Vol 2, October 2023 | इमरजेंसी रूम में पहुंचा रही है हवा में घुली NO2

दुबई सम्मेलन के लिये चिलचिलाती धूप में काम कर रहे अफ्रीका और एशिया के मज़दूर।

चिलचिलाती धूप में कॉप-28 के लिए काम कर रहे हैं प्रवासी मज़दूर

एशिया और अफ्रीका के प्रवासी मज़दूर नवंबर दिसंबर में दुबई में होने वाले 28 वें जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन (कॉप-28) के लिए चिलचिलाती धूप में काम कर रहे हैं।  फेयर स्कवेयर नाम के मानवाधिकार संगठन ने मज़दूरों के बयान और वीडियो प्रमाण इकट्ठे किए हैं जिनमें पाया गया कि कम से कम तीन जगहों में एक दर्जन से अधिक मज़दूर सितंबर के महीने में 42 डिग्री सेंटीग्रेट तापमान में बाहर काम कर रहे थे। कम से कम दो दिन ऐसे थे जबकि मिड-डे बैन (जिसमें यूएई के श्रम क़ानूनों के तहत कड़ी धूप में काम करवाने पर पाबंदी है) के वक़्त मज़दूर दोपहर में बाहर काम कर रहे थे। पूरी दुनिया में हर साल 50 लाख लोगों की मौत अत्यधिक गर्मी या ठंड के कारण होती है और क्लाइमेट चेंज प्रभावों के बढ़ने के कारण हीट स्ट्रोक से प्रभावितों और मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इन मज़दूरों ने माना कि कड़ी धूप में काम करने से वह बीमार महसूस करते हैं लेकिन दैनिक मज़दूरी के लिए यह सब करना पड़ता है। यूएई में काम करने वाले 90% मज़दूर और कर्मचारी प्रवासी हैं और यहां की राजधानी दुबई दुनिया के सबसे घनी आबादी वाले शहरों में है। 

वैश्विक जलवायु घटनाओं के बीच गहराता रिश्ता 

धरती पर एक दूसरे से हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित भौगोलिक क्षेत्रों के बीच मौसमी घटनाओं और जलवायु का संबंध मज़बूत होता जा रहा है। इसे क्लाइमेट टेलीकनेक्शन कहा जाता है। केओस इंटरडिसिप्लिनेरी जर्नल ऑफ नॉन लीनियर साइंस में प्रकाशित एक शोधपत्र में यह बात सामने आई है। टेलीकनेक्शन इस बात को परिभाषित करता है कि कैसे दुनिया के एक हिस्से में जंगलों में आग या बाढ़ जैसी घटना हज़ारों किलोमीटर दूर किसी दूसरे क्षेत्र में प्रभाव डालती है। 

वैज्ञानिकों ने  टेलीकम्युनिकेशन की तीव्रता, वितरण और विकास को समझने के लिये क्लाइमेट नेटवर्कों का विश्लेषण किया है। ताज़ा अध्ययन में 1948 से लेकर 2021 तक के 74 साल की समयावधि का अध्ययन किया गया है। इनमें पहले 37 साल में टेलीकनेक्शन की जो तीव्रता थी वह दूसरे 37 सालों में एकरूप गति से बढ़ती पाई गई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह जलवायु परिवर्तन, मानव गतिविधियों और दूसरे कारकों का मिलाजुला असर हो सकता है। 

अंधाधुंध भू-जल दोहन से भारी संकट के मुहाने पर भारत   

गंगा के मैदानी इलाकों में कई हिस्से ऐसे हैं जो पहले ही भू-जल दोहन के मामले में ‘टिपिंग पॉइंट’ पार कर चुके हैं  और पूरे दक्षिण-पश्चिम भारत में 2025 तक भू-जल की भारी कमी हो सकती है। यह बात संयुक्त राष्ट्र की ताज़ा रिपोर्ट में कही गई है। प्राकृतिक संसाधनों में पानी ही है जिसका सबसे अधिक दोहन होता है। पीने और रोज़मर्रा की ज़रूरतों के अलावा कृषि, ताप बिजलीघरों,  निर्माण क्षेत्र, पेय पदार्थ और शराब उत्पादन व अन्य उद्योगों में पानी का भरपूर प्रयोग होता है। 

बढ़ती जनसंख्या, उपभोगी जीवनशैली के कारण अंधाधुंध दोहन के कारण जहां जलस्तर गिर रहा है वहीं जलवायु परिवर्तन प्रभाव हालात को और कठिन बना रहे हैं। ग्राउंड वॉटर को रिचार्ज करने वाले जलभृत (एक्वफायर) भी तेज़ी से खत्म हो रहे हैं।  

