Newsletter - January 13, 2023
उत्तराखंड के चमोली ज़िले में बसा ऐतिहासिक हिमालयी शहर जोशीमठ संकट में हैं। यहां घर, होटल और अन्य इमारतें टूट रही हैं और सड़कें धंस रही हैं। बुधवार तक प्रशासन ने 700 से अधिक भवनों को चिन्हित कर लिया था और लोग हटाये जा रहे हैं। जोशीमठ को सरकार ने आपदाग्रस्त और भूधंसाव क्षेत्र घोषित कर दिया है और वहां आपदा प्रबंधन की टीमें तैनात कर दी हैं जो इलाके का मुआयना कर रही हैं। समुद्र सतह से कोई 6200 फुट की ऊंचाई पर बसा जोशीमठ एक स्थायी जमीन पर नहीं, बल्कि बहुत ही अस्थायी और कमजोर आधार पर टिका हुआ है. यह कमजोर आधार हजारों साल पहले ग्लेशियरों द्वारा छोड़े गये मोरेन (रेत, मलबा, पत्थर आदि) का है, जिस पर जोशीमठ टिका हुआ है। यह क्षेत्र बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब जैसे तीर्थों और फूलों की घाटी जैसे पर्यटन स्थलों का प्रवेश द्वार भी है। साथ ही सीमावर्ती क्षेत्र होने के कारण यहां सेना और आईटीबीपी की मौजूदगी है।
इन कारणों से यहां काफी इंफ्रास्ट्रक्चर बना और भारी निर्माण कार्य हुआ औऱ पिछले 100 सालों में इस संवेदनशील क्षेत्र व्यापक तोड़-फोड़ हुई. इसी कारण जोशीमठ अब धंसने और नष्ट होने के कगार पर है।
जलवायु परिवर्तन प्रभावों से जोशीमठ के अस्तित्व पर संकट
क्या संवेदनशील क्षेत्र में बसे जोशीमठ को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से कोई ख़तरा है? विशेषज्ञ बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही एक्सट्रीम वेदर की कोई घटना या इस क्षेत्र में भूकंप का ख़तरा जोशीमठ जैसे पैरा ग्लेशियल क्षेत्र में बसे कस्बे के लिये अतिरिक्त संकट है।
भूविज्ञानी नवीन जुयाल ने कार्बनकॉपी हिन्दी को बताया, “असल में 2,500 मीटर की ऊंचाई को शीत हिमरेखा यानी विंटर स्नो लाइन माना जाता है। पैरा ग्लेशियल क्षेत्र का मलबा या मोरेन फ्रंटलाइन पर तैनात सेना की तरह है जिसे आगे बढ़ने के लिए अपने कमांडर के आदेश का इंतज़ार है। हम भूकंप, तेज़ बारिश, बाढ़ या जलवायु परिवर्तन जैसी किसी एक्सट्रीम वेदर की घटना को कमांडर का आदेश मान सकते हैं। ऐसी स्थिति होने पर यह सारा मोरेन किसी सेना की टुकड़ी की तरह खिसक कर आगे बढ़ सकता है और तबाही आ सकती है।”
स्पष्ट है कि जोशीमठ की भूगर्मीय संरचना और वहां भारी निर्माण से पैदा हालात के बाद जलवायु परिवर्तन प्रभाव इस क्षेत्र के लिये एक अतिरिक्त संकट पैदा कर रहे हैं।
जोशीमठ के बाद अन्य क्षेत्रों पर भी संकट
जोशीमठ ही नहीं अपनी भूगर्भीय स्थित, मानवजनित दबाव और भारी विकास कार्यों से कई हिमालयी क्षेत्र संकट में हैं। उत्तराखंड के सैकड़ों गांवों में आने वाले दिनों में जोशीमठ जैसा ही संकट दिख सकता है।
एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूवैज्ञानिक एसपी सती कहते हैं “कई हिमालयी कस्बे टाइमबम की स्थिति में हैं। चमोली का कर्णप्रयाग और गोपेश्वर, टिहरी में घनसाली, पिथौरागढ़ में मुनस्यारी और धारचुला, उत्तरकाशी में भटवाड़ी, पौड़ी, नैनीताल समेत कई ऐसी जगहें हैं जहां लगातार भू-धंसाव हो रहा है। सारी जगह जल निकासी के प्राकृतिक चैनल ब्लॉक कर दिए गए हैं। बहुमंजिला इमारतें बना दी गई हैं। क्षेत्र की भौगोलिक संवेदनशीलता को ध्यान रखे बिना अंधाधुंध निर्माण कार्य किए जा रहे हैं”।
