जोशीमठ ग्लेशियर के छोड़े हुए मलबे पर बसा है यह बात सभी जानते हैं, लेकिन इसके संकट को बढ़ाने में क्लाइमेट चेंज के प्रभाव भी बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं।
करीब 6,000 फुट की ऊंचाई पर बसा जोशीमठ न केवल भूकंपीय इलाके में है बल्कि यह पर्यावरणीय लिहाज़ से बहुत संवेदनशील क्षेत्र पर बसा है।
यहां सैकड़ों घरों में दरारें आने सड़कों और ज़मीन के धंसने पर भूविज्ञानियों को आश्चर्य नहीं है, क्योंकि पूरा जोशीमठ उस जगह पर बसा है जहां कभी ग्लेशियर हुआ करते थे।
बदरीनाथ, हेमकुंड साहिब, फूलों की घाटी या विंटर स्पोर्ट्स के लिए मशहूर औली का प्रवेश द्वार कहा जाने वाला जोशीमठ एक अस्थाई और कच्चे पहाड़ पर बसा है। भूविज्ञानी इस ऊंचाई पर बसे हिमालयी क्षेत्र को पैरा ग्लेशियल ज़ोन कहते हैं यानी यहां पर कभी ग्लेशियर थे लेकिन बाद में वह हिमनद पिघल गए और उनका मलबा (मोरेन) रह गया। वैज्ञानिक भाषा में ऐसी स्थिति को स्टेट ऑफ डिस-इक्विलिब्रियम (disequilibrium) कहते हैं यहां जहां ज़मीन खिसक सकती है।
तो सवाल है कि जोशीमठ की इस संवेदनशील स्थित को क्या जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से कोई ख़तरा है?
भूविज्ञानी नवीन जुयाल ने कार्बनकॉपी हिन्दी को बताया, “असल में 2,500 मीटर की ऊंचाई को शीत हिमरेखा यानी विंटर स्नो लाइन माना जाता है। पैरा ग्लेशियल क्षेत्र का मलबा या मोरेन फ्रंटलाइन पर तैनात सेना की तरह है जिसे आगे बढ़ने के लिए अपने कमांडर के आदेश का इंतज़ार है। हम भूकंप, तेज़ बारिश, बाढ़ या जलवायु परिवर्तन जैसी किसी एक्सट्रीम वेदर की घटना को कमांडर का आदेश मान सकते हैं। ऐसी स्थिति होने पर यह सारा मोरेन किसी सेना की टुकड़ी की तरह खिसक कर आगे बढ़ सकता है और तबाही आ सकती है।”
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भारत में पैराग्लेशियल इलाकों के डायनामिक्स और वहां पड़े मलबे के चरित्र और मात्रा को लेकर कोई अध्ययन नहीं है।
जानकारी का यह अभाव संवेदनशील हिमालयी बनावटों से निबटने में एक बड़ी समस्या पैदा करता है। जोशीमठ जैसे संवेदनशील इलाके में न केवल अनियंत्रित और गैरकानूनी निर्माण हुआ बल्कि भारी मशीनों और विस्फोटकों का इस्तेमाल हो रहा है। लेकिन यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव या उसके कारण होने वाली कोई एक्सट्रीम वेदर की घटना जोशीमठ के लिए विनाशकारी साबित हो सकती है।
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