प्राकृतिक संक्रमण और व्यापक टीकाकरण की वजह से भारत में स्थिति चीन से बहुत भिन्न है। Photo: pixabay.com

कोरोना संकट: ‘चीन के हालात से भारत को डरने की ज़रूरत नहीं’

चीन में कोविड-19 की जो लहर चली है उससे भारत में भी यह शंका पैदा हुई है कि क्या यहां कोरोना की चौथी लहर आ सकती है? इसे लेकर सरकार के स्तर पर और राज्यों में भी एडवाइजरी जारी की जा रही है।

महामारी विशेषज्ञ डॉ चंद्रकांत लहारिया का कहना है कि कोविड की किसी नई लहर को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता, लेकिन तमाम पहलुओं के अध्ययन से पता चलता है कि चीन के हालात को देखते हुए भारत में उसी तरह के संकट की कोई संभावना नहीं है और न ही इस कारण से डरने की ज़रूरत है।  

कार्बनकॉपी के हृदयेश जोशी ने डॉ लहारिया से बातचीत की।

चीन में कोविड की नई लहर के बाद अब भारत में इसका कितना ख़तरा देखते हैं?  

वैश्विक महामारी की स्थिति में जब कुछ समय निकल जाता है, जैसे दो-तीन साल, फिर किसी देश में क्या होगा यह उस देश के संदर्भ और परिस्थिति पर काफी कुछ निर्भर करता है। जब महामारी की शुरुआत हुई थी तो सारे देशों में संदर्भ एक समान था, अर्थात किसी भी देश में वायरस  के प्रति लोगों में प्रतिरोधक क्षमता नहीं थी, वैक्सीन नहीं थी, जाहिर तौर पर किसी को प्राकृतिक संक्रमण नहीं हुआ था और वायरस सबके लिए समान रूप से खतरनाक था।  

भारत के लिए कहा जा सकता है कि पिछले पांच-छह महीने में यहां कोविड-19 की जो बीमारी है वह एंडेमिक हो चुकी है और अब हमें उतनी अधिक चिंता करने की जरूरत नहीं है जितनी पहले थी।

लेकिन तीन साल बाद परिस्थिति हर देश में अलग हो चुकी है। भारत में अगर देखें तो तीन बड़ी लहरों के बाद सभी लोगों को संक्रमण हो चुका है, टीकाकरण का कवरेज बहुत अच्छा है, खासतौर से प्राकृतिक संक्रमण के बाद टीकाकरण हुआ है जिससे हाइब्रिड इम्युनिटी आई है।  

तो भारत की परिस्थिति बाकी दुनिया से पूरी तरह अलग है। चीन में इसके विपरीत हालात हैं। वहां प्राकृतिक संक्रमण बहुत कम हुआ है। टीकाकरण हुआ जरूर है लेकिन जो हाइ रिस्क आबादी है उसमें टीकाकरण कम हुआ है। साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि जो चीन में अभी संक्रमण फैल रहा है वह ओमीक्रॉन की एक सब-लीनिएज बीएफ.7 की वजह से फैल रहा है। यह सब-लीनिएज सारी दुनिया में करीब एक साल से है। जनवरी 2022 में बीएफ.7 को फ्रांस में पहचाना गया उसके बाद से यह करीब सौ देशों में पाया जा चुका है।

भारत में इसे सबसे पहले अक्टूबर में डिटेक्ट किया गया था और अगर यह सब-लीनिएज बहुत ज्यादा संक्रामक होता तो अब तक यह पूरी दुनिया पर हावी हो चुका होता, जो कि नहीं हुआ। चीन में यह इसलिए फैल रहा है क्योंकि ज्यादातर युवा आबादी को प्राकृतिक संक्रमण नहीं हुआ है।

तो इन सब बातों को अगर साथ रख कर देखें तो भारत में हम काफी आश्वस्त रह सकते हैं, चिंता करने की जरूरत नहीं है। हां, जो हाई-रिस्क पापुलेशन है या जिनको टीका नहीं लगा उनको थोड़ी सावधानी बरतने की जरुरत है। लेकिन यह सोचने का कोई कारण नहीं है कि चीन में चल रही लहर की वजह से भारत में एक नई लहर आ सकती है।  

लगभग तीन साल का वक्फा हो गया जब दुनिया पर महामारी ने हमला किया था। भारत में भी पहला केस लगभग इसी वक्त आया था टीकाकरण कार्यक्रम शुरू हुए डेढ़ साल से ज्यादा का वक्त हो चुका है। आज की स्थिति का आकलन कैसे करेंगे?  

