
Newsletter - May 31, 2025
फोटो: Rajesh Balouria/Pixabay
क्या बढ़ते जल संकट की दिशा बदल सकते हैं भारत के शहर?
जैसे-जैसे शहरों में पानी समाप्त हो रहा है, विशेषज्ञ पानी के पुनः उपयोग, भूजल रिचार्ज और शहरी जल प्रबंधन की सोच में बड़े बदलाव की ज़रूरत पर ज़ोर दे रहे हैं।
भारत उन देशों में हैं जहां पानी की कमी सबसे अधिक है। वर्ल्ड रिसोर्सेज़ इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआई) द्वारा जारी किए गए एक्वाडक्ट वाटर रिस्क एटलस 2023 के अनुसार, दुनिया के 25 सबसे अधिक “वाटर स्ट्रेस्ड” देशों में भारत 24वें स्थान पर है। जिस देश में पानी की मांग आपूर्ति से अधिक हो, या जहां खराब गुणवत्ता के कारण पानी का उपयोग करना कठिन हो, उसे “वाटर स्ट्रेस्ड” देश कहा जाता है। डब्ल्यूआरआई की रिपोर्ट के अनुसार भारत उपलब्ध आपूर्ति का कम से कम 80 प्रतिशत पानी उपयोग कर रहा है।
बढ़ते शहरीकरण से यह संकट और गहरा होता जा रहा है। भारत की शहरी आबादी 2013 से 2023 के बीच 32% से बढ़कर 36.36% हो गई।
भारत के जल स्त्रोतों पर दबाव कई स्तरों पर बढ़ रहा है। हाल ही में पहलगाम में आतंकी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान के साथ सिंधु जल समझौता स्थगित कर दिया। इससे पता चलता है कि पानी अब सिर्फ आंतरिक शासन से परे एक रणनीतिक और जियोपॉलिटिकल मुद्दा बन गया है।
घरेलू स्तर पर तेजी से होते अनियोजित शहरी विकास के कारण जल स्रोत घटते जा रहे हैं; नदियां सिकुड़ रही हैं, भूजल का स्तर गिर रहा है, वहीं बढ़ते प्रदूषण और पुराने इंफ्रास्ट्रक्चर के कारण संकट गहरा रहा है। भविष्य में भारत के शहरों के लिए स्थायी जल आपूर्ति सुरक्षित करने के लिए विशेषज्ञ बेहतर योजना, स्थानीय संसाधनों के कुशल उपयोग, और वेस्ट वाटर मैनेजमेंट की आवश्यकता पर जोर देते हैं।
भूजल की हकीकत
नीति अयोग ने 2018 में एक रिपोर्ट में भविष्यवाणी की थी कि 2020 तक दिल्ली, बैंगलोर, हैदराबाद और चेन्नई समेत 21 भारतीय शहरों में भूजल समाप्त हो जाएगा। हालांकि अभी तक ऐसा नहीं हुआ है, लेकिन समस्या गंभीर बनी हुई है।
सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) के पूर्व सदस्य और वर्तमान में मानव रचना इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रिसर्च एंड स्टडीज (एमआरआईआईआरएस) के चेयर प्रोफेसर दीपांकर साहा कहते हैं, “शहरों में जिस तरह पानी का दोहन हो रहा है वह सस्टेनेबल नहीं है।”
साहा बताते हैं कि भारत का लगभग 70 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र कठोर चट्टानों से बना है, जिनमें पानी का बहाव आसानी से नहीं होता है। इसलिए भूजल रिचार्ज (पानी का जमीन के भीतर पहुंचकर भूजल के रूप में संग्रहीत होना) कठिन होता है।
उन्होंने कहा कि कठोर चट्टानी इलाकों में भूजल का स्तर तेजी से गिर रहा है, लेकिन दोहन उसी दर से या और अधिक दर से किया जा रहा है। साहा दिल्ली से सटे फरीदाबाद का उदहारण देते हैं जहां भूजल स्तर तेजी से गिर रहा है। “यमुना के किनारे बसे होने के बावजूद यह शहर पूरी तरह भूजल पर निर्भर है। जिस तेजी से भूजल का दोहन हो रहा है उसके अनुरूप रिचार्ज नहीं होने के कारण भूजल का स्तर काफी गिर चुका है,” उन्होंने कहा।
“डे जीरो” शहर और दम तोड़ती नदियां
चेन्नई ने 2019 में एक गंभीर जल संकट का सामना किया और शहर के चारों प्रमुख जल स्रोत लगभग सूख गए। शहर में “डे जीरो” आपातकाल की घोषणा कर दी गई। “डे जीरो” ऐसी स्थिति होती है जब किसी शहर में नगरपालिका द्वारा जल आपूर्ति गंभीर रूप से कम हो जाती है, घरों और व्यवसायों के पानी के कनेक्शन को प्रतिबंधित या बंद कर दिया जाता है। विशेषज्ञों ने इस संकट के लिए खराब योजना और जल निकायों के विनाश को दोषी ठहराया।
लेकिन चेन्नई केवल एक उदहारण है। वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) ने 100 ऐसे शहरों की सूची जारी की है जो 2050 तक ‘गंभीर जल संकट’ का सामना करेंगे। इस सूची में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता. बेंगलुरु, लखनऊ और भोपाल समेत 30 भारतीय शहर हैं। रिपोर्ट के अनुसार तबतक शहरी आबादी 2020 में 17% से बढ़कर 2050 तक 51% हो जाएगी। इस संकट से शिमला जैसे हिल स्टेशन भी अछूते नहीं हैं।
2018 में शिमला के घरों में जब पानी आना बंद हो गया तो स्थानीय लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया।
“पिछले दो दशकों में बर्फबारी कम हो गई है। पहले दिसंबर और मार्च के बीच इन पहाड़ियों में कई फीट ऊंची बर्फ मिलती थी। अब एक फुट बर्फ भी मुश्किल से गिरती है और वह भी पूरे साल में कुछ ही दिनों के लिए। सर्दियां शुष्क होती जा रही हैं और बारिश कम हो रही है। दूसरी समस्याएं भी हैं, जैसे कि अनियमित निर्माण कार्य और खराब अपशिष्ट प्रबंधन, जिनसे जलभृत नष्ट हो जाते हैं,” बिजनेसमैन और शिमला नगर निगम के पूर्व मेयर संजय चौहान कहते हैं।
जब टूरिस्ट सीजन चरम पर होता है तो शिमला को प्रतिदिन लगभग 45 मिलियन लीटर (एमएलडी) पानी की आवश्यकता होती है। लेकिन लगभग 30 एमएलडी ही उपलब्ध हो पाता है। अन्य हिल स्टेशनों जैसे नैनीताल, मसूरी, कुल्लू, ऊटी और कोडाइकनाल की भी यही कहानी है।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स, नई दिल्ली की वरिष्ठ फैकल्टी पारामिता डे कहती हैं कि “चेन्नई, शिमला और नैनीताल जैसे शहरों की स्तिथि एक चेतावनी है कि अनियंत्रित मांग और पर्यावरण के प्रति लापरवाही से क्या हो सकता है। तालाबों को पाटकर और प्राकृतिक जलमार्गों की अनदेखी कर बड़े क्षेत्र में निर्माण और कंक्रीट बिछाने के कारण शहरों में बाढ़ की घटनाएं बढ़ने के साथ-साथ अधिक गंभीर हुई हैं।”