साल 2022 में कटे 66 लाख हेक्टेयर से अधिक जंगल  

दुनिया के तमाम देशों द्वार वनों के रूप में कार्बन सिंक को बढ़ावा देने के वादे के बावजूद  साल 2022 में 66 लाख हेक्टेयर जंगल काट दिए गए। यह जानकारी फॉरेस्ट डिक्लेरेशन असेसमेंट की 2023 की रिपोर्ट में सामने आई है। साल 2022 में स्विटज़रलैंड के क्षेत्रफल के डेढ़ गुना ज़मीन पर उगे जंगलों को काट दिया गया। महत्वपूर्ण है कि दुनिया की तमाम सरकारों ने ग्लोसगो में 2021 में हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में इन जंगलों को 2030 तक बचाने का वचन दिया था। लेकिन महत्वपूर्ण है कि 2021 के मुकाबले 2022 में जंगलों के कटने की रफ्तार 4 प्रतिशत बढ़ गई। जंगल समुद्र के बाद धरती पर दूसरा सबसे बड़ा कार्बन सिंक और जैव विविधता का भंडार हैं और नदियों का जलागम क्षेत्र तैयार करते हैं लेकिन धरती से हर घंटे 13 हेक्टेयर जंगल साफ हो रहे हैं। 

उधर जंगलों की बढ़ती आग ने दुनिया के सबसे समृद्ध अमेज़न फॉरेस्ट पर संकट बढ़ा दिया है। साल 2023 की पहली छमाही में पिछले साल के मुकाबले यहां आग की घटनाओं में 10% वृद्धि हुई। यहां 2007 के बाद से इस साल सबसे अधिक आग की घटनाएं दर्ज की गई है। जानकारों का कहना है कि पिछले साल के मुकाबले इस साल जनवरी से जुलाई के बीच  जंगलों के कटान का ग्राफ 42% गिरा है लेकिन आग की घटनाओं के कारण यह प्रगति मिट्टी में मिल सकती है।

शर्म-अल-शेख में पिछले साल जिस लॉस एंड डैमेज फंड की घोषणा हुई थी वह विकसित देशों की ज़िद में फंस गया है। फोटो: UNclimatechange/Flickr

अमीर देशों की जिद में फंसा लॉस एंड डैमेज फंड

अगले महीने शुरू होने वाले कॉप28 महासम्मेलन से पहले लॉस एंड डैमेज फंड को लेकर पेंच फंस गया है और कोई सहमति बनती नहीं दिख रही है। जहां विकासशील देश इसे एक स्वतंत्र फंड बनाना चाहते हैं, वहीं अमीर देश, खास तौर पर अमेरिका चाहता है कि इसे विश्व बैंक के तहत लाया जाए।

ग्लोबल साउथ के देशों का कहना है कि ऐसा करना लॉस एंड डैमेज फंड की कल्पना और उद्देश्यों के विरुद्ध होगा। इस मुद्दे पर मिस्र के असवान शहर में हुई यूएन ट्रांज़िशनल कमेटी की बैठक बेनतीजा रही

पिछले साल शर्म-अल-शेख में हुए कॉप27 जलवायु महासम्मेलन के दौरान, लॉस एंड डैमेज फंड की स्थापना को एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा जा रहा था। ‘लॉस एंड डैमेज’ जलवायु परिवर्तन के उन प्रभावों को कहा जाता है, जिनसे अडॉप्टेशन यानी अनुकूलन के द्वारा बचा नहीं जा सकता। विशेषकर गरीब देशों में, जिनका वैश्विक उत्सर्जन में योगदान बहुत कम है, जिन लोगों को जलवायु परिवर्तन के इस प्रभावों से नुकसान होता है, उससे निपटने के लिए उन्हें इस फंड के माध्यम से धन मुहैया कराया जाना है।

कॉप27 में हुए निर्णय के बाद इस फंड की स्थापना और संचालन की रूपरेखा तैयार करने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने ट्रांज़िशनल कमेटी बनाई थी। लेकिन चार बैठकों के बाद भी अबतक कोई नतीजा नहीं निकला है। फंड को विश्व बैंक के अंतर्गत लाने के अमेरिका के प्रयासों से विकासशील देश नाराज़ हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से फंड पर अमेरिका का कब्जा हो जाएगा।

ग्लोबल साउथ के वार्ताकारों और विशेषज्ञों का कहना है कि विश्व बैंक हमेशा शेयरहोल्डरों को अधिक महत्त्व देता है, और वह अनुदान की बजाय लोन देना पसंद करेगा। इससे गरीब देशों पर कर्ज और बढ़ेगा। साथ ही, विश्व बैंक ने अभी पिछले हफ्ते ही जलवायु परिवर्तन से निपटने को अपने मिशन का हिस्सा बनाया है, इसलिए उसके पास इस तरह के फंड को सुचारु रूप से चला पाने की दक्षता नहीं है।

कौनसे देश लॉस एंड डैमेज फंड के तहत अनुदान के अधिकारी हैं और किन देशों को इसमें योगदान करना चाहिए, इसे लेकर भी गहरे मतभेद हैं। विकसित देश चाहते हैं कि “सबसे असुरक्षित” देशों की श्रेणी में केवल अल्पविकसित देशों (एलडीसी) और लघुद्वीपीय विकासशील देशों (एसआईडीएस) को रखा जाना चाहिए। इस सीमित परिभाषा में पकिस्तान और लीबिया जैसे देश नहीं आते हैं, जिन्हें हाल ही में जलवायु परिवर्तन से काफी नुकसान हुआ है।

वे इस बात पर भी जोर देते हैं कि भारत और चीन जैसे प्रमुख उत्सर्जकों समेत उन सभी देशों को इसमें योगदान देना चाहिए जो ऐसा कर सकते हैं।