जोशीमठ से करीब 80 किमी दूर कर्णप्रयाग के बहुगुणा नगर के घरों में 2015 से दरारें आ रही हैं। लेकिन हाल के दिनों में राष्ट्रीय राजमार्ग के चौड़ीकरण के कारण स्थिति और बिगड़ गई है।
गोपेश्वर में चमोली जिला मुख्यालय के कुछ हिस्सों और केदारनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर गुप्तकाशी के पास सेमी गांव में भी ऐसी ही स्थिति है।
मसूरी के लंढौर और ऋषिकेश के पास अटाली गांव में भी भू-धंसाव की सूचना मिली है।
वायु प्रदूषण से बढ़ता है डिमेंशिया का खतरा: अध्ययन
वायु प्रदूषण से जुड़े स्वास्थ्य जोखिमों अब डिमेंशिया का नाम भी जुड़ सकता है।
हाल ही में न्यूरोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, वेस्टर्न यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए मेटा-विश्लेषण से संकेत मिला है कि पार्टिकुलेट मैटर के नामक विशिष्ट प्रकार के यातायात-संबंधी प्रदूषण के अधिक संपर्क में आने से डिमेंशिया का खतरा बढ़ सकता है।
इस अध्ययन में डिमेंशिया से पीड़ित और उससे मुक्त लोगों के वायु प्रदूषण के संपर्क में आने की दर की तुलना की गई। शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन लोगों में यह बीमारी विकसित नहीं हुई थी, उनका सूक्ष्म पार्टिकुलेट मैटर के संपर्क में आने का दैनिक औसत कम था।
सूक्ष्म पार्टिकुलेट मैटर में प्रत्येक एक माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि पर डिमेंशिया का खतरा तीन प्रतिशत बढ़ गया।
2070 तक नेट-जीरो प्राप्ति के लिए भारत को सालाना $100 बिलियन अतिरिक्त निवेश करना होगा
भारत को 2070 तक नेट-जीरो कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य को पूरा करने के लिए सालाना 100 बिलियन डॉलर यानी करीब 80,000 करोड़ रुपये तक के अतिरिक्त निवेश की आवश्यकता है, वित्त मामलों पर संसदीय समिति के प्रमुख जयंत सिन्हा ने बताया।
सिन्हा की अध्यक्षता में यह पैनल अध्ययन कर रहा है कि सतत विकास, विशेष रूप से जलवायु अनुकूलन और शमन के लिए भारत को कितने निवेश की आवश्यकता है।
“2070 तक नेट-जीरो प्राप्ति के मार्ग पर रहने के लिए भारत को $50-100 बिलियन के अतिरिक्त निवेश की जरूरत है,” सिन्हा ने एक साक्षात्कार में रायटर्स को बताया।
भारत में कंपनियां पहले से ही मौजूदा और नई क्षमताओं से कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए $65 बिलियन-$100 बिलियन का निवेश कर रही हैं।
‘नेट जीरो के मार्ग पर रहने के लिए हमें भारत में निजी क्षेत्र के पूंजीगत खर्च को लगभग दोगुना करना होगा,’ उन्होंने कहा।
प्लास्टिक कचरे से निपटने के लिए सरकार के पास कोई एक्शन प्लान नहीं है: कैग
भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) द्वारा एक अनुपालन ऑडिट में पाया गया है कि प्लास्टिक कचरे से निपटने की रणनीति के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए सरकार के पास कोई एक्शन प्लान नहीं है।
कैग ने कहा कि प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन (पीडब्लूएम) नियम, 2016 को प्रभावी ढंग से और कुशलता से लागू नहीं किया जा सका क्योंकि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के पास कोई एक्शन प्लान नहीं था।
डीटीई की रिपोर्ट के अनुसार कैग ने कहा कि मंत्रालय में प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के साथ प्रभावी समन्वय की भी कमी है। कैग ने अपने ऑडिट में पाया कि मंत्रालय प्लास्टिक कचरे में कटौती, पुन: उपयोग और पुनर्चक्रण को लेकर नीति के बारे में भी चुप्पी साधे रहा।