लुप्त होती नदियां, असमान वर्षा
पूरे भारत में मानसून सीजन के बाहर नदियां सूख रही हैं। पिछले साल केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) ने एक विश्लेषण में पाया कि “आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और ओडिशा से होकर बहने वाली महानदी और पेन्ना नदियों के बेसिन में बिलकुल पानी नहीं बचा था।”
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के वाटर प्रोग्राम की सीनियर प्रोग्राम मैनेजर सुष्मिता सेनगुप्ता कहती हैं कि “जलवायु परिवर्तन के कारण बहुत कम समय में बहुत बारिश होती है, जिससे बारिश के दिनों की संख्या कम हो जाती है। यदि आप पिछले कुछ सालों के डेटा पर नज़र डालें, तो पाएंगे कि चाहे चेन्नई हो, या दिल्ली, हैदराबाद हो या लखनऊ या कोई और शहर, वही बड़े शहर एक ही साल में सूखे और बाढ़ दोनों का सामना करते हैं”।
गंगा बेसिन इसका एक और उदाहरण है — यहां बर्फ का आवरण पिछले 23 सालों में सबसे कम अवधि के लिए स्थिर रहा, जिससे नीचे बसे शहरों के लिए खतरा पैदा हो गया है। इस कारण नदी घाटियों में पानी की कमी हो रही है, जो उन क्षेत्रों की आर्थिक स्थिति, आजीविका और कृषि गतिविधियों को गंभीर रूप से प्रभावित कर रही है। साथ ही, यह नदियों के स्वास्थ्य के लिए भी नुकसानदायक है।
साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (एसएएनडीआरपी) के कोऑर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर कहते हैं, “किसी नदी का स्वास्थ्य काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि बारिश का पानी कितनी जल्दी उसके आवाह क्षेत्र (कैचमेंट एरिया) से बहकर नदी में प्रवेश करता है। प्रवाह जितना धीमा होगा, नदी का स्वास्थ्य उतना बेहतर होगा। दूसरी ओर, तेज प्रवाह की स्थिति में नदी की हालत बिगड़ती है। वन, आर्द्रभूमि, स्थानीय जल निकाय, और कार्बन-समृद्ध कृषि क्षेत्र बारिश के पानी को अवशोषित करके फिर धीरे-धीरे छोड़ने में मदद करते हैं, इससे साल भर नदी का प्रवाह बना रहता है और बाढ़ और सूखे दोनों की स्थितियां पैदा नहीं होती।”
असमान और अस्थिर उपलब्धता
यह बढ़ता अंतर केवल पानी की कमी के कारण नहीं, बल्कि असमानता के कारण भी है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, भारत में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता घट रही है — 2001 में यह 1,816 घन मीटर थी, जो 2031 तक 1,367 घन मीटर होने की संभावना है। सरकार ने हर व्यक्ति के लिए प्रतिदिन 135 लीटर पानी का मानक तय किया है, लेकिन असल में उपलब्धता में बहुत अंतर होता है। कुछ शहरों में लोगों को 24 घंटे पाइप से पानी मिलता है, जबकि झुग्गी बस्तियों में रहने वाले लगातार पानी की कमी से जूझते हैं। बड़े शहरों में अक्सर दूर-दराज के इलाकों से पानी पहुंचता हैं, जिससे स्थानीय लोगों को नुकसान होता है।
राजस्थान में 2018 के चुनावों के दौरान पानी की कमी के चलते लोगों ने “पानी नहीं तो वोट नहीं” अभियान चलाया था, जिसे इस लेखक ने रिपोर्ट किया था।
ठक्कर कहते हैं कि शहरी जल प्रबंधन के लिए कोई ठोस नीति नहीं है। उनके अनुसार बारिश के पानी, तालाबों या नदियों जैसे स्थानीय स्रोतों का उपयोग करने के बजाय, शहर दूर-दराज के इलाकों से पानी लेने पर भरोसा करते हैं। “हमारे पास स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट हैं, लेकिन वाटर-स्मार्ट सिटी की कोई संकल्पना नहीं है। शहरों को अपने स्थानीय जल संसाधनों का प्रबंधन और सबसे बेहतर उपयोग करने में सक्षम होना चाहिए।”
ठक्कर बताते हैं कि जब वह 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के वर्किंग ग्रुप में शामिल थे तो यह सुझाव दिया गया था कि शहरों को बाहरी स्रोतों से पानी लेने की अनुमति तभी दी जानी चाहिए जब वह दिखा सकें कि उन्होंने सभी स्थानीय जल संसाधनों का इष्टतम उपयोग कर लिया है।
प्रदूषण की बढ़ती भूमिका
जहां उपलब्धता है वहां भी ज्यादातर मामलों में पेयजल असुरक्षित है। भारत के पास दुनिया के कुल मीठे पानी के संसाधनों का 4 प्रतिशत होने के बावजूद, पानी की गुणवत्ता बहुत खराब है। भारत 2024 में विश्व जल गुणवत्ता सूचकांक पर 124 देशों में 122वें स्थान पर था। नीति आयोग की उक्त रिपोर्ट में भी पूरे भारत में पानी की खराब गुणवत्ता को स्वीकार किया गया है।
औद्योगिक अपशिष्ट, अनुपचारित सीवेज, और खराब अपशिष्ट निपटान ने कम गहरे जलभृतों को विषाक्त बना दिया है और नदियों के पानी को कैडमियम, सीसा और आर्सेनिक जैसे दूषित पदार्थों से युक्त कर दिया है।
साहा ने कार्बनकॉपी से कहा, “शहरी क्षेत्रों में प्रमुख समस्या यह है कि कई वैध और अवैध औद्योगिक फैक्ट्रियां चल रही हैं। नदियों को प्रदूषित करने के अलावा यह औद्योगिक इकाइयां खतरनाक रसायनों का निर्वहन कर रही हैं, जो भूमि में समा जाते हैं। ट्रीटमेंट की तकनीक भी पर्याप्त नहीं है। इससे कैडमियम, क्रोमियम और पारा जैसी भारी धातुओं का ठीक से ट्रीटमेंट नहीं हो पता है।”
