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क़ानून लाते हैं कार्बन उत्सर्जन में कमी: शोध

किसी ने क्या ख़ूब कहा है कि नियम, कानून, और ताले – शरीफ़ों के लिए होते हैं। बुरी नियत वालों पर इनका कोई असर नहीं।

लेकिन बात अगर इस आब-ओ-हवा के लिए कानून की करें, तो फ़िज़ा कुछ अलग सी दिखती है। दरअसल बात ये है कि दुनिया में साइंस की सबसे मशहूर मैगज़ीन, नेचर, में हाल ही में एक रिसर्च छपी है जो कानून के मज़बूत हाथों का बुरी नियत वालों की कलाइयों पर असर का ज़िक्र करती है।

रिडक्शन इन ग्रीनहाउज़ गैस एमिशन फ्रॉम नेशनल क्लाइमेट लेजिस्लेशन नाम की इस रिपोर्ट की मानें तो दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए 1800 अलग-अलग कानून हैं और उनमें से इस रिपोर्ट के लिए 1092 कानूनों की तफ़सील से जांच की गयी। और इस जांच से सामने ये आया कि जलवायु परिवर्तन को रोकने वाले कानूनों का असर यक़ीनन हुआ है और उनकी मदद से उत्सर्जन में कमी दर्ज की गयी है।

इस रिपोर्ट को तैयार किया है शेख़ एम एस यू एस्कंदर और सैम फांकहउसेर ने। इनकी मानें तो जलवायु परिवर्तन के लिए बने कानून, शार्ट टर्म और लॉन्ग टर्म, दोनों ही सूरत में कारगर साबित हुए हैं। मतलब बात एमिशन इंटेंसिटी की हो, तो नए कानून न सिर्फ़ अपने लागू होने के तीन साल के भीतर इस इंटेंसिटी में कमी के लिए कारगर है, बल्कि लम्बे समय के लिए भी उत्सर्जन पर लगाम लगाने के लिए मुफ़ीद साबित होते हैं।

ये रिपोर्ट ख़ास है। ख़ास इसलिए क्योंकि पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन को लेकर शोर मचा हुआ है। और जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए, भारत समेत, दुनिया के लगभग सभी देशों ने वादा किया है कि वो कार्बन उत्सर्जन में कटौती करेंगे। लेकिन जो हालात हैं, उन्हें देख पर्यावरणविदों का मानना है कि पैरिस समझौते के टारगेट महज़ इन वादों से नहीं हासिल होंगे। विशेषज्ञ मानते हैं कि सरकारों को सख्त कानून बनाने होंगे और तब जा कर ये लक्ष्य हासिल हो पाएंगे।

नेचर मैगज़ीन में छपी इस रिपोर्ट से विशेषज्ञों की इस राय की तसदीक़ होती दिख रही है।

इस रिपोर्ट में बताया गया है कि 1996 से 2016 के बीच 133 देशों में लागू हुए जलवायु कानूनों की वजह से दुनिया के कुल ग्रीनहाउस गैस एमिशन में कमी आयी। अपनी इस रिपोर्ट में एस्कंदर और फांकहउसेर आगे बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन रोकने वाला हर नया कानून, लागू होने के तीन साल में, अगर जीडीपी की एक यूनिट के लिए देश के कुल एमिशन में 0.78 प्रतिशत की कमी लाते हैं तो वही कानून लम्बे अरसे में, मतलब तीन साल से ज़्यादा के समय में, अपने देश के कुल कार्बन उत्सर्जन में, जीडीपी की हर यूनिट के लिए, 1.79 प्रतिशत की कमी लाते हैं।

वाक़ई ये हौसला देने वाले नतीजे हैं, लेकिन क्या भारत में हम ऐसी कोई उम्मीद लगा सकते हैं?

