“यह सवाल उत्तराखंड के चुनावों में कहां हैं?”

उत्तराखंड के चुनावों में एक बार फिर पर्यावरण और क्लाइमेट के वह सवाल गायब हैं जिनका सीधा रिश्ता राज्य की खुशहाली और आर्थिक तरक्की से है। 

कुछ ही दिन बाद 14 फरवरी को जब उत्तराखंड में नई विधानसभा के लिये वोट डाले जायेंगे उससे ठीक हफ्ते भर पहले चमोली आपदा का एक वर्ष पूरा होगा। पिछली 7 फरवरी को चमोली ज़िले में ऋषिगंगा नदी में आई बाढ़ से 200 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी और सैकड़ों करोड़ की क्षति हुई थी। चमोली आपदा ने इस हिमालयी क्षेत्र में रह रहे लोगों के जीवन पर हर पल मंडराते ख़तरे और उनकी जीविका के सवाल को ही उजागर नहीं किया बल्कि यह भी दिखाया कि न तो पहाड़ में ऐसी आपदाओं से निपटने की तैयारी है और न को ई पूर्व चेतावनी प्रणाली (अर्ली वॉर्निंग सिस्टम। 

आसपास आपदा से डरे लोग अब इन गांवों में नहीं रहना चाहते। कई बार इन पहाड़ों पर बनी किसी झील के टूटने या भारी बरसात में भूस्खलन की आशंका से दहशत फैल जाती है। चमोली आपदा के बाद एक बार फिर पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील इस हिमालयी इलाके में जलवायु परिवर्तन प्रभाव और सुदृढ़ आपदा प्रबन्धन की कमी पर सवाल उठे लेकिन चुनाव में यह मुद्दा नहीं दिख रहा। 

ख़तरों का हिमालय 

हिमालयी चोटियों पर ख़तरा नई बात नहीं है। यहां बादल फटना, अचानक बाढ़ आना और झीलों का टूटना होता रहा है। चमोली आपदा ने 2013 की  केदारनाथ आपदा – जिसमें कम से कम 6,000 लोगों की जान गई – की यादें ताज़ा कर दीं हैं लेकिन छोटी-बड़ी आपदायें तो लगभग हर साल आ रही हैं और उनकी तीव्रता बढ़ रही है। 

जानकार कहते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग के बढ़ते प्रभाव से हिमनदों के पिघलने की रफ्तार तेज़ हो रही है जो इन विकराल होती आपदाओं का कारण है। अब 2019 में छपी इस रिसर्च को ही लीजिये जो कि अमेरिका खुफिया विभाग की सैटेलाइट तस्वीरों पर आधारित है। इसके मुताबिक साल 2000 के बाद  हिमालयी ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार दोगुनी हो चुकी है। 

हिमालयों पर काम करने वाली शोध संस्था ICIMOD का कहना  है कि अगर हम कार्बन इमीशन को तेज़ी से रोक भी दें  और धरती की तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित रखें तो भी सदी के अंत तक हिमनदों की एक तिहाई बर्फ पिघल जायेगी। अगर यह तापमान वृद्धि 2 डिग्री तक पहुंची तब तो साल 2100 तक हिमालयी ग्लेशियरों की आधी बर्फ गल चुकी होगी। उत्तराखंड में आई ताज़ा आपदा से ठीक पहले प्रकाशित एक शोध भी हिमनदों की कमज़ोर होती हालत से उत्पन्न ख़तरे के प्रमाण देता है। 

कुछ ऐसी ही चेतावनियां अंग्रेज़ी अख़बार द गार्डियन में छपी रिपोर्ट में हैं जिन्हें यहां पढ़ा जा सकता है। स्पष्ट है कि ऐसे हालात ऊंचे पहाड़ों से हो रहे पलायन को और तेज़ कर सकते हैं। सरकारी आंकड़े कहते हैं कि राज्य के 1,000 से अधिक गांव खाली हो चुके हैं जिन्हें “भुतहा गांव” कहा जाता है। 

विकास के मॉडल पर सवाल 

जानकारों ने हिमालय में हो रहे विकास को लेकर बार-बार सवाल उठाये हैं और एक जन-केंद्रित सतत विकास पर ज़ोर दिया है फिर चाहे वह सड़क निर्माण हो या बड़ी-बड़ी जलविद्युत परियोजनायें या फिर कुछ और। साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति ने कहा था कि 2013 में हुई केदारनाथ आपदा को बढ़ाने में बड़े बांधों की भूमिका थी। कमेटी ने 23 बांध परियोजनाओं को रद्द करने की सिफारिश की जो कि 2,500 मीटर से अधिक ऊंचाई पर बनाई जा रही थीं। हालांकि राज्य और केन्द्र सरकार विकास और सामरिक ज़रूरतों का हवाला देकर इन (सड़क और हाइड्रो) परियोजनाओं को ज़रूरी बताते हैं, फिर भी समुदायों के साथ ज़मीन पर काम कर रहे लोग अधिक व्यवहारिक और विकेन्द्रित विकास की वकालत करते हैं। 