“गहरे जलाशय फिर भी सुरक्षित हैं, लेकिन जिनकी गहराई अधिक नहीं है वह पूरी तरह प्रदूषित हो चुके हैं। आर्सेनिक जैसे कुछ तत्वों से प्रदूषण प्राकृतिक रूप से होता है, लेकिन मानवीय गतिविधियां उसे और गंभीर बना रही हैं,” उन्होंने कहा।
राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में सरकार ने माना है कि कुछ राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के कुछ इलाकों में पीने के पानी में फ्लोराइड, आर्सेनिक, नाइट्रेट और भारी धातुओं जैसे खतरनाक तत्व बीआईएस मानकों से अधिक मात्रा में पाए गए हैं।
गंगा की सफाई पर चार दशकों में 33,000 करोड़ रुपए से ज़्यादा खर्च होने के बावजूद, वह अब भी प्रदूषित है। केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत की 81 नदियों और उनकी सहायक नदियों में जहरीली भारी धातुओं की मात्रा खतरनाक स्तर पर है, जिनमें आर्सेनिक, कैडमियम, क्रोमियम, कॉपर, आयरन, सीसा, मरकरी और निकल शामिल हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि बिना ट्रीटमेंट के सीवेज को सीधे नदियों में डालना इसका मुख्य कारण है।
झारखंड और उत्तराखंड की सरकारों को हाल ही में नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) ने इसी लापरवाही के लिए फटकार भी लगाई है।
हालांकि नदियों का प्रदूषण अब भी गंभीर मुद्दा है, लेकिन सरकारी आंकड़े बताते हैं की स्थिति में कुछ सुधार हुआ है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार, 2018 में जहां विभिन्न नदियों के प्रदूषित हिस्सों की सख्या 351 थी, वहीं 2022 में यह संख्या घटकर 311 रह गई। इन 351 हिस्सों में से 180 को 2018 में प्रदूषित माना गया था, उन सभीमें पानी की गुणवत्ता बेहतर हुई है। उनमें से 106 को अब साफ हिस्सों की सूची में डाल दिया गया है और 74 से खतरे की संभावना को घटा दिया गया है। सरकारी आकलन के अनुसार, 2015 में मॉनिटर की गई 390 नदियों में से 70% (275 नदियां) प्रदूषित थीं, जबकि 2022 में यह अनुपात घटकर 46% (603 में 279) हो गया है।
आगे का रास्ता
विशेषज्ञों का कहना है कि सोच बदलने की जरूरत है। अपशिष्ट जल कोई बोझ नहीं, बल्कि एक संसाधन है। इस समय एक ठोस जल संरक्षण और प्रबंधन नीति की ज़रूरत है। उनका मानना है कि अब केवल पानी की आपूर्ति बढ़ाने की बजाय, शहरों में पानी के समग्र और समझदारी भरे प्रबंधन पर ध्यान देना चाहिए।
पारामिता डे कहती हैं, “कई मामलों में हम टुकड़ों में प्लानिंग करते रहे हैं। हम भलीभांति जानते हैं कि जल आपूर्ति इंफ्रास्ट्रक्चर स्थापित करने में बड़ी मात्रा में पूंजी लगती है। हालांकि, हम इसके संचालन और रखरखाव पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाए हैं। उपभोक्ताओं से वसूले जाने वाले शुल्क, संचालन और रखरखाव की लागत पूरी करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। दूसरी बात, हम नॉन-रेवेन्यू वॉटर (ऐसा पानी जिससे कोई आय नहीं होती) को कम करने में सफल नहीं हो पाए हैं। बड़ी मात्रा में पानी लीकेज में बर्बाद हो जाता है।”
“ट्रीटमेंट प्लांटों का विकेंद्रीकरण, मजबूत नियामक व्यवस्था और लोगों में विश्वास पैदा करके अपशिष्ट जल के दोबारा उपयोग की पूरी संभावनाओं का फायदा उठाया जा सकता है,” उन्होंने कहा।
सिंगापुर और टेक्सास के अल पासो जैसे शहर अपनी जरूरतों का 40% पानी अपशिष्ट जल का ट्रीटमेंट और पुन: उपयोग करके प्राप्त करते हैं। भारत में भी ऐसा करने की क्षमता है — यदि उपचार संयंत्र कुशलता से काम करें और स्लज का प्रबंधन ठीक से किया जाए।
लेकिन भारत अपने अपशिष्ट जल के एक छोटे से हिस्से को ही रीसाइकल कर पता है। भारत में रोज लगभग 72,000 एमएलडी अपशिष्ट जल उत्पन्न होता है, लेकिन केवल 28% का ही ट्रीटमेंट होता है। दिल्ली में 1,000 एमएलडी से अधिक सीवर का पानी बिना उपचार के यमुना में छोड़ दिया जाता है, जबकि यहां 37 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) हैं — हालांकि उनमें से आधे सीपीसीबी द्वारा निर्धारित मानकों को पूरा नहीं करते हैं।
यमुना की सफाई के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए काम करने वाली एनजीओ अर्थ वॉरियर्स से जुड़े पर्यावरण एक्टिविस्ट पंकज कुमार कहते हैं, “हम बस धोने से लेकर सरकारी इमारतों तक हर चीज के लिए मीठे पानी का उपयोग करते हैं। यदि हम इन सभी कार्यों के लिए साफ ट्रीटेड पानी का उपयोग करते हैं तो नदियों पर दबाव कम हो जाएगा, जिससे उन्हें भूजल को रिचार्ज करने का मौका मिलेगा।”
कुमार दिल्ली में पप्पन कालां और नोएडा के कुछ क्षेत्रों का उदाहरण देते हैं, जहां एसटीपी अच्छी तरह से काम कर रहे हैं और पानी का उपयोग कृषि और तालाब बनाकर भूजल रिचार्ज के लिए किया जा रहा है।
सीईईडब्ल्यू की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2050 तक उपचारित अपशिष्ट जल से दिल्ली के क्षेत्र के 26 गुना क्षेत्र की सिंचाई की जा सकती है। उपचारित पानी का बाजार में मूल्य 2050 में 1.9 अरब रुपए होगा। पिछले साल सीईईडब्ल्यू की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, उपयोग किए गए जल के प्रबंधन में हरियाणा, कर्नाटक और पंजाब अग्रणी हैं।
सीईईडब्ल्यू के सीनियर प्रोग्राम लीड नितिन बस्सी के अनुसार, “भारत के कई शहर जल संकट से जूझ रहे हैं। उदाहरण के लिए, बेंगलुरु अपनी मीठे पानी की ज़्यादातर जरूरतें कावेरी नदी और बोरवेल्स से पूरी करता है। इस समय यह शहर गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है। आने वाले समय में, इस्तेमाल किए गए पानी को पूरी क्षमता से गैर-पीने योग्य कार्यों के लिए दोबारा उपयोग करना बेहद ज़रूरी होगा।”