जोशीमठ में हाइड्रो पावर कंपनी के खिलाफ प्रदर्शन
बीती पांच जनवरी को जोशीमठ के निवासियों ने यहां बन रहे एनटीपीसी के हाइड्रो पावर प्लांट के खिलाफ प्रदर्शन किया। लोगों का आरोप है कि एनटीपीसी के हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट के लिए बन रही सुरंग की खुदाई और उसके लिये ब्लास्टिंग के कारण उनके घरों को नुकसान पहुंचा है। एनटीपीसी का हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट 2006 में शुरु हुआ था लेकिन इसका निर्माण अभी जारी है और यह कई बार आपदाग्रस्त हो चुका है। साल 2021 में यहां ऋषिगंगा में आई बाढ़ के बाद इस प्लांट को भारी तबाही झेलनी पड़ी औऱ कुल 200 लोगों की मौत हो गई थी। स्थानीय लोगों का कहना है कि प्लांट के लिये बन रही 12 किलोमीटर लम्बी सुरंग यहां समस्या के लिये ज़िम्मेदार है। हालांकि एनटीपीसी ने बयान जारी कर कहा है कि उनकी सुरंग जोशीमठ में दरारों और ज़मीन धंसने के लिये ज़िम्मेदार नहीं है और न ही सुरंग बनाने के लिये कोई विस्फोट किये जा रहे।
केंद्र की मसौदा एनसीआर योजना में अरावली को स्थान नहीं
केंद्र सरकार ने प्रस्तावित क्षेत्रीय योजना 2041 के मसौदे में अरावली को प्राकृतिक क्षेत्रों की परिभाषा से बाहर कर दिया है। एचटी की रिपोर्ट के अनुसार मसौदे में दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक में निर्माण पर मौजूदा 0.5% सीमा पर भी कुछ नहीं कहा गया है।
साल 2005 से लागू एनसीआर क्षेत्रीय योजना- 2021 को आगे बढ़ाने के लिए एनसीआर क्षेत्रीय योजना- 2041 का प्रस्ताव लाया गया है। इस ड्राफ्ट प्लान को एनसीआर में शामिल राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के अलावा हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के कुछ जिलों के विकास के लिए एक दीर्घकालिक योजना के रूप में तैयार किया गया है।
लेकिन इस मसौदे से मौजूदा क्षेत्रीय योजना 2021 के उपरोक्त दोनों प्रावधानों को हटा दिया गया है। 2021 की योजना में प्राकृतिक संरक्षण क्षेत्रों में निर्माण पर 0.5% की अधिकतम सीमा का भी प्रावधान है।
माना जा रहा है कि प्रस्तावित योजना दशकों से अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही अरावली पर्वत श्रृंखला के संरक्षण के लिए खतरा हो सकती है।
राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम के तहत शहरों की वायु गुणवत्ता में हुआ बहुत कम सुधार
सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (सीआरईए) की एक रिपोर्ट के अनुसार, राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) की शुरुआत के चार साल बाद, वित्त वर्ष 21-22 में 131 शहरों में से केवल 49 में पिछले वर्ष की तुलना में हवा की गुणवत्ता में सुधार हुआ है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों (एसपीसीबी), शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) और केंद्र के बीच समझौतों के तहत जिन 131 शहरों को वार्षिक प्रदूषण में कमी का लक्ष्य दिया गया था, उनमें से केवल 38 ही साल 21-22 के लक्ष्यों को पूरा करने में कामयाब रहे।