कोविड-19 की जहां तक बात आती है, परिस्थितियां काफी सुधरी हैं, और अच्छे के लिए बदलाव आया है। तीन साल पहले, या कहें तो मार्च 2020 की शुरुआत में जब भारत में चौथा केस आया था, 30 जनवरी 2020 को भारत में पहला केस आया था, तब से लेकर अब तक परिस्थितियां बदल चुकी हैं। 

सबसे महत्वपूर्ण बात मैं कहना चाहूंगा कि अब भले ही भारत में कोविड-19 का जो वायरस है SARS-Cov 2 उसका संक्रमण हो रहा है, लेकिन उसका जो क्लीनिकल इम्पैक्ट है वो घटता जा रहा है, अर्थात लोगों को इन्फेक्शन होता है लेकिन उसकी वजह से गंभीर बीमारी होने की संभावना बहुत कम है। और हम देख भी रहे हैं कि लोगों को अब तो कोविड-19 की मध्यम दर्जे या गंभीर बीमारी नहीं होती जिसके वजह से अस्पताल जाना पड़े। तो परिस्थिति सुधरी है।

महामारियों के क्षेत्र में अगर ऐसा होता है कि इन्फेक्शन हो लेकिन बीमारी न हो तो उस समय को हम कहते हैं कि अब बीमारी एंडेमिक हो गई है, अर्थात संक्रमण भले ही है, बीमारी नहीं है। 

भारत के लिए कहा जा सकता है कि पिछले पांच-छह महीने में यहां कोविड-19 की जो बीमारी है वह एंडेमिक हो चुकी है और अब हमें उतनी अधिक चिंता करने की जरूरत नहीं है जितनी पहले थी।

इसकी वजह क्या है? 

इसकी वजह यह है कि पिछले दो-ढाई साल में लगभग अधिकतम आबादी को संक्रमण हो चुका है, और नेचुरल इन्फेक्शन के बाद व्यक्ति को संक्रमण तो हो सकता है लेकिन वह बीमारी से सुरक्षित हो जाता है। 

साथ ही भारत के लिए बड़े गर्व की बात है कि करीब 97 फीसदी वयस्क आबादी को कम से कम एक टीका लग चुका है और 90 फीसदी से अधिक आबादी को दोनों टीके लग चुके हैं और टीके गंभीर बीमारी से बचाने में काफी प्रभावकारी होते हैं।

तो इन दोनों परिस्थितियों में मैं कहूंगा कि अब हम काफी हद तक निश्चिंत हो सकते हैं कि बीमारी का प्रकोप और प्रभाव कम हो गया है। 

पिछले कुछ वक्त में बहुत आकस्मिक मौतों के मामले सामने आए हैं, और क्योंकि आजकल मीडिया बूम है और उनकी रिपोर्टिंग भी हो रही है तो हमें पता भी चल रहा है। कई लोग जांच की मांग कर रहे हैं। क्या इन अचानक मौतों के पीछे कोरोना का आफ्टर-इफ़ेक्ट है या वैक्सीन का प्रभाव हो सकता है? 

आपने बहुत प्रासंगिक मुद्दा उठाया है। मैं तीन भागों में इसके बारे में बात करूंगा।  

पहली बात तो जो दिल से संबंधित बीमारियों की हम काफी चर्चा सुन रहे हैं। दूसरा लोग पूछ रहे हैं कि क्या यह कोविड की वजह से हो रहा है और तीसरा क्या यह वैक्सीन की वजह से हो रहा है?