सस्टेनेबिलिटी के लिए बढ़ाना होगा पानी का मूल्य
लोगों को ज़िम्मेदार बनाने और पानी बचाने का एक तरीका है कि पानी की एक कीमत तय की जाए। हालांकि लोग पीने के लिए बोतलबंद पानी खरीदते हैं, लेकिन घरों में पानी लगभग मुफ्त में मिलता है। साहा कहते हैं, “मुफ्त पानी बर्बादी को बढ़ावा देता है। अगर पानी की कीमत हो, तो उसका उपयोग अधिक समझदारी से होगा।”
कई विशेषज्ञ इस विचार से सहमत हैं। दुनिया भर में इस समय पानी के मूल्य निर्धारण पर चर्चा हो रही है और कई देशों में यह व्यवस्था लागू भी की जा चुकी है, जहां एक तय सीमा से अधिक पानी इस्तेमाल करने पर उपभोक्ता को भुगतान करना पड़ता है, और खपत बढ़ने के साथ-साथ कीमत भी बढ़ती जाती है।
डे कहती हैं, “पानी के मूल्य निर्धारण का एक स्लैब होना चाहिए, जिसमें एक तय सीमा तक पानी सस्ती दर पर उपलब्ध हो — इतना कि बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो सकें। इसके बाद, प्रति यूनिट लागत धीरे-धीरे बढ़नी चाहिए। घरेलू आपूर्ति पर एक सीमा तय करने से पैसेवाले उपभोक्ता भी पानी का उपयोग सोच-समझकर करेंगे। और जहां पीने की जरूरत न हो, वहां उपचारित या रीसाइकल किया गया पानी ही इस्तेमाल में लाया जाना चाहिए।”
भारत के शहरों का जल संकट अब केवल मंडराता हुआ खतरा नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों के लिए हर दिन की हकीकत बन चुका है। नदियां सिकुड़ रही हैं, भूजल तेजी से घट रहा है, और स्वच्छ पानी की उपलब्धता को लेकर अमीर और गरीब के बीच की खाई और गहरी होती जा रही है।
लेकिन समाधान हमारे हाथ में हैं। शहरों को पानी के अत्यधिक दोहन से संरक्षण की ओर बढ़ना होगा — अपशिष्ट जल को बेकार समझने के बजाय उसे संसाधन मानना होगा। उतना ही जरूरी है कि हम पानी के मूल्य पर फिर विचार करें — उचित मूल्य निर्धारण, समान उपलब्धता, और इंफ्रास्ट्रक्चर के बेहतर प्रबंधन से।
स्थिति की गंभीरता साफ है। अब सवाल यह है — क्या भारत के शहर इस चुनौती का सामना करेंगे, या तब तक इंतजार करेंगे जब बहुत देर हो चुकी होगी?
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भारत में मानसून ‘सामान्य से ऊपर’ रहने की संभावना, मुंबई में बारिश का रिकॉर्ड टूटा
दक्षिण-पश्चिम मॉनसून ने सोमवार को मुंबई में दस्तक दी – यह शहर में मॉनसून अब तक का सबसे जल्दी आगमन है। टाइम्स ऑफ इंडिया की ख़बर के मुताबिक “पिछला रिकॉर्ड 29 मई का था, जो 1956, 1962 और 1971 में दर्ज किया गया था।” मई में कुल बारिश के मामले में मुंबई ने 100 साल पुराना रिकॉर्ड तोड़ दिया, जो अब 295 मिमी तक पहुंच गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि आईएमडी की कोलाबा वेधशाला, जिसने अब तक 439 मिमी दर्ज करके मई के लिए सभी समय की वर्षा का रिकॉर्ड तोड़ दिया। इससे पहले मई 1918 में 279.4 मिमी का रिकॉर्ड था।
इस बीच, भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने जून से सितंबर तक, मानसून की बारिश का पूर्वानुमान दीर्घावधि औसत (एलपीए) , के 106% के बराबर रहने का लगाया है, जिसमें मॉडल त्रुटि ±4% हो सकती है। यह बारिश सामान्य वर्षा से अधिक है।
अप्रैल में, मौसम विभाग ने पूर्वानुमान लगाया था कि वार्षिक दक्षिण-पश्चिम मानसून की वर्षा एलपीए के 105% होने की संभावना है, जिसमें ± 5% की मॉडल त्रुटि है। मानसून 1 जून की सामान्य तिथि से आठ दिन पहले 24 मई को केरल पहुंचा। जून में, देश के अधिकांश हिस्सों में सामान्य से लेकर सामान्य से कम तापमान रहने की संभावना है, सिवाय उत्तर-पश्चिम भारत और पूर्वोत्तर भारत के कई क्षेत्रों के, जहां सामान्य से अधिक तापमान रहने की संभावना है।
आठ दिन पहले आया मानसून
दक्षिण-पश्चिम मानसून आठ दिन पहले केरल के तट पर पहुंच गया, जिसके कारण शनिवार को भारी बारिश और तेज हवाओं से राज्य भर में व्यापक नुकसान हुआ। पेड़ गिरने और बिजली के खंभे टूटने के कारण कई इलाकों की बिजली गुल हो गई और घरों और वाहनों को नुकसान पहुंचा। शहरी और ग्रामीण इलाकों में कई सड़कें जलमग्न हो गईं।
मौसम विभाग (आईएमडी) ने कहा कि पिछली बार मानसून इतना पहले 2009 में आया था। आईएमडी ने केरल के सभी जिलों के लिए रेड और ऑरेंज अलर्ट जारी किए हैं और आगामी कुछ दिनों के लिए बाढ़ और भूस्खलन की चेतावनी दी है।
केरल सरकार ने कहा है कि राज्य भर में 5 लाख लोगों के लिए 3,000 राहत कैंप बनाए गए हैं। मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार से एनडीआरएफ की नौ टीमें भेजने का अनुरोध किया है। वायनाद और पतनमतिट्टा में एडवेंचर टूरिज्म और खनन को निलंबित कर दिया गया है। संवेदनशील क्षेत्रों के आस-पास रहने वाले लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाया जा रहा है।
इडुक्की जिले में बढ़ते जलस्तर के कारण मलंकर बांध के शटर खोले गए और नदियों के पास रहने वाले लोगों को सतर्क रहने की चेतावनी दी गई।
महाराष्ट्र में प्याज के किसानों पर बेमौसम बारिश की मार
महाराष्ट्र में बेमौसम बारिश ने पहले से ही कीमतों में बड़ी गिरावट का सामना कर रहे प्याज के किसानों की समस्याओं को और बढ़ा दिया है। नासिक, पुणे और छत्रपति संभाजीनगर जैसे प्रमुख जिलों में मई की शुरुआत से हजारों एकड़ प्याज की फसल बर्बाद हो चुकी है। जिन किसानों के पास उचित भंडारण सुविधाएं नहीं हैं वह सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं, क्योंकि खड़ी फसलों के साथ-साथ कटी हुई पसल भी बारिश में भीग चुकी है।