दूसरी ओर, विकासशील देशों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होने वाले सभी गरीब देशों को इस फंड का लाभ मिलना चाहिए, विशेष रूप से उन्हें जहां अधिक संवेदनशील समुदाय रहते हैं। साथ ही, उनका कहा है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के प्रयासों को केवल वर्तमान नहीं बल्कि ऐतिहासिक उत्सर्जन के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए, और जो देश ऐतिहासिक रूप से बड़े उत्सर्जक रहे हैं उनका इसमें अधिक योगदान होना चाहिए।बहरहाल, अबू धाबी में 3 से 5 नवंबर को फिर इन मुद्दों पर चर्चा होगी। देखना यह है कि वहां कुछ निर्णय हो पाता है या नहीं।

क्लाइमेट एक्शन में फिसड्डी दिख रहे विकसित देश 

तेज़ी से हो रही तापमान वृद्धि और बढ़ते जलवायु परिवर्तन प्रभावों के बावजूद क्लाइमेट एक्शन के मामले में विकसित देश फिसड्डी दिख रहे हैं। यह बात एक बार फिर सामने आई है।

इस बार दिल्ली स्थित काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरमेंट, और वॉटर (सीईईडब्लू) की ताज़ा रिपोर्ट में सामने आई है। विकसित देशों में केवल दो देश नॉर्वे और बेलारूस ही हैं जो कार्बन इमीशन को घटाने में तय राष्ट्रीय संकल्प (एनडीसी) को पूरा करते हैं।

अगर सभी विकसित देश 2030 तक अपने तय घोषित लक्ष्यों को पूरा भी करते हैं तो भी उनका इमीशन (2019 के स्तर से) केवल 36% कम होगा जबकि धरती की तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री के नीचे रखने के लिए 43% की कटौती ज़रूरी है।

यह अनुमान है कि 2030 में विकसित देश अपने कार्बन बजट से 3.7 गीगावॉट अधिक कार्बन उत्सर्जित करेंगे जो कि उन्हें आवंटित कार्बन बजट से 38% अधिक है। 

जलविद्युत परियोजनाएं हिमालयी क्षेत्र में बढ़ा रही आपदाएं: विशेषज्ञ 

विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि पर्यावरण नियमों और सेफगार्ड्स की अनदेखी कर बनाए जा रहे हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में आपदाएं बढ़ा रहे हैं। पिछले महीने सिक्किम में लोहनक झील के फटने से राज्य के तीन ज़िलों में भारी तबाही हुई और 1,200 मेगावॉट का तीस्ता-3 जल विद्युत प्रोजेक्ट पूरी तरह से तबाह हो गया। विशेषज्ञों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं के मुताबिक तीस्ता नदी पर बनी बांधों की कतार से संभावित आपदाओं की चेतावनी लगातार दी गई है और तीस्ता-4 प्रोजेक्ट को रद्द करने की मांग हो रही है। 

उच्च हिमालयी क्षेत्रों में हिमनद झीलों (ग्लेशियल लेक) के फटने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं और विशेषज्ञों का कहना है कि इस कारण अचानक बाढ़ की स्थिति में हाइड्रो पावर डैम आपदा को बढ़ाने का काम करते हैं। साल 2015 में सेंट्रल वॉटर कमीशन ने एक स्टडी की जिसमें यह बताया गया कि सिक्किम तीस्ता नदी पर बने ज़्यादातर बांध उच्च संकटग्रस्त इलाकों में हैं। हिमाचल प्रदेश में जून-जुलाई में भारी बाढ़ के पीछे बांधों के रोल पर सवाल उठे थे। विशेषज्ञ कहते हैं कि बांध सुरक्षा क़ानून (डैम सेफ्टी एक्ट) में बांधों की बनावट की सुरक्षा की बात तो है लेकिन उनके सुरक्षित संचालन के लिये नियम कायदे नहीं हैं।  

जलवायु वार्ता रणनीति के लिए अंतर मंत्री समूह 

दुबई में होनी वाले जलवायु सम्मेलन (कॉप-28) से पहले भारत ने अंतर मंत्री समूह (इंटर मिनिस्टीरियल ग्रुप) का गठन किया है।  इस सालाना वार्ता में दुनिया के करीब 200 देश हिस्सा लेंगे। समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक मंत्री समूह के तहत पांच उप-समूहों का गठन किया है जिनमें ऊर्जा, कोयला, नवीनीकरणीय ऊर्जा और वन, पर्यावरण और क्लाइमेट चेंज जैसे मंत्रालयों के अधिकारी होंगे। 

नवंबर-दिसंबर में होने वाली वार्ता में कोयले और दूसरे जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को कम करने और विकासशील और गरीब देशों को जलवायु प्रभावों से हो रही हानि (लॉस एंड डैमेज) के लिए बने फंड को प्रभावी करने जैसे मुद्दों पर चर्चा होनी है।

नाइट्रोजन डाइऑक्साइड मुख्यतः पेट्रोल और डीजल को जलाने से उत्पन्न होती है। फोटो: XJ/Flickr