तो चलिए पहले बात करते हैं दिल के दौरे पड़ने से लोगों की मृत्यु के बारे में, खासतौर से यंग एज के लोगों की जो मृत्यु हो रही है।

सारी दुनिया में कोविड से पहले भी हृदय से संबंधित बीमारियों से, खासतौर से एक्सरसाइज के दौरान, मृत्यु की खबरें आती थी, लेकिन उनको नोटिस नहीं किया जाता था। 

एक्सरसाइज करते समय या कोई गंभीर हैवी फिजिकल इंटेंसिटी एक्सरसाइज करने पर लोगों की मृत्य होने की संभावना रहती है। 2007 में अमेरिकन हार्ट एसोसिएशन ने एक आर्टिकल में एक्सरसाइज के ‘डोज़ रिस्पांस कर्व’ पर चर्चा की थी, यानि कि क्या बहुत ज्यादा एक्सरसाइज करें तो उसी अनुपात में बहुत ज्यादा फायदा होगा? हार्ट स्पेशलिस्टऔर रिसर्चर कहते हैं कि एक्सरसाइज का डोज़ रिस्पांस कर्व, अंग्रेजी के ‘जे’ अक्षर को यदि उल्टा कर दें तो उस शेप का होता है। यानि यह ग्राफ शुरू में ऊपर जाता है, फिर समतल हो जाता है और फिर नीचे गिरना शुरू होता है।

इसका मतलब हुआ कि अगर हम एक्सरसाइज बढाते जाएं, और बहुत हाई इंटेंसिटी में करें तो एक निश्चित सीमा तक तो फायदा होता है, लेकिन फिर उसके बाद फायदा नहीं होता। लेकिन अगर बहुत ज्यादा हाई इंटेंसिटी करेंगे तो उसका नुकसान भी हो सकता है। 

कोई व्यक्ति जिसने कभी एक्सरसाइज नहीं की, अगर वो एकदम हैवी इंटेंसिटी एक्ससाइज करता है तो उसको हार्ट अटैक और अन्य दिल संबंधी दिक्कतें हो सकती है और मृत्यु भी हो सकती है। यह कोविड के बहुत पहले से जाना जाता है।

अब मैं संक्षेप में इसके वैज्ञानिक कारणों पर बात करता हूं। क्या होता है कि अधिकतर लोग जो फिजिकली इनएक्टिव रहते हैं, तो उनकी नसों में वसा का जमाव हो जाता है, जिसे हम हार्ट ब्लॉकेज कहते हैं। आमतौर पर तो वो साधारण जिंदगी जीते रहते हैं, लेकिन जब वह एक्सरसाइज या हाई इंटेंसिटी एक्टिविटी में जाते हैं तो उनके दिल में अधिक ब्लड सर्कुलेशन की जरूरत होती है। लेकिन जो दिल की धमनियां कमजोर पड़ गई है वह पर्याप्त सप्लाई नहीं कर पाती। 

और उसकी वजह से वो अचानक से कंस्ट्रिक्ट हो सकती हैं या रप्चर हो सकता है और उस वजह से लोगों की मृत्यु होती है। ऐसा कोविड से पहले भी होता था।  

याद रखना है कि जो लोग रेगुलर एक्सरसाइज करते रहते हैं, उनको कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन जो पहले फिजिकली इनएक्टिव रहते हैं और अगर वह हाई इंटेंसिटी में जाते हैं, तो उनको खतरा हो सकता है।

अब बात आती है कि क्या कोविड की वजह से ऐसा हुआ? तो फिलहाल इसका कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है कि कोविड की वजह से ऐसा हो रहा है।

दरसल बात यह है कि आज के समय में अगर कोई भी व्यक्ति हम देखेंगे तो हर व्यक्ति को कोविड का इन्फेक्शन हो चुका है। तो जिसको भी अगर इस तरह की दिक्कत हो रही है, उसे कोविड इन्फेक्शन तो हो ही चुका होगा। सिर्फ इस आधार पर यह कह देना कि कोविड की वजह से ऐसा हो रहा है, यह थोड़ा मुश्किल है। जैसा मैं पहले भी कह चुका हूं कि कोविड से पहले भी ऐसा होता था, कोविड के बाद भी होता है। 

संभवतः हमारी नजर उस पर अधिक जा रही है, और इसी वजह से यह खबरें नोटिस की जा रही हैं।

डॉ चंद्रकांत लहारिया

तो आप कोविड और टीकाकरण दोनों को ही इन घटनाओं के कारणों के रूप में ख़ारिज कर रहे हैं। आप कह रहे हैं कि जिसको कोविड हुआ हो वह भी सामान्य जिंदगी जी सकता है। उसको इस तरह के ब्रेन स्ट्रोक या हार्ट स्ट्रोक से घबराने की जरूरत नहीं है, और इसको टीकाकरण से भी जोड़ने की जरूरत नहीं है?

