली सबसे कम कीमत की है लेकिन उसके बाद किसी तरह की नीलामी नहीं होती।
दास कहते हैं, “अलग-अलग राज्यों में संसाधनों की उपलब्धता के हिसाब से बिजली खरीद की कीमत की न्यूनतम दर तय होनी चाहिए। अगर कीमत निर्धारण से पहले हालात का सही पूर्व मूल्यांकन हो और खरीद की एक न्यूनतम सीमा तय हो तो इससे डेवलपर का हौसला बढ़ेगा।”
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