‘नेट-ज़ीरो’ लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए राष्ट्रों द्वारा लागू योजनाओं की तुलना करना कठिन है और राष्ट्रों द्वारा अपनाए गए ‘नेट-ज़ीरो’ लेबल के पीछे के विवरण भी बहुत भिन्न हैं। |Photo: Swati Joshi

‘नेट-जीरो’ में लीपापोती से पेरिस संधि का हो सकता है बेड़ा गर्क

दुनिया के 110 से अधिक देशों ने ‘नेट-ज़ीरो’ लक्ष्य तक पहुंचने  के लिए वादा किया गया है। हाल ही में अमेरिका, चीन, यूरोपीय संघ के अलावा जानी मानी सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ्ट और यूरोपीय हवाई अड्डों के गठबंधन ने भी इसका वादा किया। संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के अनुसार, दुनिया भर में हो रहे CO2 उत्सर्जन का 65% ये देश और कंपनियां कर रही हैं। 

लेकिन वास्तविकता के धरातल पर इन वादों को तौलें तो कुछ  गड़बड़ दिखती है। हर देश के ‘नेट-ज़ीरो’ की अपनी परिभाषा है। इसके अलावा, इस बात पर कोई स्पष्टता नहीं है कि कितने ऑफसेट की आवश्यकता हो सकती है।

इंपीरियल कॉलेज लंदन, जर्मन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल एंड सिक्योरिटी अफेयर्स और न्यू इंग्लैंड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों के एक समूह ने ‘नेट -जीरो’ इमीशन टार्गेट्स आर वेग: थ्री वैस टु फिक्स  इट’ शीर्षक एक लेख में पारदर्शिता की इस कमी के बारे में चेतावनी दी है।

देशों की ‘नेट-ज़ीरो’ की अपनी परिभाषाएं हैं

शोधकर्ताओं के अनुसार, ‘नेट-ज़ीरो’ लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए राष्ट्रों द्वारा लागू योजनाओं की तुलना करना कठिन है और राष्ट्रों द्वारा अपनाए गए ‘नेट-ज़ीरो’ लेबल के पीछे के विवरण भी बहुत भिन्न हैं। जहाँ यूरोपीय संघ की नेट-ज़ीरो घोषणा 2050 तक सभी ग्रीन हाउस गैसों को कम करने की है वहीं दूसरी ओर चीन की नेट-ज़ीरो योजना 2060 तक केवल CO2 उत्सर्जन को संतुलित करने पर केंद्रित है।

पेरिस समझौते के अनुसार, नेट-ज़ीरो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को पूरा करने के लिए तीन रणनीतियों की आवश्यकता होती है। 

  •  CO2 में बड़े स्तर पर कटौती, 
  • अन्य ग्रीनहाउस गैसों में अतिरिक्त कमी 
  • और हवा से CO2 हटाने के लिए रणनीतियों को बढ़ावा देना।

विश्लेषण ने नेट-ज़ीरो लक्ष्यों के तीन प्रमुख पहलुओं को निर्धारित किया है जिन्हें स्पष्टीकरण की आवश्यकता है। इनमें नेट-ज़ीरो योजनाओं का दायरा शामिल है, कैसे ये योजनाएँ पर्याप्त हैं और नकारात्मक नेट-ज़ीरो को प्राप्त करने के लिए एक ठोस रूपरेखा है ।

शोधकर्ताओं के अनुसार, नेट-ज़ीरो का वास्तव में क्या मतलब है यह स्पष्ट करने के लिए नवंबर में ग्लासगो में होने वाला जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन यानी COP26 एक महत्वपूर्ण मंच हो सकता है। इस शिखर सम्मेलन में दुनिया के सभी देश हिस्सा लेते हैं। 

बहुत कुछ है दांव पर 

साइंस जर्नल में छपे लेख के अनुसार राष्ट्रों द्वारा निर्धारित लक्ष्य  उत्सर्जन को कम करने का लक्ष्य नहीं रखते हैं, लेकिन ऑफसेट के साथ उनके लिए क्षतिपूर्ति करते हैं। आलोचकों का तर्क हो सकता है कि अस्पष्ट लक्ष्य कुछ नहीं होने से तो बेहतर  हैं। लेकिन यह लेख कहता है कि केवल घोषणा करने से कुछ हासिल नहीं होगा। 

हाल ही के एक अध्ययन में यह भी कहा गया है कि पेरिस समझौते के शुरू होने के बाद काफी देश CO2 उत्सर्जन में कटौती करने के प्रयास कर रहे हैं, लेकिन अभी भी कार्रवाई पर्याप्त नहीं हैं और कई देशों में उत्सर्जन अभी भी बढ़ रहा है।

लेख में कहा गया है की नेट-ज़ीरो टारगेट  तक पहुंचने के लिए देशों के लिए समान विकल्प रखना अनिवार्य नहीं है, लेकिन पारदर्शिता के बिना, न तो रणनीतियों और न ही नेट-ज़ीरो लक्ष्यों के पीछे के प्रभाव का मूल्यांकन किया जा सकता है।

स्थिरता , स्पष्टता और सटीकता है अनिवार्य  

लेख में बताया गया है कि कई राष्ट्र ‘कार्बन न्यूट्रल’ और ‘क्लाइमेट न्यूट्रल’ जैसे शब्द को कभी नेट-ज़ीरो CO2 तो कभी नेट-ज़ीरो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए उपयोग करते हैं , वहीं दूसरी ओर कई राष्ट्रों के लिए इनका अर्थ अलग हो सकता है। जलवायु संकट से निपटने के लिए स्थिरता, स्पष्टता और सटीकता आवश्यक है, लेख में कहा गया है ।

विश्लेषण में ऑफसेट के बजाय  स्थानीय रूप से उत्सर्जन में कटौती की भी वकालत की है । ऑफसेट के तहत एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर  उत्सर्जन में कटौती के लिए निर्भर रहता है ।

नेट-ज़ीरो लक्ष्य नहीं है आखिरी पड़ाव 

लेख में कहा गया है कि नेट-ज़ीरो लक्ष्य को अधिक विश्वसनीय करने के लिए उसमें मील के पत्थर यानी माइलस्टोन होने चाहिये। इसके साथ एक कार्यान्वयन और नकारात्मक नेट-शून्य तक पहुंचने की योजना होनी चाहिये।

नकारात्मक नेट-ज़ीरो भविष्य तक पहुँचने की योजना बनाने वाले देशों को वैश्विक स्तर पर अब नेट-ज़ीरो तक पहुँचने की योजना बनाने की आवश्यकता है। फिनलैंड और स्वीडन ने क्रमश: 2035 और 2045 तक शुद्ध-शून्य ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन तक पहुँचने के लिए अपना लक्ष्य निर्धारित किया है।

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