बिल्कुल, संक्षेप में मैं यही कहूंगा कि न तो इसे कोविड से जोड़ा जा सकता है, न टीकाकरण से जोड़ा जा सकता है।

सिर्फ बातों के आधार पर हम नहीं कह सकते कि इस व्यक्ति को कोविड हुआ था और उसके बाद उसकी मृत्यु हो गई, सिर्फ इसी आधार पर ऐसा नहीं कहा जा सकता।

अगर हमें इसे निश्चित रूप से समझना है तो इसमें जिन लोगों को कोविड कन्फर्म हुआ था और जिनको नहीं हुआ था उनमें इन घटनाओं की दर देखनी पड़ेगी। 

साथ ही जैसा मैं पहले भी कह रहा था कि कोविड से पहले भी ऐसा होता था और कोविड के बाद भी हो रहा है। दुनिया के कई देश है जहां पर इस तरह की रजिस्ट्री होती है, पॉपुलेशन रजिस्ट्री जहां पर हर मृत्यु का प्रॉपर पंजीकरण किया जाता है और उसका रिकॉर्ड रखा जाता है कि मृत्यु किस वजह से हुई है। 

तो उन रिकार्ड्स में भी देखा जा रहा है और अभी तक इस बात का कोई भी साक्ष्य नहीं मिला है कि कोविड का संक्रमण होने से या कोविड का टीकाकरण होने से दिल के दौरे या इस तरह की घटनाएं हो रही हैं।

अंत में एक चीज और मैं कहूंगा कि, हां कुछ वैक्सीन्स हैं जैसे एमआरएनए-बेस्ड वैक्सीन है, वह यंग एज में और यंग एज में भी 30 साल से कम उम्र के लोगों में मायोकार्डिटिस, हार्ट में इन्फ्लेमेशन या उस तरह की कुछ दिक्कतें करती हैं, लेकिन बहुत कम मामलों में। लेकिन उन वैक्सीन्स से भी हार्ट अटैक या मृत्यु का कोई संबंध नहीं देखा गया है।

तो ऐसा कोई प्रमाण नहीं है फिलहाल यह कहने के लिए कि कोविड से या टीकाकरण से हार्ट अटैक या हार्ट संबंधी दिक्कतें हो रही हैं।

आखिरी सवाल मेरा यह है कि जिस तरह से हम बात कर रहे हैं या रिसर्च पेपर्स देखते हैं कि जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग का असर और पर्यावण के विनाश का असर भी कई बीमारियों को पैदा कर रहा है। जैसे कहीं पर अगर बहुत गर्मी होने से मच्छरों के पैदा होने की अनुकूल स्थितियां हो रही हैं तो वहां मलेरिया और डेंगू जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं। तो इसको आप एक महामारी विशेषज्ञ के तौर पर कैसे देखते हैं कि ज़ूनोटिक समस्याएं पैदा ना हों, जंगलों को बचाया जाए। तो इसपर आपको थोड़ा सुनना चाहेंगे कि कैसे हम कैसे पर्यावरण को महफूज रख कर स्थितियों को संभाल सकते हैं।

जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण का नुकसान और बीमारियों के तेजी से फैलने में एक सीधा संबंध है और यह संबंध काफी लंबे समय से स्टडी किया जा चुका है और वैज्ञानिक समूह में इसपर पूरी तरह सहमति है। 

1940 से 2004 तक करीब 300 बीमारियां मनुष्यों में फैली थीं। उनमें से करीब 200 बीमारियां सिर्फ जंगलों और जानवरों से ही मनुष्य में आईं थीं। अब इसको स्टडी भी किया जा चुका है कि ऐसा क्यों हो रहा है। इसके करीब तीन चार मुख्य कारण हैं। 

अगर हमें महामारियों और बीमारियों के प्रसार को रोकना है तो हमें पर्यावरण को बचाना होगा, ग्लोबल वार्मिंग को रोकना होगा। वनों की कटाई को रोकना होगा।