एनसीएपी में भारत के 132 सबसे प्रदूषित या तथाकथित ‘गैर-प्राप्ति शहरों’ को शामिल किया गया है। ‘गैर-प्राप्ति शहर’ उन्हें कहा जाता है जिनकी वायु गुणवत्ता 2011 से 2015 के राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानकों पर खरी नहीं उतरती है।
एनसीएपी का लक्ष्य है देश में 2017 के प्रदूषण स्तर को आधार बनाते हुए 2024 तक पीएम2.5 और पीएम10 कणों से होने वाले प्रदूषण के स्तर में 20% -30% की कमी लाना।
वायु प्रदूषण के मामले में नवी मुंबई ने दिल्ली को पछाड़ा
नवी मुंबई ने खराब वायु गुणवत्ता के मामले में दिल्ली को पीछे छोड़ दिया है। बीते रविवार को नवी मुंबई का वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) 350 था, जबकि दिल्ली का 345। हालांकि दोनों ही शहरों में वायु गुणवत्ता ‘बेहद ख़राब’ श्रेणी में रही।
मुंबई, नवी मुंबई और आस-पास के इलाकों की बिगड़ी हुई आबो-हवा नए साल की शुरुआत से ही लोगों के स्वास्थ्य पर खराब असर डाल रही है। वायु गुणवत्ता की मॉनिटरिंग करने वाली संस्था ‘सफर’ ने अंदेशा जताया है कि शहर की हवा पूरे महीने खराब रहेगी।
सफर के मुताबिक जलवायु परिवर्तन का असर मुंबई की वायु गुणवत्ता पर पड़ा है। हवा की गति कमजोर होने से वायु प्रदूषक कणों का प्रसार नहीं हो पा रहा है।
समुद्र से घिरे होने की वजह से मुंबई वायु प्रदूषण से बची रहती है, लेकिन अभी यहां की हवा भी प्रदूषित हो गई है।
2066 तक भर जाएगा ओजोन परत का छेद: यूएन
संयुक्त राष्ट्र की एक नई रिपोर्ट में कहा गया है कि पृथ्वी की सुरक्षात्मक ओजोन परत धीरे-धीरे ठीक हो रही है और लगभग 43 वर्षों में अंटार्कटिका के ऊपर हुआ छेद पूरी तरह से भर जाएगा।
एक चतुर्वर्षीय आकलन में पाया गया कि सभी देशों के ओज़ोन परत को को नुकसान पहुंचाने वाले रसायनों का उत्पादन बंद करने के साझा निर्णय के 35 साल बाद अब पृथ्वी के वायुमंडल में मौजूद इस परत में सुधार प्रगति पर है। ओज़ोन परत ऐसे हानिकारक विकिरण से पृथ्वी की रक्षा करती है जिसके कारण त्वचा के कैंसर और मोतियाबिंद जैसे रोगों के साथ-साथ फसल के नुकसान का भी खतरा उत्पन्न होता है।
वायुमंडल में लगभग 30 किलोमीटर की ऊंचाई पर मौजूद ओजोन की वैश्विक औसत मात्रा में 1980 के दशकों में गिरावट देखी गई थी। रिपोर्ट में कहा गया है 2040 से पहले यह मात्रा उस स्तर तक वापस नहीं पहुंचेगी। आर्कटिक में ओज़ोन परत सामान्य होने में 2045 तक का समय लगेगा। वहीं अंटार्कटिका में, जहां इसकी मात्रा इतनी कम है कि परत में एक विशाल छेद है, इसे पूरी तरह सामान्य होने में 2066 तक का वक्त लगेगा।
नए साल में सांस के रोगियों की संख्या में हुई 30% की वृद्धि
स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने बताया है कि नए साल में सांस के रोगियों की संख्या में कम से कम 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अत्यधिक प्रदूषण के कारण मरीजों को रक्त में ऑक्सीजन की कमी और सांस की तकलीफ हो रही है, और कुछ को तो आईसीयू में भर्ती करना पड़ा है।
सांस की बीमारियों से पीड़ित लोगों के लिए यह सर्दी वायु प्रदूषण में भारी वृद्धि के कारण अत्यधिक हानिकारक साबित हो रही है। दिवाली के बाद से बिगड़ती वायु गुणवत्ता नए साल में प्रवेश करते ही और ख़राब हो गई है।
लोग खांसी, सांस लेने में तकलीफ, और सीने में दर्द जैसी समस्याओं के साथ अस्पताल पहुंच रहे हैं। सर्दियों के मौसम में वायु प्रदूषकों के वातावरण में स्थिर हो जाने के कारण सांस की बीमारियां बढ़ जाती हैं।
