Photo: The Strait Times

स्मॉग टावर और स्मॉग: अधूरी साइंस और पूरी सियासत

साल-दर-साल, सर्दियों में दिल्ली के स्मॉग में जब साँस लेना मुश्किल होने लगा और सियासत ज़ोर पकड़ने लगी, तब सुप्रीम कोर्ट ने, विशेषज्ञों को हैरान करते हुए, साइंस के नाम पर स्मॉग टावर में भरोसा जताया।

हालांकि एक्सपर्ट मानते हैं कि राजधानी के प्रदूषण की समस्या का समाधान स्मॉग टावर से नहीं हो सकता। स्मॉग टावर राजधानी में व्यावहारिक नहीं है। काउंसिल ऑफ एनर्जी, एनवायरमेंट एंड वॉटर(CEEW) के अनुसार राजधानी की हवा को साफ करने के लिए कम से कम लगभग पौने दो करोड़ रूपये की लागत से पच्चीस लाख स्मॉग टावरों की जरूरत होगी। अपने ट्विट्टर हैंडल पर स्मॉग टावर की प्रासंगिकता पर टिपण्णी करते हुए सीईईडब्ल्यू ने 17 फरवरी को कहा है कि “स्मॉग टॉवर एक सफ़ेद हाथी है जो दिल्ली के प्रदूषण की समस्या को नहीं सुलझा सकता।”

एक स्मॉग टॉवर की लागत लगभग 2 करोड़ रुपये आती है इस हिसाब से 25 लाख स्मॉग टावरों लगाने के लिए 50 लाख करोड़ रुपये चाहिए।  पर वक़्त के साथ साथ बढ़ते प्रदूषण को रोकने के लिए इनकी तादाद में और भी इजाफा करने की ज़रूरत होगी। इसीलिये यह एक “बैंड एड” की तरह तुरंत चिपका देने वाला समाधान है, जिसकी वक़्त की कसौटी पर खरा उतरने की उम्मीद विशेषज्ञों को नहीं नजर आ रही है और वोह इस समाधान से कतई संतुष्ट नहीं हैं । 

अगर आसान शब्दों में कहें तो स्मॉग टॉवर एक बहुत बड़ा एयर प्यूरीफायर होता है जो वैक्यूम क्लीनर की तरह धूल के कणों को खींच लेता है। सीईईडब्ल्यू के अनुसार इसका असर बस 50 मीटर की रेडियस के दायरे में ही हवा को साफ करने की क्षमता रखता है । दिल्ली शहर की लम्बाई 51.9 km  और चौडाई 48.48 km है। ऐसे में 50 मीटर के दायरे में हवा को साफ करने  का मतलब ऊँट के मोंह में जीरा जैसा ही हुआ।   

जनवरी 2020 में एक नेता ने दिल्ली की लाजपत नगर बाज़ार में एक स्मॉग टावर लगवा दिया लेकिन उसकी उपयोगिता और प्रासंगिकता पर एक बड़ा सवाल अब भी लगा है।एक्सपर्ट बताते हैं कि लाजपत नगर में लगे स्मॉग टावर की कीमत करीब 7 लाख रुपये है और इस पर हर महीने 30 हजार रुपये खर्च होता है।

तो जो पैसा इन स्मॉग टावर में इस्तेमाल किया जाए उसे ही फ़र्ज़ करिए थर्मल पावर स्टेशन पर लगा दिया जाए तो कितना बेहतर असर दिखेगा? क्योंकि थर्मल पावर स्टेशन तो एक बड़ा स्त्रोत है प्रदूषण के उत्सर्जन का। वैसे थर्मल पावर स्टेशन ही नहीं, अगर बात प्रदूषण को उसके स्त्रोत पर ही उसे रोकने की हो पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम पर ध्यान दिया जा सकता है, और कूड़ा निस्तारण पर खर्च किया जा सकता है। कहने का मतलब यह की जनता के पैसे का प्रयोग वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध और कारगर तरीकों पर खर्च किया जाये तो बेहतर होगा।

इसलिये  वायु प्रदूषण नियंत्रण क्षेत्र में सक्रिय आन्दोलनकारियों, प्रचारकों, और विशेषज्ञों की करें तो वह स्मॉग टावर लगाने की तुलना रेगिस्तान में एयर कंडीशनर चलाने से करते नजर आ रहे  हैं। उनका मानना है कि स्मॉग पर लगाम लगाने का सबसे मुफ़ीद तरीका है उस स्मॉग के सोर्स पर नकेल कसना।

दूसरे शब्दों में समझें तो प्रदूषण रोकने का एक मात्र वैज्ञानिक तरीका है प्रदूषण को स्त्रोत पर ही रोक लेना। क्योंकि एक बार उत्सर्जित कण और तत्व हवा में मिल जाएँ तो वह रासायनिक प्रक्रिया के बाद ओज़ोन जैसी गैसों की शक्ल ले लेते हैं या सल्फेट और नाइट्रेट जैसे एयरोसोल बन जाते हैं। और ऐसी सूरत में, उनसे निजात सिर्फ़ तब ही मिल सकती है जब तेज़ हवाएं उन्हें उड़ा ले जाएँ या फिर बारिश का पानी उन्हें जज़्ब कर ले।

यह दोनों ही बातें हमारे-आपके हाथ में नहीं। हम अगर कुछ कर सकते हैं तो वो है प्रदूषण के उत्सर्जन में कमी।

उत्सर्जन पर लगाम लगाने की जगह ऐसी किसी तकनीक को बढ़ावा देना तो वही बात हुई कि ये कहा जाए कि आप मारपीट कर के चोट पहुंचाइए, फिर मलहम लगा कर काम पर जाइए। साथ ही, मलहम भी अगर ऐसा हो जिसका असर सिद्ध न हुआ हो तो हैरत के साथ दुःख भी होता है। सर्वोच्च न्यायालय का स्मॉग टावर तकनीक को मान्यता और स्वीकार्यता देना ऐसा ही कुछ दुःख देता है।

शिकागो यूनिवर्सिटी की ताज़ा रिसर्च की मानें तो एक औसत भारतीय, वायु प्रदूषण की वजह से, अपनी ज़िन्दगी के पांच साल खोने को मजबूर है। शायद इसलिए क्योंकि भारत की एक चौथाई आबादी के लिए प्रदूषण को झेलना मजबूरी है।  और बीते  दो दशक में तो भारत में प्रदूषण 46 प्रतिशत बढ़ा है। सबसे दुःख की बात है कि जीवन जीने के लिए जिस गुणवत्ता की हवा चाहिए, उस मामले में भारत विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों पर भी खरा नहीं उतरता।

देशभर में अगर 25 प्रतिशत तक प्रदूषण कम किया जाये, तो राष्ट्रीय जीवन प्रत्याशा में 1.6 साल और दिल्ली के निवासियों की जीवन प्रत्याशा में 3.1 साल की बढ़ोत्तरी हो सकती है। तो इन हालातों में जब साँस लेना ही मरने जैसा है, तब सुप्रीम कोर्ट अगर स्मॉग की सियासत को साइंस की सच्चाई से काटता, तो बेहतर होता। लेकिन फ़िलहाल तो हमारे-आपके साथ साइंस का भी दम घुटता हुआ दिख रहा है।

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