उत्तरकाशी के एक सुदूर गांव को जोड़ने के लिये लकड़ी के तने से बना कामचलाऊ पुल, ऐसे पुलों से फिसल कर कई बार लोगों की मौत हो जाती है। तस्वीर– हृदयेश जोशी

उत्तराखंड: दरक रहे हैं हिमालय के सैकड़ों गांव

  • हिमालयी गांवों में रहना ख़तरनाक होता जा रहा है और आपदाओं की बढ़ती संख्या और मारक क्षमता के कारण कई गांव रहने लायक नहीं रहे।
  • उत्तराखंड के चमोली में ऐतिहासिक रैणी गांव को सरकार द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ टीम ने असुरक्षित घोषित कर दिया है।
  • इन गांवों से लोगों को हटाकर दूसरी जगह बसाना एक बड़ी समस्या है क्योंकि पहाड़ों में बसावट के लिये ज़मीन का अभाव है।

उत्तराखंड के उत्तरकाशी से करीब बीस किलोमीटर दूर कठिन पहाड़ी पर बसा है एक छोटा सा गांव: ढासड़ा। कोई 200 लोगों की आबादी वाला ढासड़ा पिछले कई सालों से लगातार दरक रहा है। हालात ऐसे कि मॉनसून या खराब मौसम में यहां लोग रात को अपने घरों में नहीं सोते बल्कि गांव से कुछ किलोमीटर ऊपर पहाड़ी पर छानियां (प्लास्टिक के अस्थायी टैंट) लगा लेते हैं क्योंकि पहाड़ से बड़े-बड़े पत्थरों के गिरने और भूस्खलन का डर हमेशा बना रहता है। इसलिये जब लोग जान बचाकर ऊपर पहाड़ी पर भागते हैं तो रात के वक्त गांव में बहुत बीमार या बुज़ुर्ग ही रह जाते हैं क्योंकि वह पहाड़ पर नहीं चढ़ सकते।

असुरक्षित गांवों की लम्बी लिस्ट

उत्तराखंड में ढासड़ा अकेला ऐसा गांव नहीं है। बल्कि यहां सैकड़ों ऐसे असुरक्षित गांव हैं जहां से  लोगों को हटाया जाना है और ये बात सरकार खुद मानती है। ढासड़ा से कुछ दूर स्थिति भंकोली गांव की रहने वाली मनीता रावत कहती हैं कि यहां कई गांवों में खौफ है। भंगोली के ऊपर पहाड़ काट कर सड़क निकाली हुई है लेकिन अवैज्ञानिक तरीके से हुये निर्माण का खमियाज़ा गांव के लोगों को भुगतना पड़ रहा है।

उत्तरकाशी ज़िले का धांसड़ा गांव उन संकटग्रस्त गांवों में है जहां से लोगों को हटाने की सलाह विशेषज्ञ दे चुके हैं। तस्वीर – मनीता रावत
उत्तरकाशी ज़िले का धांसड़ा गांव उन संकटग्रस्त गांवों में है जहां से लोगों को हटाने की सलाह विशेषज्ञ दे चुके हैं। तस्वीर – मनीता रावत

मनीता ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “ऊपर बन रही सड़क से सारा पानी बहकर हमारे घरों में आता है। पत्थर, मिट्टी और गाद यहां जमा हो जाता  है सो अलग। गांव को लोगों को अपनी मदद खुद ही करनी पड़ती है। हमें अपने रास्ते भी खुद बनाने पड़ते हैं। यहां कोई सरकार नहीं है और ठेकेदार किसी की नहीं सुनते।”

सामाजिक कार्यकर्ता चारु तिवारी बताते हैं, “कुछ साल पहले सरकार ने उत्तराखंड में 376 संकटग्रस्त गांवों की लिस्ट बनाई जहां से लोगों को तुरंत हटाया जाना चाहिये लेकिन असल में इन गांवों की संख्या कहीं अधिक है।”

