अमेरिकी नेता डोनाल्ड ट्रम्प के दूसरी बार राष्ट्रपति चुने जाने के बाद दुनिया भर के जलवायु कार्यकर्ता चिंतित हैं। पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी एमिशन गैप रिपोर्ट ने बताया था कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने के पेरिस समझौते के लक्ष्य से दुनिया बहुत पीछे है और यदि उसे हासिल करना है तो सभी देशों को तत्काल उत्सर्जन में कटौती करने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे।
ऐसे में ट्रम्प के राष्ट्रपति बनने के बाद स्थिति और ख़राब हो सकती है क्योंकि संभव है विश्व का दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक अमेरिका एमिशन में कटौती करने में तत्परता न दिखाए। बल्कि ट्रम्प ने चुनाव अभियान के दौरान इलेक्ट्रिक वाहनों पर सब्सिडी ख़त्म करने और अलास्का के आर्कटिक नेशनल वाइल्डलाइफ रिफ्यूज में फिर से ऑयल ड्रिलिंग शुरू करने और तेल उत्पादन बढ़ाने की बात कही थी।
पेरिस समझौते से फिर बाहर होगा अमेरिका?
ट्रम्प के दोबारा चुने जाने से पेरिस समझौते से अमेरिका के दूसरी बार हटने की आशंका फिर से पैदा हो गई है। अपने पहले कार्यकाल के दौरान, ट्रम्प ने अमेरिका को इस महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय समझौते से बाहर निकाल लिया था, और उन्होंने फिर ऐसा करने के अपने इरादे को बार-बार दोहराया है।
ट्रम्प प्रशासन दूसरे जलवायु फ्रेमवर्कों से भी बाहर निकलने पर विचार कर सकता है, जैसे यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी), जो अमेरिका को ग्लोबल क्लाइमेट गवर्नेंस से अलग कर देगा। ऐसे में क्लाइमेट लीडरशिप की मशाल चीन के हाथों में जा सकती है, जो वैसे भी नवीकरणीय ऊर्जा और बैटरी वाहन के क्षेत्रों में बाकी देशों से कहीं आगे है।
क्लाइमेट फाइनेंस पर असर
बाकू में कॉप29 शिखर सम्मेलन के दौरान नए और महत्वाकांक्षी क्लाइमेट फाइनेंस लक्ष्य निर्धारित किए जाने हैं। अंतर्राष्ट्रीय समझौतों पर ट्रम्प के विरोध से यह बातचीत ख़तरे में पड़ सकती है। ट्रम्प के पिछले प्रशासन ने विकासशील देशों को अडॉप्टेशन और उत्सर्जन में कटौती करने में मदद करने के लिए गठित ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ) जैसी पहलों को वित्तपोषित करने में उदासीनता दिखाई थी। विशेषज्ञ आशंकित हैं कि ट्रम्प फिर से ऐसे कोषों में योगदान देने से इंकार कर सकते हैं, जिससे वैश्विक क्लाइमेट फाइनेंस में एक महत्वपूर्ण कमी उत्पन्न हो सकती है।
संयुक्त राष्ट्र ने एमिशन गैप रिपोर्ट में और महत्वाकांक्षी एनसीक्यूजी (न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल) का सुझाव दिया था।
2009 में कॉप15 में निर्धारित 100 बिलियन डॉलर का वार्षिक लक्ष्य अभी भी पूरी तरह से साकार नहीं हुआ है, और ट्रम्प प्रशासन संभवत: कम फंडिंग की इस प्रवृत्ति को जारी रखेगा। अमेरिकी योगदान के बिना 100 बिलियन डॉलर तक पहुंचना भी निश्चित नहीं है, अधिक महत्वाकांक्षी एनसीक्यूजी द्वारा इस राशि को पार करने की तो उम्मीद ही बेकार है।
भारत पर प्रभाव
भारत के लिए इसके मिलेजुले परिणाम होंगे। क्लाइमेट फाइनेंस से मिलने वाली धनराशि कम हो सकती है, लेकिन भारत में स्वच्छ ऊर्जा परियोजनाओं में निवेश बढ़ सकता है।
भारत को नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन को बढ़ाने और ऊर्जा निर्भरता को कम करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा। जलवायु लक्ष्यों के लिए प्रतिबद्ध अन्य देशों के साथ साझेदारी पर जोर देकर, अपने राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन को आगे बढ़ाकर और निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा देकर, भारत डीकार्बोनाइजेशन की दिशा में अपनी प्रगति को बनाए रख सकता है।
इंडो-पैसिफिक के भीतर क्षेत्रीय सहयोग को मजबूत करना और स्वच्छ ऊर्जा परियोजनाओं की फंडिंग के स्रोतों में विविधता लाना भी महत्वपूर्ण होगा।
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