नाइट्रोजन डाइऑक्साइड से प्रदूषित हवा में कुछ घंटे बिताना कर सकता है गंभीर रूप से बीमार: एम्स

एम्स के डॉक्टरों ने एक अध्ययन में पाया है कि थोड़ी देर के लिए भी नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, या NO2 के संपर्क में आने से आप इमरजेंसी रूम में पहुंच सकते हैं। स्टडी में पाया गया कि 0-7 दिनों के बीच भी NO2 के संपर्क में आने वालों को आपात चिकित्सा की जरूरत पड़ने की संभावना 53% बढ़ जाती है। इनमें से भी ज्यादातर मरीज ऐसे हैं जिनको कोई को-मोर्बिडिटी, यानी डायबिटीज, हाइपरटेंशन या हार्ट की बीमारी है, क्योंकि NO2 प्रदूषण केवल सांस की तकलीफ ही नहीं बढ़ाता, बल्कि सभी अंगों पर आक्रमण करता है।

नाइट्रोजन डाइऑक्साइड प्रदूषक गैस है जो मुख्यतः जीवाश्म ईंधन, जैसे पेट्रोल और डीजल को जलाने से उत्पन्न होती है। इसलिए इसका सीधा संबंध ट्रैफिक से है। यह फेफड़ों में सूजन बढ़ाती है, उनको कमजोर करती है और खांसी और गले में खराश को बढ़ाती है। दूसरी ओर, पार्टिकुलेट मैटर (पीएम2.5 और पीएम10) मुख्य रूप से कंस्ट्रक्शन और पराली जलाने के कारण उत्पन्न होते हैं। गौरलतब है कि पीएम2.5 के संपर्क में आने से बीमार होने वालों की तादाद 19.5 प्रतिशत थी, अध्ययन ने पाया।

डॉक्टरों का कहना है कि जब प्रदूषण ज्यादा हो तो जिनको सांस की बीमारी जैसे दमा या फिर कोई को-मोर्बिडिटी है, उन्हें बाहर निकलने से बचना चाहिए।

दिल्ली-एनसीआर में बढ़ा प्रदूषण, वायु गुणवत्ता बेहद खराब

पिछले कुछ दिनों में दिल्ली-एनसीआर की वायु गुणवत्ता खराब हो गई है और दिल्ली सरकार ने स्थिति को नियंत्रित करने के लिए ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान के दूसरे चरण को लागू किया है। 

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा 30 अक्टूबर 2023 को जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली की वायु गुणवत्ता ‘बेहद खराब’ श्रेणी में है। मंगलवार को दिल्ली का औसत एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) 350 दर्ज किया गया, जो इस सीजन में अब तक सबसे ज्यादा है। सोमवार को एक्यूआई 347, रविवार को 325 और शनिवार को 304 था। दिल्ली के अलावा फरीदाबाद में इंडेक्स 300, गाजियाबाद में 272, गुरुग्राम में 203, नोएडा में 303, ग्रेटर नोएडा में 336 पर पहुंच गया है।

देश के 10 सबसे प्रदूषित शहरों में से 6 दिल्ली-एनसीआर में हैं, जिनमें नोएडा सबसे अधिक प्रदूषित है। दिल्ली सरकार ने शहर में आठ नए खराब वायु हॉटस्पॉट की पहचान की है जिनके लिए कार्य योजना बनाई जाएगी और जहां प्रदूषण के स्रोतों की निगरानी के लिए विशेष टीमें तैनात की जाएंगी। 

दिल्ली के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय ने कहा कि बिगड़ती स्थिति के बावजूद राष्ट्रीय राजधानी में प्रदूषण शमन के उपायों की समीक्षा के लिए हाल ही में हुई बैठक में कई सरकारी विभागों के प्रमुख शामिल नहीं हुए। साथ ही दिल्ली ट्रैफिक पुलिस ने कहा कि इस साल 15 अक्टूबर तक बिना प्रदूषण नियंत्रण प्रमाणपत्र (पीयूसीसी) के वाहन चलाने वालों को 1.5 लाख से अधिक चालान जारी किए गए। 

प्रदूषण के कारण मुंबई में बढ़ीं सांस की बीमारियां

मुंबई में प्रदूषण और बीमारियां बढ़ने से लोगों का बुरा हाल है। सर्दी के मौसम की शुरुआत के साथ मुंबई के करीब 20% लोग एलर्जिक रायनाइटिस पीड़ित होते हैं, यानी उन्हें खांसी और आंखों में जलन की समस्या होती है। लेकिन डॉक्टरों का कहना है कि इस साल अस्पताल में भर्ती होने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है, और बहुत सारे लोग सांस लेने में परेशानी की शिकायत लेकर आ रहे हैं।

आंकड़ों के अनुसार 30 अक्टूबर को मुंबई में वायु गुणवत्ता सूचकांक 157 दर्ज किया गया, जो प्रदूषण के ‘मध्यम’ स्तर को दर्शाता है। 29 अक्टूबर को मुंबई में पीएम2.5 का स्तर 61 µg/m3 दर्ज किया गया, जबकि आस-पास के इलाकों जैसे मीरा-भाइंदर, उल्हासनगर और नवी मुंबई में यह क्रमशः 85, 81 और 79 µg/m3 रहा। यह सभी स्तर डब्ल्यूएचओ द्वारा तय की गई सीमा से कम से कम पांच गुना अधिक हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि तापमान गिरने के साथ प्रदूषक तत्व वायुमंडल के निचले स्तर पर ही रहते हैं, जिससे सांस की तकलीफ बढ़ती है।