सरकारी अधिकारी मानते हैं कि दो दर्जन से अधिक ‘असुरक्षित’ गांव तो चमोली ज़िले में ही हैं जिन पर आपदा का ख़तरा बना रहता है। यहां इस साल फरवरी में ऋषिगंगा नदी में बाढ़ आई तो इसके किनारे बसे रैणी – जो पहले ही असुरक्षित माना जाता था –  में लोग गांव छोड़कर ऊपर पहाड़ों पर चले गये। अब रैणी को सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ कमेटी ने असुरक्षित घोषित कर यहां के निवासियों को किसी और जगह बसाने की सिफारिश की है।

इसी तरह चमोली का ही चाईं गांव भी संकटग्रस्त है और असुरक्षित माना जाता है। यहां हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के लिये की गई ब्लास्टिंग और टनलिंग (सुरंगें खोदना) से गांव दरकने लगे हैं और लोग असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। इस गांव में कभी रसीले फलों की भरमार थी जो फसल अब पानी की कमी के कारण नहीं होती। अहमदाबाद स्थित फिज़िकल रिसर्च लेबोरेट्री में रह चुके भू-विज्ञानी नवीन जुयाल कहते हैं कि निर्माण कार्य के लिये पहाड़ों पर किये जा रहे विस्फोटों और अनियंत्रित तोड़ फोड़ से यहां की हाइड्रोलॉजी पर असर पड़ रहा है और जल-स्रोत सूख रहे हैं।

चमोली ज़िले में जोशीमठ के निवासी और संवेदनशील इलाकों में बड़ी विकास परियोजनाओं के खिलाफ अदालत में लड़ रहे राजनीतिक कार्यकर्ता अतुल सती कहते हैं, “जोशीमठ ब्लॉक में ही 2007 से अब तक 17 गांव विस्थापन की बाट जोह रहे हैं लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो सका है।”

साल 2013 में केदारनाथ आपदा में 6000 से अधिक लोग मारे गये थे और कई गांव तबाह हुये। रुद्रप्रयाग ज़िले में (जहां केदारनाथ धाम स्थित है) भी बहुत से गांव ऐसे हैं जहां रहना ख़तरे से खाली नहीं है लेकिन लोग मजबूरी में अब भी वहां टिके हैं।

हिमालय में आपदाओं की बढ़ती मार

बाढ़ आना, बादल फटना और भूस्खलन तो हिमालयी क्षेत्र में आम है लेकिन इनकी मारक क्षमता और ऐसी घटनाओं की संख्या अब लगातार बढ़ रही है। जहां एक ओर असुरक्षित और बेतरतीब निर्माण को लेकर कई विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं तो कई जानकार मानते हैं कि जंगलों के कटने और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव का भी असर है। कई बार आपदाओं में छोटे बच्चे भी शिकार हो रहे हैं और अक्सर मीडिया में इसकी रिपोर्टिंग भी नहीं होती।  

रुद्रप्रयाग ज़िले के उखीमठ से पास चुन्नी-मंगोली गांवों में 2012 में भूस्खलन से 28 लोग मरे। तस्वीर – हृदयेश जोशी
रुद्रप्रयाग ज़िले के उखीमठ से पास चुन्नी-मंगोली गांवों में 2012 में भूस्खलन से 28 लोग मरे। तस्वीर – हृदयेश जोशी

ग्रामीण बताते हैं कि 2013 की केदारनाथ आपदा के बारे में अख़बारों में खूब लिखा गया और टीवी चैनलों ने उसे कवर किया लेकिन इस आपदा के एक साल पहले यानी 2012 में भी रुद्रप्रयाग ज़िले के ही उखीमठ में भूस्खलन से 28 लोग मरे थे जिसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया। ये हादसा चुन्नी-मंगोली नाम के गांव में हुआ जहां उस घटना के बाद वहां लोग आज भी दहशत में हैं। इसी तरह साल 2010 में बागेश्वर के सुमगढ़ गांव में एक प्राइमरी स्कूल के 18 बच्चे बादल फटने के बाद हुये भूस्खलन में दब कर मर गये। मरने वाले सभी बच्चों की उम्र 10 साल से कम थी।