भारत ने 2022 तक 175 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य रखा था। इसमें 100 गीगावाट के साथ सबसे बड़ा हिस्सा सौर ऊर्जा का था।
इस 100 गीगावाट सौर ऊर्जा स्थापन में 40 गीगावाट ऐसे सौर पार्कों से प्राप्त की जानी थी जिनकी स्थापना ‘सौर पार्क और अल्ट्रा मेगा सौर ऊर्जा परियोजनाओं के विकास हेतु योजना’ के तहत होनी थी। हालांकि भारत सरकार ने अब तक कुल 57 ऐसे सौर ऊर्जा पार्कों को मंज़ूरी दी है, जिनकी कुल क्षमता 39.2 गीगावाट है, लेकिन उनमें से अभी तक सिर्फ नौ सोलर पार्क चालू हो पाए हैं, जिनकी कुल क्षमता 8.08 गीगावाट है।
उसी प्रकार, सौर ऊर्जा से जुड़ी योजना पीएम-कुसुम, यानी ‘प्रधानमंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाअभियान’, के तहत सिंचाई के लिए किसानों को सौर पंप लगाने हेतु वित्तीय सहायता दी जानी थी, ताकि उन्हें डीज़ल पंप से सौर ऊर्जा की तरफ लाया जा सके।
साल 2022 तक इस योजना का लक्ष्य 25,750 मेगावाट की सौर क्षमता जोड़ने का था, जिसके लिए 34,422 करोड़ रुपए की वित्तीय सहायता की घोषणा की गई थी।
लेकिन 15 दिसंबर 2022 को लोकसभा में दिए गए एक जवाब के अनुसार, अभी तक इस योजना पर सिर्फ 1,184 करोड़ रुपए ही खर्च किए गए हैं। इस योजना के तहत जहां 20 लाख स्टैण्ड-अलोन पंप लगाए जाने थे, वहीं अभी तक सिर्फ 78,940 पंप ही लगे हैं।
संसदीय समितियों ने इन दोनों योजनाओं के ख़राब प्रदर्शन पर सरकार की आलोचना की है।
भारत ने ग्रीन हाइड्रोजन मिशन को मंजूरी दी
केंद्र ने नेशनल ग्रीन हाइड्रोजन मिशन को मंजूरी दे दी है। इस मिशन के तहत 2030 तक कम से कम पांच मिलियन मीट्रिक टन (एमएमटी) की हरित हाइड्रोजन उत्पादन क्षमता और उससे संबद्ध लगभग 125 गीगावाट की नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया है।
डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट है कि मिशन के अंतर्गत हरित हाइड्रोजन का निर्यात करने और साथ ही साथ जीवाश्म ईंधन के आयात को कम करने की योजना बनाई गई है।
इस कार्यक्रम के तहत हरित हाइड्रोजन के उत्पादन के साथ-साथ इलेक्ट्रोलाइज़र के घरेलू निर्माण को प्रोत्साहित किया जाएगा। नवीकरणीय बिजली द्वारा संचालित इलेक्ट्रोलिसिस का उपयोग हरित हाइड्रोजन के उत्पादन के लिए किया जाता है।
रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार भारत की योजना है कि अगले पांच सालों में इस उद्योग की व्यापकता को बढ़ाकर, हरित हाइड्रोजन की उत्पादन लागत को पांच गुना तक कम किया जाए। भारत में इसकी मौजूदा लागत 300 से 400 रुपए प्रति किलो है।
विशेषज्ञों का मानना है कि मिशन के यह बड़े लक्ष्य भारत को ग्रीन हाइड्रोजन का निर्यात केंद्र बनाने और वैश्विक निवेशकों को आकर्षित करने में सहायक होंगे।
नवीकरणीय ऊर्जा उद्योग के लिए कैसा रहेगा साल 2023
साल 2030 तक 500 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा के लक्ष्य की दिशा में तेजी से बढ़ने के लिए भारत ने बीते साल साफ़ ऊर्जा उत्पादन में तेजी लाने, आवश्यक उपकरणों के निर्माण और ऊर्जा भंडारण सुविधाओं के निर्माण पर जोर दिया।
लेकिन 2070 तक नेट-जीरो प्राप्ति सहित अन्य महत्वाकांक्षी विकासात्मक और पर्यावरणीय लक्ष्यों को पाने के लिए भारत को 2023 में नवीकरणीय ऊर्जा पर और अधिक ध्यान देने की जरूरत है।