चेस्ट स्पेशलिस्ट डॉ संजीव मेहता ने कहा कि शहर में चल रहे मेट्रो के काम के कारण सड़कों का एक बड़ा हिस्सा बंद है, जिससे वाहनों को आवाजाही में अधिक समय लग रहा है और प्रदूषण बढ़ रहा है।

वहीं बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस मुद्दे पर स्वत: संज्ञान लेते हुए मुंबई में “बिगड़ती” वायु गुणवत्ता पर चिंता व्यक्त की है

पश्चिम बंगाल में हरित पटाखों की ध्वनि सीमा बढ़ाई गई

पश्चिम बंगाल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (डब्ल्यूबीपीसीबी) ने केवल आवाज़ करने वाले हरित पटाखों की ध्वनि सीमा 90 डेसिबल (डीबी) से बढ़ाकर 125 डीबी कर दी है। डब्ल्यूबीपीसीबी ने एक आदेश में कहा है कि ‘आवाज़ वाले हरित पटाखों की ध्वनि-सीमा 125 डीबी के भीतर होगी और रोशनी करने वाले पटाखों के लिए  90 डीबी’। यह स्तर सीएसआईआर-नीरी के फॉर्मूले के अनुसार चार मीटर की दूरी से मापे जाते हैं।

अक्टूबर 2021 में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने पश्चिम बंगाल में हरित पटाखों के अलावा अन्य पटाखों की बिक्री और जलाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। दिवाली के अवसर पर हरित पटाखों को जलाने का समय भी दो घंटे — रात 8 बजे से 10 बजे तक निर्धारित किया गया है।

भारत को 2030 तक 5 मिलियन टन ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन करने के लिए 125 गीगावाट अतिरिक्त अक्षय ऊर्जा क्षमता की जरूरत होगी।

सावधानी न बरती तो ग्रीन हाइड्रोजन प्रोजेक्ट से बढ़ेगा प्रदूषण: रिपोर्ट

एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि उचित सावधानियां नहीं बरती गईं तो भारत का ग्रीन हाइड्रोजन प्रोग्राम प्रदूषण की स्थिति को और बिगाड़ सकता है

क्लाइमेट रिस्क होरायज़न्स (सीआरएच) नामक थिंक-टैंक ने एक अध्ययन में कहा है कि भारत को 2030 तक 5 मिलियन टन ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए 125 गीगावाट अतिरिक्त अक्षय ऊर्जा क्षमता की जरूरत होगी। यह क्षमता उस 500 गीगावाट से अलग होगी जो भारत पेरिस समझौते के तहत 2030 तक स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध है।

साथ ही, ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन का लक्ष्य पूरा करने के लिए 250,000 गीगावाट-ऑवर यूनिट ऊर्जा के प्रयोग की जरूरत होगी, जो भारत के वर्तमान ऊर्जा उत्पादन का 13% है। इसका मतलब है कि ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन के लिए जितनी नवीकरणीय ऊर्जा की जरूरत है, उससे उपभोक्ताओं के लिए इसकी उपलब्धता कम होने का खतरा है।

अध्ययन के मुताबिक भारत को यह भी ध्यान रखना होगा कि जो फाइनेंस उसे पावर ग्रिड को डीकार्बनाइज़ करने के लिए मिल रहा है, उसका उपयोग ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन में न होने लगे। ऐसा करने से भारत अपने नेट जीरो लक्ष्य से पिछड़ जाएगा।

इस बात पर भी चिंता जताई गई है कि यदि पानी से हाइड्रोजन और ऑक्सीजन बनाने वाले इलेक्ट्रोलाइज़र्स 24 घंटे काम करेंगे, तो रात को उन्हें संचालित करने के लिए कहीं कोयला-जनित ऊर्जा का प्रयोग तो नहीं होगा? क्योंकि यदि ऐसा हुआ तो फिर ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन में कार्बन उत्सर्जन की मात्रा सरकार द्वारा तय की गई सीमा से अधिक हो सकती है।

साल में 25 गीगावाट की स्थापना का लक्ष्य, लेकिन 6 महीनों में जोड़े गए केवल 6.6 गीगावाट

वित्तीय वर्ष 2023-24 की पहली छमाही में देश में 6.6 गीगावाट नई अक्षय ऊर्जा क्षमता जोड़ी गई, जो पिछले वित्तीय वर्ष की पहली छमाही से कम है। यही नहीं, इस वित्तीय वर्ष में सरकार 25 गीगावाट क्षमता बढ़ाना चाहती है, लेकिन अबतक इसका एक चौथाई ही स्थापित हो पाया है।

