उत्तराखंड के चमोली ज़िले में बसा ऐतिहासिक हिमालयी शहर जोशीमठ संकट में हैं। यहां घर, होटल और अन्य इमारतें टूट रही हैं और सड़कें धंस रही हैं। बुधवार तक प्रशासन ने 700 से अधिक भवनों को चिन्हित कर लिया था और लोग हटाये जा रहे हैं। जोशीमठ को सरकार ने आपदाग्रस्त और भूधंसाव क्षेत्र घोषित कर दिया है और वहां आपदा प्रबंधन की टीमें तैनात कर दी हैं जो इलाके का मुआयना कर रही हैं। समुद्र सतह से कोई 6200 फुट की ऊंचाई पर बसा जोशीमठ एक स्थायी जमीन पर नहीं, बल्कि बहुत ही अस्थायी और कमजोर आधार पर टिका हुआ है. यह कमजोर आधार हजारों साल पहले ग्लेशियरों द्वारा छोड़े गये मोरेन (रेत, मलबा, पत्थर आदि) का है, जिस पर जोशीमठ टिका हुआ है। यह क्षेत्र बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब जैसे तीर्थों और फूलों की घाटी जैसे पर्यटन स्थलों का प्रवेश द्वार भी है। साथ ही सीमावर्ती क्षेत्र होने के कारण यहां सेना और आईटीबीपी की मौजूदगी है।
इन कारणों से यहां काफी इंफ्रास्ट्रक्चर बना और भारी निर्माण कार्य हुआ औऱ पिछले 100 सालों में इस संवेदनशील क्षेत्र व्यापक तोड़-फोड़ हुई. इसी कारण जोशीमठ अब धंसने और नष्ट होने के कगार पर है।
जलवायु परिवर्तन प्रभावों से जोशीमठ के अस्तित्व पर संकट
क्या संवेदनशील क्षेत्र में बसे जोशीमठ को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से कोई ख़तरा है? विशेषज्ञ बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही एक्सट्रीम वेदर की कोई घटना या इस क्षेत्र में भूकंप का ख़तरा जोशीमठ जैसे पैरा ग्लेशियल क्षेत्र में बसे कस्बे के लिये अतिरिक्त संकट है।
भूविज्ञानी नवीन जुयाल ने कार्बनकॉपी हिन्दी को बताया, “असल में 2,500 मीटर की ऊंचाई को शीत हिमरेखा यानी विंटर स्नो लाइन माना जाता है। पैरा ग्लेशियल क्षेत्र का मलबा या मोरेन फ्रंटलाइन पर तैनात सेना की तरह है जिसे आगे बढ़ने के लिए अपने कमांडर के आदेश का इंतज़ार है। हम भूकंप, तेज़ बारिश, बाढ़ या जलवायु परिवर्तन जैसी किसी एक्सट्रीम वेदर की घटना को कमांडर का आदेश मान सकते हैं। ऐसी स्थिति होने पर यह सारा मोरेन किसी सेना की टुकड़ी की तरह खिसक कर आगे बढ़ सकता है और तबाही आ सकती है।”
स्पष्ट है कि जोशीमठ की भूगर्मीय संरचना और वहां भारी निर्माण से पैदा हालात के बाद जलवायु परिवर्तन प्रभाव इस क्षेत्र के लिये एक अतिरिक्त संकट पैदा कर रहे हैं।
जोशीमठ के बाद अन्य क्षेत्रों पर भी संकट
जोशीमठ ही नहीं अपनी भूगर्भीय स्थित, मानवजनित दबाव और भारी विकास कार्यों से कई हिमालयी क्षेत्र संकट में हैं। उत्तराखंड के सैकड़ों गांवों में आने वाले दिनों में जोशीमठ जैसा ही संकट दिख सकता है।
एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूवैज्ञानिक एसपी सती कहते हैं “कई हिमालयी कस्बे टाइमबम की स्थिति में हैं। चमोली का कर्णप्रयाग और गोपेश्वर, टिहरी में घनसाली, पिथौरागढ़ में मुनस्यारी और धारचुला, उत्तरकाशी में भटवाड़ी, पौड़ी, नैनीताल समेत कई ऐसी जगहें हैं जहां लगातार भू-धंसाव हो रहा है। सारी जगह जल निकासी के प्राकृतिक चैनल ब्लॉक कर दिए गए हैं। बहुमंजिला इमारतें बना दी गई हैं। क्षेत्र की भौगोलिक संवेदनशीलता को ध्यान रखे बिना अंधाधुंध निर्माण कार्य किए जा रहे हैं”।
जोशीमठ से करीब 80 किमी दूर कर्णप्रयाग के बहुगुणा नगर के घरों में 2015 से दरारें आ रही हैं। लेकिन हाल के दिनों में राष्ट्रीय राजमार्ग के चौड़ीकरण के कारण स्थिति और बिगड़ गई है।
गोपेश्वर में चमोली जिला मुख्यालय के कुछ हिस्सों और केदारनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर गुप्तकाशी के पास सेमी गांव में भी ऐसी ही स्थिति है।
मसूरी के लंढौर और ऋषिकेश के पास अटाली गांव में भी भू-धंसाव की सूचना मिली है।
वायु प्रदूषण से बढ़ता है डिमेंशिया का खतरा: अध्ययन
वायु प्रदूषण से जुड़े स्वास्थ्य जोखिमों अब डिमेंशिया का नाम भी जुड़ सकता है।
हाल ही में न्यूरोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, वेस्टर्न यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए मेटा-विश्लेषण से संकेत मिला है कि पार्टिकुलेट मैटर के नामक विशिष्ट प्रकार के यातायात-संबंधी प्रदूषण के अधिक संपर्क में आने से डिमेंशिया का खतरा बढ़ सकता है।
इस अध्ययन में डिमेंशिया से पीड़ित और उससे मुक्त लोगों के वायु प्रदूषण के संपर्क में आने की दर की तुलना की गई। शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन लोगों में यह बीमारी विकसित नहीं हुई थी, उनका सूक्ष्म पार्टिकुलेट मैटर के संपर्क में आने का दैनिक औसत कम था।
सूक्ष्म पार्टिकुलेट मैटर में प्रत्येक एक माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि पर डिमेंशिया का खतरा तीन प्रतिशत बढ़ गया।
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