इस साल देश को अपनी मौजूदा क्षमता में लगभग 25-30 गीगावाट जोड़ने का प्रयास करना चाहिए।
नवीकरणीय ऊर्जा उद्योग के लिए साल 2023 आशाजनक प्रतीत हो रहा है, और इसकी प्रगति के लिए वातावरण अनुकूल है।
अनुमान है कि इस क्षेत्र में इस वर्ष लगभग 25 बिलियन अमरीकी डालर का भारी निवेश होगा, जो ऊर्जा उत्पादन योजनाओं को और बढ़ावा देगा।
अन्य क्षेत्रों की तुलना में सौर ऊर्जा में अधिक तेजी से विस्तार हो रहा है, और ऐसा माना जा रहा है कि न केवल इसकी यह गति बरक़रार रहेगी, बल्कि इसमें और वृद्धि होगी।
हालांकि देश को पवन, हरित हाइड्रोजन और अन्य क्षेत्रों की प्रगति पर भी समान रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है।
इसके अलावा, ऊर्जा भंडारण क्षमता में वृद्धि होने की भी संभावना है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकी में कंपनियों का निवेश बढ़ने की उम्मीद है।
हालांकि, कुछ समस्याएं भी हैं जो इस क्षेत्र के विकास में बाधक हो सकती हैं। लेकिन यदि सरकार सही कदम उठाए और उचित उपाय करे तो उनसे भी निपटा जा सकता है।
हरित हाइड्रोजन उत्पादन पर भी हावी होने की फ़िराक में चीन
कीमतें गिराकर सौर विनिर्माण पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के एक दशक बाद चीन अब हरित हाइड्रोजन उत्पादन के क्षेत्र में भी ऐसा ही करने की फ़िराक में है। हालांकि सौर पैनल निर्माण की दौड़ में पिछड़ने के बाद अमेरिका और यूरोप अब एक और लड़ाई हारने को तैयार नहीं हैं।
जैसे-जैसे विश्व विकार्बनीकरण के लिए प्रतिबद्ध हो रहा है, वैसे-वैसे हरित हाइड्रोजन उत्पादन के लिए इलेक्ट्रोलाइजर नामक उपकरण की मांग बढ़ रही है। यह उपकरण बिना किसी उत्सर्जन के पानी से हाइड्रोजन निकालने में मदद करता है।
ब्लूमबर्ग एनईएफ की रिपोर्ट के अनुसार आज वैश्विक उपयोग के 40% से अधिक इलेक्ट्रोलाइज़र चीन से आते हैं।
हालांकि चीनी इलेक्ट्रोलाइज़र अमेरिका और यूरोप में बने इलेक्ट्रोलाइज़र जितने सक्षम नहीं होते, लेकिन उनकी कीमत बहुत कम है जिसके कारण उनकी मांग अधिक है।
वहीं अमेरिका चीन को इस नई ऊर्जा मांग पर हावी नहीं होने देने के लिए कटिबद्ध है। राष्ट्रपति जो बाइडेन ने ‘मुद्रास्फीति न्यूनीकरण अधिनियम’ द्वारा हाइड्रोजन के घरेलू उत्पादन के लिए कुबेर का खजाना खोल दिया है।
इस बीच, कई विश्लेषकों को उम्मीद है कि चीनी इलेक्ट्रोलाइज़र की तकनीक में भी सुधार होगा, जिससे अमेरिका और यूरोपीय कंपनियों का यह बढ़त भी जाती रहेगी।
ऑटो एक्सपो 2023 के पहले दिन ईवी से लेकर हाइड्रोजन से चलने वाली कई गाड़ियों को प्रदर्शित किया गया और हरित वाहनों की धूम रही।
मारुति सुजुकी, हुंडई, टाटा मोटर्स, किआ, और अशोक लीलैंड जैसी प्रमुख कंपनियों ने अपने नए इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) या वैकल्पिक ऊर्जा-संचालित मॉडलों का अनावरण किया।
अलग-अलग कंपनियों द्वारा 22 मॉडलों का अनावरण किया गया, जिनमें से अधिकांश ईवी सेगमेंट में प्रदर्शित किए गए।
आकर्षण का प्रमुख केंद्र रही सुजुकी मोटर की कॉन्सेप्ट इलेक्ट्रिक एसयूवी, ईवीएक्स, जिसके 2025 तक बाजार में आने की संभावना है।
इसके अलावा हुंडई ने अपनी बहुप्रतीक्षित ऑल-इलेक्ट्रिक एसयूवी आयनिक5 लांच की, जिसकी रेंज 631 किमी है। दूसरी ओर, टाटा मोटर्स ने ईवी सेगमेंट में 12 वाहनों — सिएरा, हैरियर और अविन्या का अनावरण किया; अंतर्दहन इंजन (आईसीई) सेगमेंट में कॉन्सेप्ट कर्व, और सीएनजी सेगमेंट में ऑल्ट्रोज़ आईसीएनजी और पंच आईसीएनजी का भी अनावरण किया।