फ़िलहाल तो ऐसा कुछ होता नहीं दिखता। अभी तो भारत में एन्वायर्नमेंट इम्पैक्ट असेसमेंट ड्राफ्ट का ही मुद्दा गर्मी बढ़ा रहा है। जलवायु परिवर्तन के लिए नया कारगर कानून तो दूर की कौड़ी लगता है।

सच कहा जाये तो भारत में तो अब तक कानून बनाने से बचने का ही रुख रहा है। तमाम सरकारों ने अब तक इस बेहद एहम मुद्दे को महज़ नीतियों के सहारे सँभालने की सोची है। वैसे भी भारत में नीतियों और मिशन वगैरह की कमी नहीं है। लेकिन जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए महज़ नीतियां नहीं काम आएंगी। इसके लिए ज़रूरी है क़ानून।

अब यहाँ कानून और नीति में फ़र्क समझना भी ज़रूरी है। इसको ऐसे समझिये कि नीति यह बताती है कि एक सरकारी मंत्रालय क्या हासिल करने की उम्मीद करता है और इसे हासिल करने के लिए वह किन तरीकों और सिद्धांतों का इस्तेमाल करेगा। दूसरे शब्दों में, नीतियां मंत्रालय के लक्ष्यों को बताता है। वहीँ कानून उन मानकों, प्रक्रियाओं, और सिद्धांतों को निर्धारित करता है जिनका पालन किया जाना चाहिए।

यहाँ बात अगर पेरिस समझौते की करें तो इसके तहत भारत इस बात पर राज़ी हुआ था कि वो कार्बन उत्सर्जन की रफ्तार 2030 तक 33 से 35 फीसदी कम करेगा। इसके साथ ही तीन बिलियन टन कार्बनडाईऑक्साइड उत्सर्जन के बराबर क्षेत्र को जंगल और पौधों से भरेगा।

इन सब वादों को पूरा करने के लिए, पर्यावरणविदों का मानना है कि, अगर सरकार जलवायु परिवर्तन को लेकर कानून बनाती तब ही कोई ख़ास नतीजे देखने को मिलेंगे। 

लेकिन सवाल ये उठता है कि आखिर ये कानून कारगर कैसे और क्यों साबित होते हैं? इस सवाल का जवाब नेचर जर्नल में छपी इस रिपोर्ट में तलाशें तो पता चलता है कि ब्यूरोक्रेसी के आदेशों और नीतियों से ज़्यादा, संसद में लिए गए फैसले या वहां बनाए गए कानूनों की मदद से ज़्यादा फ़ायदा हुआ जलवायु परिवर्तन को रोकने में। लेकिन इसके साथ ही इन क़ानूनों को लागू करने में एक अनुशासन की भी ज़रूरत है। मिसाल के तौर पर ब्राज़ील और इंडोनेशिया की बात करें तो वहां जंगलों की कटाई के सख्त नियम तो हैं, लेकिन उन नियमों को सही से लागू न कर पाना इन नियमों पर पानी फेर रहा है।

आगे, इस अध्ययन में पाया गया कि यूरोपीय यूनियन और आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) के देशों में बढ़िया जलवायु कानूनों के साथ प्रभावी सरकारी व्यवस्था भी है। इस माहौल के चलते ऐसे देशों में CO2 एमिशन की कमी के अनुमानित लक्ष्यों में से दो-तिहाई की कमी हासिल कर ली गयी। साथ ही गैर कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य की बात करें तो उसका आधा हासिल कर लिया गया। और तो और, इन देशों ने तो कार्बन उत्सर्जन को 1999 के स्तर पर स्थिर भी कर लिया। लेकिन दुनिया भर की बात करें तो, 1999 से, कुल क़ानूनों की मदद से कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्यों का महज़ एक तिहाई ही हासिल हो पाया। इससे ये समझ आता है कि क़ानून के साथ एक बेहद मज़बूत ढांचागत व्यवस्था की भी ज़रूरत है।

अंततः सामने निकल कर ये आता है कि जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए जितने ज़्यादा क़ानून होंगे और जितनी ज़्यादा शिद्दत से उन्हें लागू किया जायेगा, नतीजे उतने ही बेहतर देखने को मिलेंगे। अब यहाँ देखना ये है की भारत में कब इस मुद्दे पर सबकी जवाबदेही तय करता हुए कोई जलवायु क़ानून लाया जाता है।

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