हालांकि जानकारों का कहना है कि मार्च में सरकार ने जो हर साल 50 गीगावाट क्षमता की नीलामी करने की घोषणा की थी, उसके परिणाम जल्द ही देखने को मिलेंगे। क्योंकि नीलामी से लेकर क्षमता स्थापित किए जाने के बीच में थोड़ा समय लगता है। इस साल 13.1 गीगावाट की क्षमता नीलाम की जा चुकी है, जो पिछले वित्तीय वर्ष में नीलम की गई 9.9 गीगावाट की क्षमता से अधिक है।

इस वित्तीय वर्ष की पहली छमाही के दौरान जोड़ी गई 6.6 गीगावाट क्षमता में सौर ऊर्जा का योगदान 5 गीगावाट और पवन ऊर्जा का 1.55 गीगावाट है। पिछले वित्तीय वर्ष की पहली छमाही में 8.2 गीगावाट क्षमता जोड़ी गई थी, जो अब तक का सबसे बड़ा आकंड़ा है।

वित्तीय वर्ष 21, 22 और 23 में नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता में वृद्धि क्रमशः 7.4 गीगावाट, 15.5 गीगावाट और 15.3 गीगावाट रही है।

भारत का 29% भूभाग ही सौर उत्पादन के लिए उपयुक्त: स्टडी

भारत का केवल 29% भूभाग में ही अच्छी फोटो-वोल्टिक क्षमता, यानी सौर ऊर्जा का अच्छी तरह उपयोग करने की क्षमता है, आईआईटी दिल्ली के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है। दिल्ली समेत उत्तर भारत के अधिकांश हिस्से सौर ऊर्जा स्थापना के लिए उपयुक्त नहीं हैं और इसकी मुख्य वजह वहां हवा में मौजूद प्रदूषक कण हैं।

अध्ययन में कहा गया है कि यह 29% भूभाग भी दिन-प्रतिदिन सिकुड़ता जा रहा है। साथ ही, देश का करीब 0.2 प्रतिशत भूभाग, जिसमें से अधिकांश उत्तर भारत में है, अपनी फोटो-वोल्टिक क्षमता खो रहा है, जिससे हर साल करीब 50 गीगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकता था।

‘इंडियाज़ फोटोवोल्टिक पोटेंशियल अमिड्स्ट एयर पॉल्यूशन एंड लैंड कंस्ट्रेंट्स’ नामक इस अध्ययन में कहा गया है कि केवल भूमि की उपलब्धता के आधार पर ही सौर पैनल स्थापित नहीं किए जा सकते। उस जगह की सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता को भी देखना होता है। सैटेलाइट डेटा का उपयोग करके पाया गया कि भारत में प्रभावी सौर उत्पादन के लिए केवल 29% भूभाग उपयुक्त है।

तमिलनाडु की सरकारी ऊर्जा कंपनी को नवीकरणीय स्रोतों से करना होगा 27% उत्पादन

तमिलनाडु इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेटरी कमीशन (टीएनईआरसी) ने नवीकरणीय ऊर्जा खरीद के दायित्व (आरपीओ) को मौजूदा 21.8% से बढ़ाकर 27.08% कर दिया है। इसका अर्थ है कि सरकारी विद्युत् उत्पादक और वितरक कंपनी को कुल ऊर्जा का 27.08% नवीकरणीय स्रोतों से प्राप्त करना होगा।   

टीएनईआरसी ने सरकारी बिजली कंपनी तमिलनाडु जेनरेशन एंड डिस्ट्रीब्यूशन कारपोरेशन (टैंजेडको) को ऊर्जा भंडारण प्रणाली लागू करने का निर्देश दिया है। इस तरह का निर्देश पहली बार दिया गया है।

टैंजेडको के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “ऊर्जा मंत्रालय ने 2010 में इस मामले पर व्यापक दिशानिर्देश तैयार किए थे। वर्तमान में, आरपीओ का उद्देश्य 2030 तक नेट जीरो उत्सर्जन हासिल करना है।”

ईवी कंपनियां उत्पादन को लेकर अपनी योजनाएं बदल रही हैं।

उम्मीद के मुताबिक नहीं बढ़ रही इलेक्ट्रिक वाहनों की मांग

इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री में लगातार वृद्धि के बाद भी, निर्माता चिंतित हैं कि ईवी की मांग उम्मीद के अनुसार नहीं बढ़ रही है। इसके लिए वह बढ़ती ब्याज दरों को दोषी ठहराते हैं। अधिक ब्याज दरों के चलते वाहन निर्माता कंपनियां उत्पादन को लेकर अपनी योजनाएं बदल रही हैं, और 2024 में अधिक सावधानी बरतना  चाहती हैं।

दक्षिण कोरियाई बैटरी निर्माता एलजी एनर्जी सॉल्यूशन के मुख्य वित्तीय अधिकारी ली चांग-सिल ने कहा है कि वैश्विक आर्थिक अनिश्चितता के चलते “अगले साल ईवी की मांग उम्मीद से कम हो सकती है”। वहीं होंडा और जनरल मोटर्स ने घोषणा की कि वे साथ मिलकर कम लागत वाली ईवी विकसित करने की 5 बिलियन डॉलर की योजना रद्द कर रहे हैं।