बारिश के कारण कीमतें और गिर गई हैं। लासालगांव बाजार में प्याज की औसत दर 1,150 रुपए प्रति क्विंटल तक गिर गई है।
उत्तर प्रदेश में भारी बारिश और बिजली गिरने से 34 लोगों की मौत
उत्तर प्रदेश में भारी बारिश, बिजली गिरने और तूफान के कारण कम से कम 34 लोगों की मौत हो गई और दर्जनों लोग घायल हो गए। द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, अचानक और तेज़ मौसम ने कम से कम 15 जिलों में तबाही मचा दी है।
कासगंज और फतेहपुर जिले में पांच-पांच मौतें हुईं, जबकि मेरठ और गौतम बुद्ध नगर में चार-चार मौतें हुईं, आउटलेट ने बताया। बुलंदशहर जिले में तीन लोगों की मौत हुई, जबकि औरैया, कानपुर नगर, कानपुर देहात और इटावा में दो-दो मौतें हुईं। अधिकारियों ने बताया कि ज्यादातर मौतें पेड़ गिरने, बिजली गिरने, इमारतों के ढहने और डूबने से हुईं, रिपोर्ट में बताया गया।
बेमौसमी बारिश के साथ हीटवेव की मार गरीबों और मज़दूरों के लिए जानलेवा हो सकती है: वैज्ञानिक
मॉनसून के जल्दी आने से लोगों को गर्मी से फौरी राहत मिली हो जलवायु वैज्ञानिक इसके ख़तरों की ओर इशारा कर रहे हैं। जहां एक ओर बेमौसमी बारिश से किसानों की फ़सल तबाह हुई वहीं हीटवेव के सीज़न में नमी बढ़ने से हीटस्ट्रोक के ख़तरे भी बढ़ सकते हैं।
आईआईटी दिल्ली के एटमॉस्फियरिक साइंस विभाग में प्रोफेसर डॉ कृष्ण अच्युत राव ने दिल्ली स्थित रिसर्च संगठन क्लाइमेट ट्रेंड के कार्यक्रम एक में चेतावनी दी कि अगर हीटवेव के सीज़न में नमी बहुत बढ़ेगी तो शरीर खुद को पसीना निकालने की नैसर्गिक प्रक्रिया के तहत ठंडा नहीं कर पायेगा और स्वास्थ्य को गंभीर ख़तरे हो सकते हैं। क्लाइमेट ट्रेंड का यह कार्यक्रम जलवायु परिवर्तन के साथ बढ़ते हीटवेव के ख़तरों पर था जिसमें कई विशेषज्ञों ने हिस्सा लिया।
जलवायु वैज्ञानिक बताते हैं कि धरती की तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री होने के साथ हीटवेव की फ्रीक्वेंसी 3 गुना हो सकती है और 2.0 डिग्री की तापमान वृद्धि के साथ इसका खतरा 5 गुना हो सकता है। अक्सर जुलाई अगस्त के महीने में नमी बढ़ने के साथ चिपचिपी गर्मी होती है लेकिन अगर वैसी नमी मई के महीने में ही हो और हीटवेव के साथ शरीर का तापमान कम करना मुश्किल हो जाये तो बाहर काम करने वाले मज़दूरों और झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य और जान को ख़तरा स्वाभाविक है।
भारत के हिमालयी क्षेत्र पर जलवायु का गंभीर प्रभाव पड़ रहा है: भूपेंद्र यादव
पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा कि भारत में गंभीर जलवायु परिवर्तन प्रभावों के कारण ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं, जिससे निचले इलाकों में रहने वाली आबादी के लिए जल सुरक्षा का भविष्य खतरे में पड़ रहा है। यह बात यादव ने नेपाल में आयोजित पर्वतों और जलवायु परिवर्तन प्रभावों पर आयोजित सागरमाथा नाम की मीटिंग में कही।
यादव ने कहा, “विज्ञान स्पष्ट है। हिमालय खतरे की घंटी बजा रहा है। मानवीय गतिविधियों के कारण ग्लोबल वार्मिंग के परिणामस्वरूप ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं, जिससे निचले इलाकों में रहने वाली आबादी के लिए जल सुरक्षा का भविष्य खतरे में पड़ रहा है।”
उन्होंने कहा, “पर्यावरण संकट का एक बड़ा बोझ हिमालय पर है। हम भारत में, अपने महत्वपूर्ण हिमालयी क्षेत्र के साथ, इन प्रभावों को प्रत्यक्ष रूप से देख रहे हैं। हम पर्वतीय राज्यों और उनके लोगों की चिंताओं को समझते हैं। हमारे पर्यावरणीय भविष्य आंतरिक रूप से जुड़े हुए हैं।”
इस महीने की शुरुआत में, ग्लेशियोलॉजिस्ट और स्थानीय समुदायों ने नेपाल के याला ग्लेशियर के नष्ट होने पर शोक व्यक्त किया, माना जाता है कि यह पहला नेपाली ग्लेशियर है जिसे “मृत” घोषित किया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने प्रोजेक्ट शुरु होने के बाद दी जाने वाली पर्यावरण मंज़ूरी पर रोक लगाई
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र के ज्ञापनों और अधिसूचनाओं को रद्द कर दिया, जो अनिवार्य मंजूरी के बिना शुरू की गई परियोजनाओं को शुरु होने के बाद पुरानी तिथि से (पूर्वव्यापी) पर्यावरणीय मंजूरी की अनुमति देते थे। कोर्ट ने इस संबंध में जारी नोटिफिकेशन और कार्यालय ज्ञापन (ऑफिस मेमोरेंडा) को अवैध घोषित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक, विकास पर्यावरण की कीमत पर नहीं हो सकता। विशेषज्ञों ने कहा कि यह फैसला निर्माण और खनन कार्य के लिए पर्यावरण आकलन प्रक्रिया की पवित्रता और एहतियाती सुरक्षा के सिद्धांत को पुष्ट करता है।
मार्च 2017 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना में उद्योगों को ग्रीन क्लीयरेंस के लिए आवेदन करने के लिए “एक बार” छह महीने की अवधि प्रदान की गई थी, भले ही काम पहले ही शुरू हो चुका हो या बिना पूर्व मंजूरी प्राप्त किए अनुमत सीमा से आगे बढ़ गया हो। अधिसूचना ने उन परियोजनाओं के लिए भी दरवाजे खोल दिए थे, जिन्होंने सरकार से आवश्यक मंजूरी के बिना योजना में बदलाव किए थे। 15 मार्च, 2017 और 15 जून, 2017 के बीच, पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) अधिसूचना का उल्लंघन करने वाली 207 परियोजनाओं ने पर्यावरण मंजूरी के लिए आवेदन किया, उनमें से अधिकांश खनन और निर्माण परियोजनाएं थीं।