ईवी बैटरी बाजार में आगे बढ़ने के लिए भारत को कच्चे माल की जरूरत
दुनिया महत्वपूर्ण बैटरी सामग्री के लिए चीन पर निर्भरता को दूर करने की कोशिश कर रही है। भारत इलेक्ट्रिक वाहन आपूर्ति श्रृंखला में एक विकल्प के रूप में अपना स्थान बनाने के लिए साहसिक कदम उठा रहा है।
ईवी को अपनाने में तेजी लाने के लिए सरकार ने लगभग 27,500 करोड़ रुपए के इंसेंटिव देने का ऐलान किया है।
इसके पीछे की मंशा यह है कि ईवी के सबसे महंगे घटक — बैटरी — का निर्माण स्थानीय स्तर पर होने से वाहनों की कीमतों में और गिरावट आएगी।
इससे देश एक संभावित निर्यातक के रूप में उभरेगा, जो विश्व में बैटरी की बढ़ती मांग से लाभान्वित होगा।
लेकिन, भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वैश्विक स्तर पर उत्पादन करना तो दूर, इसके पास लिथियम-आयन बैटरी की घरेलू मांग को पूरा करने के लिए ही आवश्यक कच्चे माल की कमी है।
लिथियम आपूर्ति श्रृंखला में चीन का दबदबा है; इसकी कंपनियों ने पहले से ही प्रमुख लिथियम उत्पादक देशों के साथ समझौते कर रखे हैं, और इसने कच्चे माल को बैटरी-ग्रेड इनपुट में संसाधित करने के साथ-साथ स्टोरेज पैक का निर्माण खुद करना भी शुरु कर दिया है।
भारत को चीन की बराबरी करने के लिए एक लंबा रास्ता तय करना है। देश को अमेरिका सहित अन्य देशों से भी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है, जो बाजार पर चीन की पकड़ को ख़त्म के प्रयास में घरेलू बैटरी उत्पादन बढ़ाने पर जोर दे रहा है।
ईवी निर्माताओं द्वारा गलत तरीके से ली गई सब्सिडी वापस लेगी सरकार
इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक केंद्र सरकार फेम-II के तहत इलेक्ट्रिक वाहन निर्माताओं द्वारा गलत तरीके से ली गई सब्सिडी वापस लेने की योजना बना रही है।
फेम-II योजना को 10,000 करोड़ रुपए की लागत से विशेष रूप से स्थानीय ईवी विनिर्माण को प्रोत्साहित करने और टेलपाइप उत्सर्जन रहित परिवहन विकल्पों के उपयोग के लिए बनाया गया था।
भारी उद्योग मंत्रालय (एमएचआई) ने उन उत्पादकों द्वारा ली गई सब्सिडी की मात्रा निर्धारित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है, जो इस कार्यक्रम के तहत वित्तीय लाभ प्राप्त करने के लिए स्थानीयकरण के आवश्यक स्तर का पालन करने में विफल रहे।
2022 में एमएचआई को कुछ ईवी निर्माताओं द्वारा सब्सिडी के दुरुपयोग की शिकायतें मिलीं। नतीजतन, मंत्रालय ने जांच लंबित रहने तक ईवी निर्माताओं को सब्सिडी देना बंद कर दिया। इससे देय सब्सिडी की राशि बढ़ती गई, जो अब मूल उपकरण निर्माता (ओईएम) केंद्र से मांग रहे हैं। उनका दावा है कि ईवी पहले से ही उपभोक्ताओं को छूट पर बेचे जा चुके हैं।
सोसाइटी ऑफ मैन्युफैक्चरर्स ऑफ इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (एसएमईवी) के अनुसार, एमएचआई ने 1,100 करोड़ रुपए की सब्सिडी रोक रखी है जो ओईएम को देय है, जबकि ईवी निर्माताओं ने दावा किया है कि सब्सिडी रोकने के निर्णय से उनका संचालन प्रभावित हो रहा है।
दिसंबर में दिल्ली ने सभी राज्यों से अधिक मासिक ईवी बिक्री दर्ज की
दिल्ली ने दिसंबर 2022 में 7,046 इलेक्ट्रिक वाहनों की रिकॉर्ड संख्या दर्ज की, जो 2021 के इसी महीने की तुलना में साल-दर-साल 86 प्रतिशत की वृद्धि को दर्शाता है।