स्थानीय दिलीप सिंह कहते हैं, “ऐसी घटनाओं के बाद स्थानीय नेता गांवों में आते हैं और सांत्वना देते हैं। सरकार और प्रशासन द्वारा कुछ मुआवज़े की घोषणा भी होती है लेकिन कभी ऐसी समग्र नीति नहीं बनती जो संकटासन्न गांवों को राहत दे सके या उन्हें सुरक्षित जगहों में ले जाया जा सके।”

भू-विज्ञानियों की चेतावनी, ऐतिहासिक रैणी के पुनर्वास की सिफारिश

फरवरी में चमोली में आई बाढ़ के बाद ज़िला प्रशासन ने  आपदा प्रबंधन विभाग से रैणी क्षेत्र का भूगर्भीय और जियो-टैक्निकल सर्वे करने को कहा। इस सर्वे के लिये उत्तराखंड डिजास्टर रिकवरी इनीशिएटिव के तीन जानकार वेंकटेश्वरलु (जियोटेक एक्सपर्ट), जीवीआरजी आचार्युलू (भूगर्भविज्ञानी) और मनीष सेमवाल (स्लोप स्टेबिलाइजेशन एक्सपर्ट) शामिल थे। महत्वपूर्ण है कि रैणी 1970 के दशक में उत्तराखंड के ऐतिहासिक वृक्ष बचाओ आंदोलन चिपको का गवाह रहा जिसमें महिलाओं की अग्रणी भूमिका थी लेकिन इन विशेषज्ञों ने सर्वे के बाद सरकार को जो रिपोर्ट दी है उसमें साफ कहा है, “रैणी गांव अपने मौजूदा हाल में काफी असुरक्षित है और इसके स्लोप स्टेबिलाइजेशन (ढलानों को सुरक्षित बनाने) की ज़रूरत है।”

चमोली ज़िले में ऋषिगंगा और धौलीगंगा के संगम पर बसे रैणी गांव को सरकार की विशेषज्ञ कमेटी ने असुरक्षित घोषित किया है। तस्वीर – हृदयेश जोशी
चमोली ज़िले में ऋषिगंगा और धौलीगंगा के संगम पर बसे रैणी गांव को सरकार की विशेषज्ञ कमेटी ने असुरक्षित घोषित किया है। तस्वीर – हृदयेश जोशी

रिपोर्ट में कहा है कि ऋषिगंगा और धौलीगंगा का संगम उस पहाड़ी के टो (बिल्कुल नीचे) पर है जिस पर रैणी गांव बसा है। रिपोर्ट चेतावनी देती है कि नदी का बहाव के कारण कमज़ोर पहाड़ का टो-इरोज़न (नदी के पानी से आधार का क्षरण) हो रहा है। इससे आने वाले दिनों में फिर आपदा आ सकती है। इसलिये या तो यहां के ढलानों को ठीक किया जाये या इस गांव को खाली कराया जाये।  

जानकारों ने नदी के बहाव को माइक्रोपाइलिंग टेक्नोलॉजी (छोटे-छोटे पत्थर लगाकर प्रवाह को काबू करना) से नियंत्रित करने और इस जगह कुछ मीटर की दूरी पर दो तीन चेक डैम बनाने की सलाह की है।  रिपोर्ट के आखिर में कहा गया है कि सरकार रैणी गांव के लोगों को कहीं दूसरी जगह बसाये। विशेषज्ञों ने इसके लिये आसपास कुछ जगहों की पहचान भी की है जहां पर विस्थापितों का पुनर्वास किया जा सकता है लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है।

कश्मीर से लेकर अरुणाचल तक सभी हिमालयी राज्य भूकम्प की दृष्टि से अति संवेदनशील ज़ोन में हैं। भूगर्भ विज्ञानी वाई पी सुंदरियाल और नवीन जुयाल समेत सात  जानकारों ने 2015 में किये गये शोध में साफ कहा है, “हिमालयी क्षेत्र और खासतौर से उत्तराखंड में मौजूदा विकास नीति और नदियों पर विराट जलविद्युत क्षमता के दोहन का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिये।”

बसावट के लिये ज़मीन कहां?

