केदारनाथ आपदा को 10 साल हो चुके हैं। यह आपदा उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले में 11,500 फीट की ऊंचाई पर स्थित केदारनाथ में वर्ष 2013 के 16-17 जून को आई थी।
सरकारी तौर पर मृतकों की संख्या भले ही साढ़े चार हजार के आस-पास हो, लेकिन अनौपचारिक तौर पर यह संख्या कहीं ज्यादा बताई गई। दुनिया में इतनी ऊंचाई पर किसी आपदा में इतनी संख्या में लोगों की मौत नहीं हुई है। केदारनाथ हिंदुओं का प्रमुख तीर्थ और उत्तराखंड में स्थित चार धामों में से एक धाम है।
यह आपदा कई कारणों से आई। पहला, उस साल केदारनाथ समेत पूरे उत्तराखंड में चार-पांच दिनों से लगातार बारिश हो रही थी और मॉनसून तय वक्त से कुछ पहले आया। दूसरा, वर्ष 2012-13 की सर्दियों के महीनों में उत्तराखंड के पहाड़ों पर असामान्य बर्फबारी हुई थी और गर्मी आने पर बर्फ तेजी से पिघली, जिससे नदियों का जलस्तर बढ़ गया। तीसरा कारण केदारनाथ से थोड़ी ही ऊंचाई पर स्थित चौराबरी लेक से जुड़ा था, जिसे गांधी सरोवर भी कहा जाता है. महात्मा गांधी की अस्थियों को इसी सरोवर में विसर्जित किया गया था। यह झील चौराबरी ग्लेशियर के कारण बनी थी, जहां से मंदाकिनी नदी भी निकलती है, जो आगे जाकर गंगा में मिलती है।
पानी बढ़ने से यह झील फटी और इसका पानी कई लाख लीटर प्रति सेकेंड की रफ्तार से नदी में मिल गया, जिसका प्रवाह पहले से ही काफी तेज था. इससे 17 जून को केदारनाथ में बाढ़ आ गई।
केदारनाथ समेत उत्तराखंड के अन्य धामों में पर्यटकों की संख्यालगातार बढ़ रही है। उत्तराखंड पर्यटन विभाग के आंकड़ों के अनुसार पिछले वर्ष 40 लाखपर्यटकों ने चारों धामों की यात्रा की थी। नब्बे के दशक के आंकड़ों से तुलना की जाए,तो पिछले 30 सालों में पर्यटकों की संख्या दस गुना से अधिक हो गई है। उत्तराखंड में न तो हिमाचल प्रदेश की तरह पर्यटकों पर पॉलीथीन आदि के इस्तेमाल पर रोक जैसे नियम हैं और न ही पर्यावरण को बचाने के लिए कोई नियामक प्रबंध हैं।
विकास के लिए कई परियोजनाएं शुरू की गई हैं, जिनमें चार धाम परियोजना शामिल है। इसके तहत 900किलोमीटर लंबी सड़क तो बनाई गई, लेकिन ठेका लेने वाली कंपनियों ने मलबा जमा करने और उनके निस्तारण की व्यवस्था का ध्यान नहीं रखा। साथ ही, पहाड़ों की बेतरतीब तोड़-फोड़ हुई और ये मामला राष्ट्रीय हरित न्यायालय से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा।
ऐसे प्रयास भले ही प्रदेश की बेहतरी के इरादे से किए जा रहे हों, मगर इनसे पर्यावरण को नुकसान हो रहा है। पिछले कुछ अर्से में केदारनाथ में सीमेंट और लोहा भरे गए हैं, कई हेलिपैड बने हैं और वन्य जीव अभयारण्य में काफी शोर हो गया है।
केदारनाथ आपदा के बाद 2013 में मैंने अपनी किताब तुम चुप क्यों रहे केदार में उत्तराखंड के कई समृद्ध आंदोलनों का जिक्र किया था। इनमें वर्ष 1920 से ही शुरु हुएकुली बेगार और तिलाड़ी जैसे आंदोलन शामिल हैं, लेकिन हर आंदोलन के साथ कुदरत,जंगलों और झरनों के सरोकार जुड़े रहे।
ऐसे सरोकारों ने ही 1960 के दशक मेंवनांदोलनों और 1970 के दशक में चिपको आंदोलन को जन्म दिया, लेकिन चिपको आंदोलन नेजिस तरह के विनाश और बदरीनाथ में नवनिर्माण के नाम पर कंक्रीट भरने के प्रयासों कोरोका, वह रास्ता अब बेलगाम कंपनियों और ठेकेदारों ने पकड़ लिया है। पिछले दिनों मेंजोशीमठ में भू-धंसाव हुआ और उससे पहले जोशीमठ के ही पास ऋषिगंगा नदी की बाढ़ सेएनटीपीसी की बांध में करीब दो सौ लोगों की मौत हुई।
मोदी सरकार ने खुद सुप्रीमकोर्ट में एक शपथ पत्र में स्वीकार किया कि केदारनाथ आपदा को बढ़ाने में बांधों कीभी भूमिका थी। फिर भी राज्य में बड़े-बड़े बांधों का काम चल रहा है। केदारनाथ में नवनिर्माण के बाद गंगोत्री, यमुनोत्री और बदरीनाथ घाटियां भी संकट में हैं। इसके पीछे जलवायु परिवर्तन भी एक महत्वपूर्ण कारण है।
पर्यावरणविद बता रहे हैं कि धरती का तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघल रहे हैं और चौराबरी जैसी हिमनद झीलों का निर्माण हो रहा है। इनकी निगरानी की व्यवस्था नहीं होगी, तो ये झीलें कभी भी फटेंगी और केदारनाथ जैसी आपदाओं की संख्या बढ़ सकती है।
जानकारों की राय है कि उत्तराखंड में एक समावेशी विकास होना चाहिए, जिसमें पर्यावरण के हितों का भी ध्यान रखा जाए। पर्यावरण बचाने की मुहिम विकास विरोधी नहीं है क्योंकि बार-बार होने वाली प्राकृतिकआपदाओं से आर्थिक नुकसान होता है। अमेरिका की एक प्रमुख यूनिवर्सिटी के शोध में बताया गया है कि लगातार आपदा होने से जीडीपी को उसी अनुपात में नुकसान होता है।
आनेवाले दशकों में जलवायु परिवर्तन और उससे जनित आपदाओं के कारण भारत की जीडीपी कोसालाना 3-10 प्रतिशत का नुकसान हो सकता है। यह भी याद रखना जरूरी है कि देश की चालीस करोड़ आबादी हिमालय से निकलने वाली नदियों पर निर्भर है। यदि जंगल नहीं रहेंगे, तो जलागम क्षेत्र मिट जाएंगे और हमारी नदियां नहीं रहेंगी।
ऐसे में अकाल और सूखे का खतरा बढ़ जाएगा क्योंकि जमीन के नीचे का जलस्तर भी नदियों और जंगलों की समृद्धि पर निर्भर है।