एक रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली ईवी नीति के लांच के बाद से राष्ट्रीय राजधानी में 93,239 यूनिट इलेक्ट्रिक वाहन पंजीकृत हुए हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि इन इलेक्ट्रिक वाहनों में अकेले 2022 में दोपहिया वाहनों का योगदान लगभग 55 प्रतिशत है।
इसके अलावा, पिछले साल दिसंबर में दिल्ली में कथित तौर पर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में अब तक की सबसे अधिक मासिक इलेक्ट्रिक वाहन बिक्री देखी गई।
भारत 2040 तक दुनिया की 25% ईंधन की मांग को पूरा कर सकता है: हरदीप सिंह पुरी
केंद्र ने दावा किया है कि भारत 2040 तक वैश्विक ईंधन मांग में 25% योगदान देगा।साथ ही सरकार ने 2025 तक पेट्रोल में 20% इथेनॉल सम्मिश्रण हासिल करने का लक्ष्य बनाया है।
केंद्रीय पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने कहा कि वर्तमान में भारत अपनी 85% तेल और 50% प्राकृतिक गैस की आवश्यकताओं के लिए आयात पर निर्भर है। लेकिन भारत ने अब
गन्ने और अन्य कृषि-उत्पादों से निकाले गए इथेनॉल को पेट्रोल में मिलाना शुरू कर दिया है, जिससे आयात पर इसकी निर्भरता कम हो जाएगी। सूत्रों के अनुसार पेट्रोल में इथेनॉल सम्मिश्रण 2013-14 में 1.53% से बढ़कर 2022 में 10.17% हो गया है।
2022 के जबरन उत्पादन के लिए भारतीय कोयला बिजली संयंत्रों को दिया जाना चाहिए मुआवजा – नियामक
केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग (सीईआरसी) ने कहा कि पिछले साल एक सरकारी आदेश के परिणामस्वरूप बिजली उत्पादकों को हुए नुकसान की भरपाई सरकार को करनी होगी।
सरकारी आदेश ने थर्मल पावर स्टेशनों को चालू रखने के लिए मजबूर किया था। मई 2022 में कोयले की बढ़ती कीमतों और कम आपूर्ति की मात्रा ने कई बिजली उत्पादकों को परिचालन बंद करने के लिए मजबूर किया।
ज्यादा मांग के दौरान बिजली की कमी देखते हुए भारत सरकार ने विद्युत अधिनियम में एक आपातकालीन खंड लागू किया था। जिसके अंतर्गत आयातित कोयले का उपयोग करने के लिए बिजली संयंत्रों को निर्देशित किया गया था। बिजली नियामक के आदेश में कहा गया है कि जिन संयंत्रों को आयातित कोयले का उपयोग करने के लिए मजबूर किया गया था उनके टैरिफ में सभी खरीद लागतों के साथ-साथ “उचित लाभ मार्जिन” भी शामिल होना चाहिए।
उत्पादन में वृद्धि के बावजूद भारतीय कोयले में निवेशकों की दिलचस्पी कम
पिछले वित्त वर्ष की इसी अवधि की तुलना में अप्रैल-दिसंबर 2022 के दौरान भारत में कोयले का उत्पादन 16% से अधिक बढ़ा। आंकड़ों के अनुसार, अप्रैल से दिसंबर की समय सीमा में देश का कोयला उत्पादन 2021 में 522.34 मेगाटन से बढ़कर 2022 में 607.97 मेगाटन हो गया। कोल इंडिया लिमिटेड (सीआई एल) ने 15.82% की वृद्धि दर्ज की, जिससे इसका उत्पादन लगभग 480 मेगाटन हो गया।
हालांकि कोयला व्यवस्था के उदारीकरण और कनेक्टिविटी में सुधार के कारण उत्पादन में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन इससे निवेशकों के उत्साह में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। कोयला और खान मंत्री प्रह्लाद जोशी के बयान के अनुसार, दिसंबर 2021 में जिन 99 खानों के लिए बोलियां आमंत्रित की गई थीं, उनमें से केवल आठ की सफलतापूर्वक नीलामी की गई है।