भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने शनिवार को चेतावनी दी कि पूर्वी और पश्चिमी भारत में असामान्य रूप से भीषण गर्मी की स्थिति मार्च में ही पैदा हो गई है और कई क्षेत्रों में तापमान 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो गया है। हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक कम से कम पिछले वर्ष, ऐसी भीषण गर्मी की स्थिति अप्रैल के प्रारम्भ में ही दर्ज की गई थी।
विदर्भ, मध्य महाराष्ट्र, ओडिशा, सौराष्ट्र, कच्छ, तेलंगाना और रायलसीमा में भीषण गर्मी की स्थिति है, शुक्रवार को ओडिशा के झारसुगुड़ा में देश का सबसे अधिक तापमान 41.8 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। शनिवार को देश भर में सबसे अधिक तापमान ओडिशा के बौध में 42.5 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया।
राजधानी दिल्ली में सफदरजंग में होली के दिन शुक्रवार को अधिकतम तापमान 36.2 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया, जो इस साल के इस समय के लिए सामान्य से 7.5 डिग्री अधिक था। हालांकि शाम को हुई बारिश ने तापमान में गिरावट ला दी, शनिवार को अधिकतम तापमान 33 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया, जो सामान्य से 4.1 डिग्री अधिक था।
मौसम विज्ञानियों के मुताबिक ऐसी हीटवेव के लिए यह समय नहीं हैं लेकिन मार्च में विरले ही इस तरह की वेदर एक्सट्रीम देखी जाती है। इस असामान्य तापमान को जलवायु परिवर्तन के असर के तौर पर देखा जा रहा है।
सितंबर 2029 तक पार हो जाएगी 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा: सी3एस
कॉपर्निकस क्लाइमेट चेंज सर्विस (सी3एस) की रिपोर्ट है कि वैश्विक तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तरों के मुकाबले 1.38 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है, और यदि यही ट्रेंड जारी रहा तो ग्लोबल वार्मिंग की 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा सितंबर 2029 तक पार हो जाएगी। गौरतलब है कि पहले वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया था कि यह सीमा 2030 के दशक में पार होगी। पेरिस समझौते के तहत विभिन्न देश ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए उत्सर्जन में कटौती करने हेतु प्रतिबद्ध हुए थे।
यदि यह सीमा पार होती है तो जलवायु परिवर्तन के अधिक गंभीर प्रभाव देखने को मिलेंगे।
उदाहरण के लिए, 1.5 डिग्री सेल्सियस वार्मिंग पर दुनिया की लगभग 14% आबादी हर पांच साल में कम से कम एक बार गंभीर हीटवेव का सामना करेगी; 2 डिग्री सेल्सियस पर यह आंकड़ा 37% तक बढ़ जाएगा। धरती की सतह का तापमान लगातार 12 महीनों से 1850-1900 औसत के मुकाबले 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक दर्ज किया गया है।
क्लाइमेट चेंज से बढ़ सकता है स्पेस जंक, उपग्रह होंगे प्रभावित: शोध
एमआईटी के एक नए अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि जलवायु परिवर्तन अंतरिक्ष के मलबे (स्पेस जंक) को बढ़ा सकता है, जिससे पृथ्वी की निचली कक्षा में और अधिक कचरा जमा हो सकता है। अध्ययन के अनुसार, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन निचले वातावरण को गर्म करता है और ऊपरी वातावरण को ठंडा, जिससे ऊपरी वातावरण का घनत्व कम हो जाता है। इससे प्राकृतिक ड्रैग कमजोर होता है जो स्पेस जंक को हटाने के लिए जिम्मेदार है। इस कारण से अधिक मलबा इकठ्ठा होता सकता है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सदी के अंत तक, पृथ्वी की कक्षा का उपयोग करने योग्य 82% स्थान कम हो सकता है।
लगभग 12,000 उपग्रह पहले से ही कक्षा में हैं, इसलिए मलबे के कारण संचार, नेविगेशन और सुरक्षा पर भी खतरा हो सकता है। विशेषज्ञों ने कक्षीय मलबे का प्रबंधन करने के लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता पर जोर दिया है, ताकि सुनिश्चित किया जा सके कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए अंतरिक्ष सस्टेनेबल बना रहे।
अमेरिकी मौसम विभाग में छंटनी से पड़ेगा भारत पर असर
वैज्ञानिकों और नीति निर्माताओं को चिंता है कि अमेरिका के नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) में छंटनी का प्रभाव वैश्विक मौसम के पूर्वानुमान पर पड़ेगा। भारत में मानसून की भविष्यवाणियों और साइक्लॉन ट्रैकिंग पर भी इसका असर पड़ने की संभावना है। सैकड़ों एनओएए कर्मचारियों को हाल ही में बर्खास्त कर दिया गया, जिनमें कई मौसम विज्ञानी भी थे। इससे डेटा ऑब्ज़र्वेशन कम हो गया है।
विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि कमजोर ओशनिक मॉनिटरिंग से जलवायु भविष्यवाणियां और आपदा के पहले की तैयारियां प्रभावित हो सकती है। हिंद महासागर के ऑब्ज़र्वेशन नेटवर्क का आधा हिस्सा एनओएए समर्थित है। विशेषज्ञों का कहना है कि सटीक पूर्वानुमान और चेतावनी सुनिश्चित करने के लिए वैश्विक सहयोग की आवश्यकता है।
देश में पहली बार हुई डॉल्फिन की गणना, 28 नदियों में मिलीं 6,327 डॉल्फिन मछलियां
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 7वीं नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्डलाइफ (एनबीडब्ल्यूएल) की बैठक में भारत की पहली रिवराईन डॉल्फिन एस्टिमेशन रिपोर्ट जारी की, जिसके अनुसार देश के आठ राज्यों की 28 नदियों में 6,327 डॉल्फ़िन होने का अनुमान है। डॉल्फ़िन की सबसे अधिक संख्या उत्तर प्रदेश में पाई गई, उसके बाद बिहार, फिर पश्चिम बंगाल और फिर असम में। मोदी ने डॉल्फिन संरक्षण में स्थानीय सामुदायिक भागीदारी की आवश्यकता पर जोर दिया और छात्रों के लिए एक्सपोज़र विज़िट का सुझाव दिया।
प्रोजेक्ट डॉल्फिन की रिपोर्ट में नदियों के गहरे क्षेत्रों की सुरक्षा करने का सुझाव दिया गया है, जहां डॉल्फ़िन मछलियां रहती हैं। डॉल्फिन मछलियों को जीवित रहने के लिए शांत पानी की जरूरत होती है इसलिए वह गहराई में रहती हैं। रिपोर्ट में हैबिटैट के नुकसान को रोकने और उनके दीर्घकालिक अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए नदी के प्राकृतिक प्रवाह को बनाए रखने की आवश्यकता पर भी जोर दिया गया है।
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