एक तो क्लाइमेट चेंज की वजह से, जैसे आपने भी बात की, कि अगर एक डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ता है तो कई सारे पैथोजन जो एक विशेष वातावरण में  सर्वाइव नहीं कर सकते थे वह दूसरे वातावरण में सर्वाइव कर सकते हैं, और कई बीमारियां मनुष्यों को हो सकती हैं।

दूसरा है डीफॉरेस्टेशन। जंगलों में जो मानव अतिक्रमण हो रहा है उसकी वजह से काफी सारे वाइरस और पैथोजन जो जंगलों में रहते थे वह मनुष्यों के संपर्क में आ रहे हैं और उनसे बीमारियां फैलने की संभावना बढ़ रही है।

तीसरा है सिंगल एनिमल बैटरी फॉर्मिंग। आपको याद होगा कि 2009 में जो एचवनएनवन स्वाइन फ्लू महामारी आई थी वह मैक्सिको से शुरू हुई थी। इसके शुरू होने की जगह से करीब आठ मील दूर एक पोल्ट्री फार्म था और काफी बड़े एरिया में फैला हुआ था और माना जाता है कि शायद वायरस वहां से आया।

उसी तरह हम जानते हैं कि कोविड-19 के मामले में जैसे चीन में वुहान के वेट मार्केट की बात होती है। कुछ लोगों को ऐसे दुर्लभ मीट खाने की आदत होती है।     

और अंत में आता है एंटी माइक्रोबियल रेसिस्टेंस। ज्यादा से ज्यादा मात्रा में मीट के उत्पादन के लिए जो एन्टीबायोटिक जानवरों को दिए जाते हैं वह फ़ूड चेन के ज़रिए मनुष्यों में प्रवेश कर जाते हैं। 

तो बहुत सारे कारण हैं कि यह बीमारियां तेजी से फैल रही हैं। 

विश्वप्रसिद्ध पत्रिका नेचर में 28 अप्रैल 2022 को एक आर्टिकल आया था, जिसमें कहा गया था कि अगर अभी से 2070 के बीच में दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया, तो करीब 10 से 15,000 पैथोजन जो अब तक जंगलों में रहते थे वह इंसानों के संपर्क में आएंगे और बीमारियों के फैलने की संभावना अधिक तेज हो जाएगी। 

शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसा होने पर सबसे अधिक नुकसान एशिया और अफ्रीका के देशों को होगा क्यूंकि वहां पर चुनौतियां अधिक हैं।  

तो संक्षेप में मैं कहूंगा कि अब तक उपलब्ध आकड़े और साथ में जो अनुमान हैं, वैज्ञानिक अध्ययन हैं वह स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अगर हमें महामारियों और बीमारियों के प्रसार को रोकना है तो हमें पर्यावरण को बचाना होगा, ग्लोबल वार्मिंग को रोकना होगा। वनों की कटाई को रोकना होगा…

…और अपनी खान-पान की आदतों को भी हमें बदलना होगा?

मैं लोगों से अक्सर पूछता हूं कि क्यों अफ्रीका जैसे देशों से बहुत सी ऐसी बीमारियां निकलती हैं? क्योंकि अफ्रीका एक वनाच्छादित लेकिन प्राकृतिक संसाधनों से भरा हुआ देश है। दुनिया का 60 प्रतिशत लिथियम डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कांगो से निकलता है।  

तो जंगलों का अनियोजित खनन और कटाई से ऐसे वायरस आते हैं… हमारी जो चाह है नए खनिज पदार्थों की, उसके चलते हम वायरस और पैथोजेन्स का शिकार होते जा रहे हैं। तो हमें सुनियोजित विकास के लिए काम करना है, लेकिन साथ में हमें सुनिश्चित करना होगा कि पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे। हमें सुनिश्चित करना होगा कि जंगलों को नुकसान न पहुंचे, ग्लोबल वॉर्मिंग ना हो। 

सिर्फ तकनीकी विकास के ज़रिए महामारियों से नहीं लड़ा जा सकता है। हमें महामारियों की रोकथाम के लिए पर्यावरण को बचाना होगा।

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