अधिसूचना को अवैध घोषित करते हुए, न्यायालय ने 2021 में सरकार द्वारा जारी एक कार्यालय ज्ञापन (ओएम) को भी रद्द कर दिया। इस ज्ञापन के साथ सरकार ने पूर्वव्यापी मंजूरी के अनुदान को सुव्यवस्थित करने के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) पेश की। इस एसओपी ने सरकार को दंड आदि की प्रक्रिया के माध्यम से उल्लंघनों को नियमित करने में सक्षम बनाया। फैसले में, न्यायालय ने कहा, “हम केंद्र सरकार को किसी भी रूप या तरीके से पूर्वव्यापी मंजूरी देने या ईआईए अधिसूचना के उल्लंघन में किए गए कार्यों को नियमित करने के लिए परिपत्र/आदेश/ओएम/अधिसूचनाएं जारी करने से रोकते हैं।”
सुप्रीम कोर्ट ने 2024 में हीट वेव से होने वाली 700 मौतों पर सरकार से जवाब मांगा
पिछले साल हीट वेव से हुई 700 मौतों को उजागर करने वाली याचिका के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने जलवायु परिवर्तन से जुड़े बढ़ते हीट वेव संकट पर केंद्र से जवाब मांगते हुए एक नोटिस जारी किया।
मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की अगुवाई वाली पीठ ने गृह मंत्रालय (एमएचए), पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) सहित प्रमुख सरकारी एजेंसियों को नोटिस जारी किए। अदालत ने उनसे दो सप्ताह के भीतर जवाब देने को कहा।
यह याचिका पर्यावरण कार्यकर्ता विक्रांत तोंगड़ ने दायर की थी, जिन्होंने गर्मी से संबंधित त्रासदियों को रोकने के लिए राष्ट्रव्यापी कार्य योजना, गर्मी की चेतावनी, प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली और 24/7 हेल्पलाइन जैसे तत्काल कदम उठाने की मांग की थी।
पंजाब के किसान हाइब्रिड धान पर प्रतिबंध के मामले में हाईकोर्ट के फैसले का इंतजार, घटता जा रहा है बुआई का समय
पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने भूजल स्तर में गिरावट को रोकने के लिए हाइब्रिड धान की खेती पर प्रतिबंध लगाने के राज्य सरकार के फैसले पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है।
इकॉनोमिक टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, इस फ़ैसले से किसान निराश हैं, क्योंकि धान की पौध तैयार करने के लिए ज़रूरी आधे से ज़्यादा समय बीत चुका है। किसानों ने अख़बार से कहा कि कोर्ट को जल्द से जल्द अपना फ़ैसला सुनाना चाहिए, ताकि वे तय कर सकें कि इस मौसम में कौन सी किस्म की फ़सल लगानी है।
पंजाब ने राज्य के बिगड़ते भूजल संकट से निपटने और पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने के लिए हाइब्रिड धान और लोकप्रिय पूसा-44 किस्म की खेती पर प्रतिबंध लगा दिया है। कृषि विभाग द्वारा 7 अप्रैल, 2025 को घोषित किए गए इस फैसले से विवाद पैदा हो गया है और अब यह न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों में 46% पद रिक्त, राज्य और केंद्र शासित प्रदेश चूक गए एनजीटी की समय सीमा
भारत के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और समितियां, अपने यहां रिक्त लगभग 46% पदों को भरने के लिए राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) की 30 अप्रैल की समय सीमा को पूरा करने में विफल रहीं। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा एनजीटी को सौंपी गई रिपोर्ट से पता चला है कि 26 राज्यों और आठ केंद्र शासित प्रदेशों में स्वीकृत 11,606 पदों में से 5,401 पद (या 46.53%) रिक्त हैं।
सीपीसीबी की स्टेटस रिपोर्ट एक सुओ मोटो मामले के तहत दायर की गई थी, जिसमें एनजीटी राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी), प्रदूषण नियंत्रण समितियों (पीसीसी) और सीपीसीबी में रिक्त पदों को भरने और पर्याप्त बुनियादी ढांचे के निर्माण के मुद्दे पर विचार कर रहा है।
हलफनामे में बताया गया है कि कुछ सबसे अधिक औद्योगिक राज्य – महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश – और कुछ सबसे अधिक आबादी वाले राज्य – बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान – में प्रदूषण निगरानी निकायों में बड़ी संख्या में रिक्तियां हैं। बिहार में 90.47% रिक्त पद हैं, उसके बाद उत्तराखंड (72.62% रिक्त पद), आंध्र प्रदेश (71%), गुजरात (60.92%), कर्नाटक (62.65%), मध्य प्रदेश (63.02%) और ओडिशा (60.04%) हैं।
गुजरात में बढ़ते ई-कचरे से निपटने के लिए GEDA ने सौर अपशिष्ट पुनर्चक्रण के लिए निविदाएँ आमंत्रित कीं
गुजरात ऊर्जा विकास एजेंसी (GEDA) ने राज्य में सोलर कचरे को रिसाइकिल करने के लिए निविदाएँ आमंत्रित कीं। डाउन टु अर्थ के मुताबिक इस पहल के तहत, विभिन्न शोध संगठन सौर और इलेक्ट्रॉनिक कचरे से निकाले गए मूल्यवान पदार्थों की जांच करेंगे। उल्लेखनीय है कि गुजरात भारत में सबसे अधिक संख्या में सौर मॉड्यूल निर्माताओं का घर है और यहाँ कई बड़े पैमाने पर सौर परियोजनाएँ हैं।
GEDA ने तकनीकी और वित्तीय रूप से सक्षम फर्मों को सौर पैनलों और ई-कचरे में पाए जाने वाले सिलिकॉन, तांबा, चांदी, एल्यूमीनियम और दुर्लभ धातुओं जैसे रिसाइकिल किये जाने योग्य पदार्थों पर व्यवहार्यता रिपोर्ट और शोध अध्ययन प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया है।
