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कोल माइनिंग: अंधाधुंध दोहन के बाद खनन के लिये चाहिये अधिक वन क्षेत्र!

छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य क्षेत्र में एक कोल ब्लॉक ने स्वीकृत समयरेखा से सात साल पहले अपने भंडार को समाप्त कर दिया है यानी यहां मौजूद सारा कोयला निकाल लिया है। अब कंपनी ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा इसे दी गई वन मंजूरी के संशोधन के लिए आवेदन किया है।

अंग्रेज़ी अख़बार हिन्दुस्तान टाइम्स में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक छत्तीसगढ़ के पारसा पूर्व और केते बसान (PEKB) कोयला ब्लॉक में खनन के पहले चरण के लिए फॉरेस्ट क्लीयरेंस मार्च 2012 में 15 साल के लिए दी गई थी लेकिन करीब 9 साल में ही इस कोयला भंडार से सारा कोल निकाल लिया गया। इसमें 762 हेक्टेयर वन क्षेत्र शामिल था ।

कोयले खदान के मालिक राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (RVUNL) के एक पत्र के मुताबिक 10 अगस्त 2018 में कोयला मंत्रालय व पर्यावरण मंजूरी के अनुसार खदान की उत्पादन क्षमता 10 MTPA (मिलियन टन प्रति वर्ष) से बढ़ाकर 15 MTPA कर दी गई थी।  इस पत्र में RVUNL ने  वन मंत्रालय से वन मंजूरी में संशोधन के लिए अनुरोध किया  है।

इस कदम को पर्यावरणविदों द्वारा व्यापक विरोध का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि हसदेव अरण्य क्षेत्र मध्य भारत में बहुत घने जंगलों में से एक है। पर्यावऱण के जानकारों का कहना है सस्टेनेबल डेवलपमेंट का मतबलब ही है कि किसी भी घने जंगल वाले या पर्यावरण के लिहाज से महत्वपूर्ण इलाकों में संसाधनों का दोहन धीरे धीरे किया जाये न कि अंधाधुंध तरीके से। कोयला मामलों के जानकार और वकील सुदीप श्रीवास्तव का कहना है कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने अपने 2014 के फैसले में स्पष्ट गाइडलाइन दी हैं और इस तरह का दोहन इन नियमों की अनदेखी है।   यह जंगल 170,000 हेक्टेयर में फैला हुआ है और इसमें  22 कोयला ब्लॉक हैं। साल 2011 में आई पर्यावरण मंत्रालय और वन सलाहकार समिति, वन डायवर्जन की मसौदा रिपोर्ट के अनुसार PEKB खनन के लिए एक “नो-गो” क्षेत्र था।

हालाँकि, पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने इस परियोजना पर पुनर्विचार किया गया था और उनका कहना था की कोयला ब्लॉक स्पष्ट रूप से “फ्रिंज” (यानी जंगल के बाहर) में हैं न कि जैव विविधता से समृद्ध हसदेव अरण्य वन क्षेत्र में।

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