उत्तराखंड में समस्या ये है कि असुरक्षित इलाकों से हटाकर लोगों के पुनर्वास के लिये बहुत ज़मीन नहीं है। यह भी एक सच है कि किसी गांव के लोग विस्थापित को अपने यहां बसाना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे पहले से उपलब्ध सीमित संसाधनों पर दबाव बढ़ेगा। चमोली की ज़िलाधिकारी स्वाति भदौरिया ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया, “रैणी गांव के पास अपनी कोई सुरक्षित ज़मीन नहीं है इसलिये वहां गांव वालों को नहीं बसाया जा सकता। पड़ोस के जिस गांव सुभाईं में हम लोगों को बसाना चाहते हैं वहां के लोग अभी अपने गांव में इनके (रैणीवासियों के) पुनर्वास के लिये तैयार नहीं हैं। इस तरह की अड़चन पुनर्वास में आती ही है। हम पहले भी इस समस्या का सामना कर चुके हैं।”

हालांकि भदौरिया क हती हैं कि इससे पहले चमोली ज़िले में 13 गांवों का विस्थापन कराया गया है लेकिन यह बहुत आसान काम नहीं है। दूसरे अधिकारी कहते हैं कि ग्रामीण ज़मीन खरीदें और सरकार उनका पैसा दे दे यह एक विकल्प ज़रूर है लेकिन सवाल है कि अगर सुरक्षित ज़मीन उपलब्ध नहीं होगी तो ग्रामीण ज़मीन खरीदेंगे कहां।

एक पहलू ये भी है कि पलायन के कारण बहुत से गांव अभी खाली हो चुके हैं जिन्हें घोस्ट विलेज या भुतहा गांव कहा जाता है। उत्तराखंड सरकार के अपने आंकड़ों के मुताबिक कोई 11,00 गांव खाली हो चुके हैं यानी वहां या तो अब कोई नहीं रहता या इक्का-दुक्का परिवार ही बचे हैं।

पहाड़ों पर बसावट के लिये सुरक्षित रहने लायक ज़मीन का अभाव है। कुछ सामाजिक कार्यकर्ता पलायन से खाली हो चुके ऐसे ‘भुतहा’ गांवों में लोगों को बसाने का सुझाव दे रहे हैं। तस्वीर– हृदयेश जोशी
पहाड़ों पर बसावट के लिये सुरक्षित रहने लायक ज़मीन का अभाव है। कुछ सामाजिक कार्यकर्ता पलायन से खाली हो चुके ऐसे ‘भुतहा’ गांवों में लोगों को बसाने का सुझाव दे रहे हैं। तस्वीर– हृदयेश जोशी

कुछ सामाजिक कार्यकर्ता इन निर्जन हो चुके गांवों में लोगों को बसाने की बात करते हैं। लेकिन इसमें कई व्यवहारिक और क़ानूनी अड़चनें हैं। मोंगाबे-हिन्दी से बात करते हुए चमोली के जिला अधिकारी स्वाती भदौरिया कहती हैं, “भुतहा गांवों में लोग नहीं हैं इसका मतलब किसी को भी वहीं ले जाकर कैसे बसाया जा सकता है। जिन लोगों की संपत्ति वहां है सरकार उसे कैसे अधिग्रहित कर सकती है। उन्होंने गांव छोड़ा है संपत्ति पर मालिकाना हक नहीं।”

चारु तिवारी इससे जुड़ी एक दूसरी बात कहते  हैं। ज़मीन और विस्थापन की समस्या विकास योजनाओं और वन संरक्षण की नीति से जुड़ी हुई है। वह याद दिलाते हैं कि भूस्खलन और आपदाओं के कारण लगातार ज़मीन का क्षरण हो रहा है और सरकार के पास आज उपलब्ध ज़मीन का कोई प्रामाणिक रिकॉर्ड नहीं है।

तिवारी कहते हैं, “1958-64 के बीच आखिरी बार राज्य में ज़मीन की पैमाइश हुई। उसके बाद से पहाड़ में कोई पैमाइश नहीं हुई है। ऐसे में न्यायपूर्ण पुनर्वास कैसे कराया जा सकता है।”

ये स्टोरी मोंगाबे हिन्दी से साभार ली गई है।

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