इस योजना के तहत सेपरेशन तकनीकों का परीक्षण करने के लिए बड़े पैमाने पर कचरे, विशेष रूप से क्षतिग्रस्त सौर मॉड्यूल का नमूना लेना शामिल होगा। अध्ययन सुरक्षित विघटन, विनियामक अनुपालन, पर्यावरण मानकों और श्रमिक सुरक्षा प्रोटोकॉल पर दिशा-निर्देशों में भी योगदान देगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि इसके अतिरिक्त, एक नियामक निकाय मौजूदा राष्ट्रीय और राज्य कानूनों का आकलन करेगा, गुजरात में सोलर वेस्ट रिसाइकिलिंग के बुनियादी ढांचे को सक्षम करने के लिए नीतिगत बदलावों की सिफारिश करेगा।
केरल तट पर डूबा लाइबेरियन जहाज, खतरनाक रसायनों से पर्यावरण पर खतरा
केरल तट के पास 24 मई 2025 को लाइबेरिया का मालवाहक जहाज एमएससी एल्सा-3 के डूबने से पर्यावरणीय संकट उत्पन्न हो गया है।
जहाज पर 643 कंटेनर थे, जिनमें 13 में खतरनाक रसायन और 12 में कैल्शियम कार्बाइड था, साथ ही 84.44 मीट्रिक टन डीजल और 367.1 मीट्रिक टन फर्नेस ऑयल भी था।
डूबने के चार दिन बाद, छोटे प्लास्टिक नर्डल्स और अन्य अपशिष्ट केरल और तमिलनाडु के तटों पर बहकर आने लगे हैं। ये नर्डल्स समुद्री जीवन के लिए खतरनाक हैं, क्योंकि वे मछली के अंडों जैसे दिखते हैं और समुद्री जीव इन्हें निगल सकते हैं।
केरल सरकार ने सफाई अभियान शुरू किया है, जिसमें ड्रोन सर्वे और स्वयंसेवकों की मदद से तटीय क्षेत्रों से अपशिष्ट एकत्र किया जा रहा है।
भारत की कुल स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी 2023 में बढ़कर 37% तक पहुंच गई, लेकिन इससे केवल 18% वास्तविक बिजली आपूर्ति हुई। क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर ने एक रिपोर्ट में कहा कि 175 गीगावाट अक्षय ऊर्जा क्षमता (73 गीगावाट सोलर, 45 गीगावाट पवज ऊर्जा, 47 गीगावाट हाइड्रो और 10 गीगावाट बायोएनेर्जी) स्थापित होने के बावजूद, उत्पादन कम है।
पवन और सोलर ऊर्जा से औसत वार्षिक उत्पादन पांच वर्षों में सिर्फ 11 गीगावाट था। अत्यधिक गर्मी के कारण बढ़ती बिजली की मांग इसकी प्रमुख वजह है। मई 2024 में बिजली का उपयोग पिछले वर्ष की तुलना में 14% बढ़ गया। सीमित स्टोरेज और ज्यादा मांग के कारण भारत ने कोयले और गैस से उत्पन्न होने वाली बिजली को वरीयता दी, जिससे ऊर्जा मिश्रण में अक्षय ऊर्जा की तुलना में जीवाश्म ईंधन का हिस्सेदारी बढ़ गई।
सौर ऊर्जा क्षमता वृद्धि में 25% की गिरावट
भारत ने 2025 की पहली तिमाही में सौर ऊर्जा क्षमता में 6.7 गीगावाट की वृद्धि की। मेरकॉम की रिपोर्ट के अनुसार, यह पिछले वर्ष की इसी अवधि में स्थापित 9 गीगावाट क्षमता से 25% कम है। यह 2024 की अंतिम तिमाही में जोड़ी गई 7.8 गीगावाट क्षमता से भी 14% कम है।
नई क्षमता में 5.5 गीगावाट लार्ज-स्केल सोलर परियोजनाओं से आया है। लगभग 19.8% हिस्सा ओपन एक्सेस इंस्टॉलेशन से आया है। लार्ज-स्केल सोलर से प्राप्त क्षमता पिछली तिमाही के मुकाबले 15% और पिछले साल के मुकाबले 36% कम हुई है।
रिपोर्ट में इस कमी की वजह मॉड्यूल की अधिक लागत, सीमित घरेलू आपूर्ति और कमजोर ट्रांसमिशन सिस्टम को बताया गया है।
पिछले एक दशक में 3 गुना बढ़ी भारत की अक्षय ऊर्जा क्षमता
भारत ने पिछले एक दशक में नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता में तीन गुना वृद्धि दर्ज की है। कुल स्थापित क्षमता अब 232 गीगावाट हो गई है, जबकि मार्च 2014 में यह 75.52 गीगावाट थी। सौर ऊर्जा की दरों में 80% गिरावट आई है और स्थापित सौर क्षमता 2.82 गीगावाट से बढ़कर 108 गीगावाट हो गई है।
पवन ऊर्जा क्षमता भी 21 से 51 गीगावाट तक पहुंच गई है। सौर मॉड्यूल उत्पादन 2 गीगावाट से बढ़कर 90 गीगावाट हो गया है, और बायोपावर 8.1 गीगावाट से 11.5 गीगावाट तक पहुंच गई है।
भारत का लक्ष्य 2030 तक 500 गीगावाट नवीकरणीय क्षमता स्थापित करना है।
स्वच्छ ऊर्जा कंपनियों के टैक्स क्रेडिट रद्द कर सकती है अमेरिकी कांग्रेस
अमेरिकी ग्रीन फ्यूल कंपनी एचआईएफ ग्लोबल ने टेक्सास के माटागोर्डा काउंटी में 7 अरब डॉलर की ई-मीथनॉल फैक्ट्री स्थापित करने की योजना बनाई है। यह दुनिया की सबसे बड़ी ई-मीथनॉल फैक्ट्री होगी। यह संयंत्र हरित हाइड्रोजन और कार्बन डाइऑक्साइड से ई-मीथनॉल बनाएगा, जिससे जहाजों और विमानों को स्वच्छ ईंधन मिल सकेगा।
इससे से हजारों नौकरियां भी पैदा होंगी। हालांकि, कंपनी अभीतक निवेश पर अंतिम निर्णय नहीं ले पाई है क्योंकि रिपब्लिकन नेतृत्व वाली कांग्रेस क्लीन एनर्जी टैक्स क्रेडिट में कटौती कर सकती है। टैक्स क्रेडिट कम होने से तकनीकी लागत बढ़ सकती है और परियोजना मुश्किल में पड़ सकती है।
पिछले साल डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुने बाद से ही स्वच्छ ऊर्जा परियोजनाओं पर संकट मंडरा रहा है।
बिक्री में बढ़त के बावजूद भारत में सीमित है ईवी एडॉप्शन: आईईएफए
इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (आईईएफए) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार 2014 से 2023 के बीच केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियों व सब्सिडी के कारण भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री बढ़ी है, लेकिन वाहनों की कुल बिक्री में उनकी हिस्सेदारी अभी भी सीमित है।
रिपोर्ट के अनुसार, उपभोक्ता ईंधन इंजन वाहनों को प्राथमिकता देते हैं, दूसरी और बैटरी और चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी भी प्रमुख चुनौती रही है