टेस्ला के सीईओ इलॉन मस्क ने भी कहा कि वह मेक्सिको में फैक्टरी बनाने की योजना को फ़िलहाल विराम दे रहे हैं। उन्होंने उच्च ब्याज दरों पर चिंता जताते हुए कहा कि यदि ऐसा चलता रहा तो लोगों के लिए इलेक्ट्रिक वाहन खरीदना कठिन होता जाएगा।

वहीं भारत में उपभोक्ता इलेक्ट्रिक कारों के मुकाबले हाइब्रिड कारें अधिक पसंद क रहे हैं। परिवहन मंत्रालय के वाहन डैशबोर्ड के आंकड़ों के अनुसार, जनवरी से अब तक 64,097 इलेक्ट्रिक कारें बेची गई हैं, जबकि इसी दौरान 266,465 हाइब्रिड कारों की बिक्री हुई है।

चीन में निर्मित कारें भारत में बेचने पर टेस्ला को छूट नहीं: गडकरी

परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने साफ कर दिया है कि टेस्ला को भारत में सुविधाएं और छूट तभी मिलेगी जब वह यहीं पर उत्पादन करे।

इकॉनॉमिक टाइम्स के साथ एक इंटरव्यू में गडकरी ने कहा, “हम भारत में टेस्ला का स्वागत करते हैं। भारत एक बड़ा बाजार है और यहां सभी प्रकार के विक्रेता मौजूद हैं। लेकिन उसे रियायतें तभी मिलेंगी अगर वह भारत में स्थानीय स्तर पर उत्पादन करता है।”

“…लेकिन अगर आप चीन में निर्माण करते हैं और भारत में बेचना चाहते हैं, तो आपके लिए कोई रियायत उपलब्ध नहीं है,” उन्होंने स्पष्ट किया।

इस साल जून में न्यूयॉर्क में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद टेस्ला के सीईओ इलॉन मस्क ने कहा था कि वह 2024 में भारत आ सकते हैं, और “जल्द से जल्द टेस्ला भारत में होगी”। सितंबर में रिपोर्ट आई थी कि टेस्ला ने भारत से जो रियायतें मांगी हैं, सरकार उनपर विचार कर रही है।

ईवी बैटरी में प्रयोग होने वाले ग्रेफाइट के निर्यात पर चीन ने लगाया प्रतिबंध

चीन ने 1 दिसंबर, 2023 से इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) की बैटरियों में इस्तेमाल होने वाले ग्रेफाइट के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया है। मेरकॉम की रिपोर्ट के अनुसार, चीन ने कहा है कि संवेदनशील ग्रेफाइट उत्पादों का ‘अस्थायी’ निर्यात नियंत्रण वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को स्थिर और सुरक्षित करेगा और यह चीन के राष्ट्रीय हित में है।

दुनिया के 90% ग्रेफाइट का उत्पादन चीन में होता है। पूरी दुनिया में महत्वपूर्ण खनिजों की मांग बढ़ने के कारण चीन ने यह प्रतिबंध लगाया है।

हालांकि कि चीन ने पांच कम-संवेदनशील ग्रेफाइट उत्पादों पर से अस्थाई नियंत्रण हटा लिया है, जिनका उपयोग इस्पात, धातुकर्म और रसायन जैसे उद्योगों में किया जाता है।

रिलायंस ने शुरू किया स्वैपेबल बैटरियों का परीक्षण

रिलायंस इंडस्ट्रीज ने बैंगलोर में ऑनलाइन किराना स्टोर बिगबास्केट के साथ स्वैपेबल ईवी बैटरी की आपूर्ति का परीक्षण शुरू कर दिया है, पीवी मैगज़ीन ने बताया। रिलायंस आयातित एलएफपी सेल को लेकर बैटरी का निर्माण करती है, लेकिन फ़िलहाल वह गुजरात में इंटीग्रेटेड बैटरी गीगाफैक्ट्री भी स्थापित कर रही है। ग्राहक अपनी डिस्चार्ज हो चुकी बैटरी को चार्ज की गई बैटरी से बदलने के लिए मोबाइल ऐप के माध्यम से निकटतम स्वैपेबल बैटरी चार्जिंग स्टेशन का पता लगा सकते हैं। बैटरियों को ग्रिड या सौर ऊर्जा से चार्ज किया जा सकता है और घरेलू उपकरणों को चलाने के लिए इनवर्टर के साथ जोड़ा जा सकता है।

रिलायंस भारत में अपनी प्रस्तावित इंटीग्रेटेड एनर्जी स्टोरेज गीगा-फैक्ट्री के लिए कोबाल्ट-मुक्त लिथियम आयरन फॉस्फेट (एलएफपी) और सोडियम-आयन प्रौद्योगिकियों में निवेश कर रही है।

देश के संयंत्रों में 18.55 मिलियन टन (एमटी) कोयला शेष है।

देश के बिजली संयंत्रों में कोयले का स्टॉक साल के सबसे निचले स्तर पर

केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) के ताजा आंकड़ों से पता चलता है कि देश के घरेलू थर्मल पावर स्टेशनों में कोयले का स्टॉक साल के सबसे निचले स्तर पर है। देश के संयंत्रों में 18.55 मिलियन टन (एमटी) कोयला शेष है जो अप्रैल-जुलाई के पीक गर्मी के समय से भी कम है, जब कोयले का स्टॉक 33-35 एमटी था।  