सरकार का लक्ष्य है कि 2030 तक कारों की बिक्री में 30%, व्यावसायिक वाहनों में 70% और दो व तीन पहिया वाहनों में 80% हिस्सेदारी इलेक्ट्रिक वाहनों की हो। रिपोर्ट के अनुसार फेम-II योजना से दोपहिया ईवी की बिक्री में बढ़त मिली, पर 2023 के अंत तक इसकी हिस्सेदारी सिर्फ 4% रही। निजी चारपहिया वाहनों की हिस्सेदारी मात्र 2% रही।
विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि ईवी एडॉप्शन बढ़ाने के लिए विश्वसनीय चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर, स्थिर नीतियां और दीर्घकालिक रोडमैप की जरूरत है। प्रत्येक ईवी सेगमेंट के लिए अलग रणनीति जरूरी है।
महाराष्ट्र ईवी नीति: इलेक्ट्रिक वाहनों पर नहीं लगेगा टोल; हर 25 किमी पर चार्जिंग स्टेशन
महाराष्ट्र सरकार ने अपनी ईवी नीति 2025 अधिसूचित कर दी है, जिसका उद्देश्य 2030 तक नए वाहनों की बिक्री में ईवी एडॉप्शन को 30% तक बढ़ाना है।
यह नीति 1 अप्रैल 2025 से 31 मार्च 2030 तक लागू रहेगी। ईटी एनर्जी वर्ल्ड की रिपोर्ट के अनुसार, इस अवधि में पंजीकृत सभी इलेक्ट्रिक वाहनों को मोटर वाहन कर और पंजीकरण नवीनीकरण शुल्क से छूट मिलेगी तथा उन्हें राज्य और राष्ट्रीय राजमार्गों पर टोल नहीं देना होगा।
साथ ही, हर 25 किमी पर चार्जिंग स्टेशन स्थापित करना अनिवार्य किया गया है और सरकार सभी सेगमेंट के वाहनों पर सब्सिडी भी देगी।
देश में 72,000 चार्जिंग स्टेशन लगेंगे
पीएम ई-ड्राइव योजना के अंतर्गत सरकार देशभर में 72,000 इलेक्ट्रिक वाहन चार्जिंग स्टेशन स्थापित करेगी। इकोनॉमिक टाइम्स के अनुसार यह स्टेशन राष्ट्रीय व राज्यों के राजमार्गों, मेट्रो शहरों, टोल बूथ, रेलवे स्टेशनों, हवाई अड्डों और ईंधन स्टेशनों पर लगाए जाएंगे।
भारत सरकार चलाएगी 14,028 इलेक्ट्रिक बसें
केंद्र सरकार पीएम ई-ड्राइव योजना के तहत प्रमुख शहरों को 14,028 इलेक्ट्रिक बसें आवंटित करेगी, जिसकी अनुमानित लागत 10,900 करोड़ रुपए है इकोनॉमिक टाइम्स के अनुसार, बेंगलुरु को 4,500, दिल्ली को 2,500, हैदराबाद को 2,000, अहमदाबाद को 1,000 और सूरत को 600 बसें दी जाएंगी।
भारत का कोयला आयात वित्तीय वर्ष 2024-25 में 7.9 प्रतिशत घटकर 243.62 मिलियन टन (एमटी) रह गया, जो पिछले वर्ष 264.53 एमटी था। इससे लगभग $7.93 बिलियन (60,681.67 करोड़ रुपए) की बचत हुई, ईटी ने कोयला मंत्रालय के आंकड़ों के हवाले से बताया।
नॉन-रेगुलेटेड सेक्टर में आयात में पिछले साल की अपेक्षा 8.95% की गिरावट दर्ज की गई। इस सेक्टर में बिजली उत्पादन के लिए प्रयोग में आनेवाला कोयला शामिल नहीं होता।
वहीं, कोयला आधारित बिजली उत्पादन में वित्तीय वर्ष 2023-24 की तुलना में वित्तीय वर्ष 2024-25 में 3.04% की वृद्धि हुई। हालांकि, थर्मल पॉवर संयंत्रों द्वारा मिश्रण के लिए किया गया कोयला आयात 41.4% तक घट गया।
सरकार ने कोयला आयात में इस गिरावट का श्रेय “कमर्शियल कोल माइनिंग” और “मिशन कोकिंग कोल” जैसी पहलों को दिया है, जिनका उद्देश्य घरेलू उत्पादन बढ़ाना और आयातित कोयले पर निर्भरता कम करना है। बीते वित्तीय वर्ष में कोयला उत्पादन पिछले साल की तुलना में 5% बढ़ा।
कोयला अब भी भारत के बिजली, इस्पात और सीमेंट क्षेत्रों के लिए प्रमुख ऊर्जा स्रोत बना हुआ है। हालांकि घरेलू उत्पादन में वृद्धि हुई है, फिर भी भारत उच्च गुणवत्ता वाले थर्मल कोल और कोकिंग कोल के लिए आयात पर निर्भर है, जो देश में सीमित मात्रा में उपलब्ध हैं।
रूसी तेल की मांग बढ़ी; भारत का आयात 10 महीनों के उच्चतम स्तर पर
भारत का रूसी कच्चे तेल का आयात मई में लगभग 1.8 मिलियन बैरल प्रति दिन तक पहुंच जाएगा, जो 10 महीनों का उच्चतम स्तर है। रायटर्स ने केप्लर के शिप ट्रैकिंग डेटा के हवाले से रिपोर्ट किया कि रिफाइनरियों ने ईएसपीओ ब्लेंड जैसे हल्के ग्रेड्स की जमकर खरीदारी की है। व्यापारियों के अनुसार, इन हल्के रूसी ग्रेड्स की मजबूत मांग जुलाई तक बनी रहने की संभावना है, क्योंकि भारतीय रिफाइनरियों ने पिछले सप्ताह में ईएसपीओ क्रूड के 10 से अधिक शिपमेंट के आदेश दिए हैं, जो जून में लोड होने वाले हैं।
ये खरीदारी यूरोपीय संघ और ब्रिटेन द्वारा रूस के “शैडो फ्लीट” और वित्तीय कंपनियों पर लगाए गए नए प्रतिबंधों से पहले की गई थी।
वैश्विक ब्लास्ट फर्नेस विस्तार में भारत की हिस्सेदारी 57%
दुनिया में स्टील उत्पादन को हरित (ग्रीन) बनाने में भारत की अहम भूमिका होगी। नए कोल-आधारित ब्लास्ट फर्नेस की जो क्षमता बन रही है, उसमें 57% हिस्सा भारत का है, हालांकि इलेक्ट्रिक आर्क फर्नेस तकनीक का इस्तेमाल बढ़ने की भी उम्मीद है।
ज्यादा प्रदूषण करने वाले ब्लास्ट फर्नेस 2030 तक स्टील उत्पादन में अग्रणी रहेंगे। ब्लास्ट फर्नेस क्षमता में 7% की वृद्धि के साथ यह कुल वैश्विक उत्पादन का 64% हिस्सा बनाए रखेगी।
भारत और चीन मिलकर 303 मिलियन टन नई ब्लास्ट फर्नेस क्षमता बना रहे हैं। स्टील उत्पादन से दुनियाभर का लगभग 11% ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन होता है। 2030 तक स्टील की मांग 2 अरब टन से ज़्यादा होगी। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत के फैसले स्टील उद्योग का हरित भविष्य तय करेंगे। एक विशेषज्ञ ने भारत को “ग्लोबल स्टील डीकार्बोनाइजेशन का संकेतक” कहा है।