आंकड़ों के अनुसार 23 अक्टूबर तक देश के 181 थर्मल पावर संयंत्रों में से 83 में कोयले का स्टॉक गंभीर रूप से निचले स्तर पर था। किसी प्लांट में कोयले के स्टॉक को गंभीर स्थिति में तब बताया जाता है जब उसके पास सामान्य स्तर का 25% कोयला ही बचा होता है।

स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब 1 सितंबर 2023 को देश में 239.978 गीगावाट बिजली की अबतक की सबसे बड़ी मांग को पूरा किया गया, तब भी संयंत्रों के पास कुल मिलकर 27.59 एमटी कोयला बचा था, और 40 संयंत्रों में ही स्टॉक गंभीर स्थिति में था।

बिजली की मांग पूरी करने के लिए आयातित कोयला मिश्रण बढ़ाएगा भारत

देश के ‘बिजली संयंत्रों में तेजी से घटते स्टॉक के मद्देनजर’, बिजली उत्पादकों के लिए अनिवार्य होगा कि वह अपने स्टॉक में आयातित कोयले का मिश्रण 4% से बढ़ाकर 6% करें। इकॉनॉमिक टाइम्स ने सरकारी सूत्रों के हवाले से खबर दी है कि इस बारे में जल्दी ही एक आदेश जारी किया जा सकता है, क्योंकि बिजली की मांग बढ़ रही है और ‘कुछ राज्यों में अपेक्षा के अनुरूप पवन और हाइड्रोपावर उत्पादन नहीं हुआ’ है।

इस बीच, कोयला मंत्रालय ने कहा है कि भारत ने 2022-23 में नेपाल, बांग्लादेश और भूटान सहित पड़ोसी देशों को 1.16 मिलियन टन कोयला निर्यात किया वहीं अगस्त में रूस से तेल का आयात पिछले वर्ष की तुलना में 114.19% बढ़ गया।

अमीर देशों से फेजआउट की मांग करने के लिए अलग रणनीति अपनाएंगे भारत और अफ्रीका

अगले महीने होने वाले जलवायु महासम्मेलन कॉप28 के दौरान विकसित देशों से जीवाश्म ईंधन का उपयोग बंद करने की मांग करने के लिए भारत और अफ़्रीकी देशों ने अलग-अलग रणनीतियां बनाई हैं। जहां अफ़्रीकी देश अमीर देशों से 2030 तक नई जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं को मंजूरी देना बंद करने की मांग करेंगे, वहीं भारत इससे आगे जाकर प्रस्ताव रखेगा कि न केवल वह नेट जीरो हासिल करें, बल्कि 2050 तक वातावरण से कार्बन वापस लेना शुरू करें।

भारत और अफ़्रीकी देशों की यह कोशिश इस सिद्धांत पर आधारित है कि अमीर देश जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं, इसलिए उन्हें इससे निपटने में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए। जबकि विकसित देश वैश्विक लक्ष्यों पर ध्यान देना चाहते हैं, जैसे कि 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता को तीन गुना करना और “2050 से काफी पहले” जीवाश्म ईंधन को फेजआउट करना।

वहीं एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन और भारत इस वर्ष रिकॉर्ड मात्रा में जीवाश्म ईंधन का प्रयोग कर रहे हैं, जबकि वे रिकॉर्ड नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन क्षमता भी स्थापित कर रहे हैं। यह दर्शाता है कि दोनों देशों में एनर्जी ट्रांजिशन की क्या स्थिति है।

दोनों देशों में एयर कंडीशनिंग, हीटिंग, बिजली और परिवहन जैसी सेवाओं के लिए ऊर्जा के उपयोग में तेजी से वृद्धि  हो रही है। ऊर्जा की मांग इतनी ज्यादा है कि नवीकरणीय ऊर्जा जीवाश्म ईंधन का विकल्प होने की जगह, उसके पूरक के रूप में काम कर रही है। यही कारण है कि दोनों की खपत एक साथ बढ़ रही है।

बायोगैस का प्रयोग करके कम किया जा सकता है जीवाश्म ईंधन: रिपोर्ट

इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (आईईईएफए) की एक ताजा रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत बायोगैस परियोजनाओं का विस्तार करके जीवाश्म ईंधन पर अपनी निर्भरता कम कर सकता है और नैचुरल गैस आयात में भी कटौती कर सकता है, जिससे देश को 2025-30 के बीच 29 बिलियन डॉलर की बचत होगी।

रिपोर्ट कहती है कि बायोगैस को नैचुरल गैस और जीवाश्म ईंधन के स्थान पर प्रयोग किया जा सकता है। यदि कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) और हाइड्रोजन सल्फाइड जैसी अशुद्धियां हटा दी जाएं तो इसका मीथेन कंटेंट 90 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है, जिससे इसकी कैलोरिफिक वैल्यू प्राकृतिक गैस के बराबर हो जाएगी। यह उन्नत बायोगैस, जिसे बायोमीथेन कहा जाता है, पाइपलाइन के जरिए गैर-जीवाश्म ईंधन के तौर पर गैस ग्रिड में जोड़ी जा सकती है।