“हम पूरे देश के अलग-अलग जियो क्लाइमेटिक ज़ोन में एक ही तरह की विकास परियोजनाओं की बात नहीं कर सकते। हिमालय विश्व के सबसे नये पहाड़ों में हैं और इन नाज़ुक ढलानों पर बार-बार भू-स्खलन होते रहते हैं,” सतत विकास और आपदा से लड़ने की रणनीति पर काम कर रही एनजीओ सीड्स के सह-संस्थापक मनु गुप्ता कहते हैं। 

“जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव हिमालय को अधिक खतरा पहुंचायेंगे, हमें विकास योजनायें बनाते समय इकोलॉजी को और अधिक महत्व देना होगा और यह एहतियात पूरे देश में लागू करना होगा,” गुप्ता ने कहा। 

आपदास्थल से 15 किलोमीटर दूर जोशीमठ में रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अतुल सती – जो कि कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के सदस्य भी हैं –  “लघु जल-विद्युत” प्रोजेक्ट्स की वकालत करते हैं। “यह नितांत ज़रूरी है कि सरकार बड़ी-बड़ी कंपनियों की बजाय स्थानीय लोगों को विकास में शामिल कर एक जनोन्मुखी ढांचा बनाये ताकि लोगों को रोज़ी-रोटी मिले और विकास परियोजना टिकाऊ हो। इससे हम जलवायु परिवर्तन के साथ हो रही विनाशकारी मौसमी आपदाओं से लड़ने का रास्ता भी तैयार कर सकेंगे,” सती ने कार्बनकॉपी से कहा। 

चेतावनी और आपदा का अंदाज़ा 

पिछले साल आई बाढ़ के बाद कार्बनकॉपी ने तमाम विशेषज्ञों से यह जानने की कोशिश की कि क्या हमारा आपदा प्रबन्धन खतरों की बढ़ती संख्या और विनाशकारी ताकत से लड़ने लायक है?  सम्बन्धित विभाग के सरकारी अधिकारियों ने यह बात स्वीकार की कि केंद्र  और राज्य के आपदा प्रबन्धन विभाग अब भी “पुराने आंकड़ों” के भरोसे ही अधिक हैं जो कि “पहले हुई आपदाओं” से लिये गये हैं जबकि अब क्लाइमेट चेंड के कारण पैदा हुई “नई चुनौतियों” के हिसाब से तैयारी किये जाने की ज़रूरत है। 

यह ध्यान देने की बात है कि ऋषिगंगा हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट या धौलीगंगा पर बने  एनटीपीसी के निर्माणाधीन पावर प्रोजेक्ट में कोई चेतावनी (अर्ली वॉर्निंग) सिस्टम नहीं था। अगर होता तो कई लोगों की जान बचाई जा सकती थी। आपदा के बाद सरकार ने ऐसा चेतावनी सिस्टम यहां लगाया है लेकिन राज्य में डेढ़ हज़ार मीटर से अधिक ऊंचाई पर चालू करीब 65 पावर प्रोजेक्ट्स में कोई चेतावनी सिस्टम नहीं है। 

यद्यपि भारत ने चक्रवाती तूफानों से बचने के लिये बेहतर चेतावनी सिस्टम लगाया है लेकिन हिमालयी क्षेत्रों में – जहां बादल फटने और हिमनदों में बनी झील टूटने के ख़तरे हैं – बहुत कुछ किया जाना बाकी है। सवाल है कि यह मुद्दा क्या किसी पार्टी के घोषणा पत्र में दिखेगा। 

“एक बेहतर अर्ली वॉर्निंग सिस्टम के लिये ज़रूरी है कि हमारे पास ख़तरे को आंकने के लिये एक प्रभावी रिस्क असेसमेंट का तरीका हो,”  सरकार के साथ काम कर रहे एक विशेषज्ञ ने नाम न बताने की शर्त पर कहा। “जब तक आपको यह पता नहीं होगा कि कब, कहां और कितना ख़तरा है आप वॉर्निंग कैसे दे सकते हैं।” एक दूसरे अधिकारी ने कहा कि भारत ने “आपदा के ख़तरों को कम करने के बजाय आपदा से लड़ने की तैयारियों” में अधिक निवेश कर दिया है। 

राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन विभाग के संस्थापक सदस्यों में से एक एन विनोद चंद्रा मेनन नई टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल पर ज़ोर देते हैं। उनका कहना है कि “आने वाले कल की चुनौतियों” का सामना “बीते हुये कल के हथियारों” से नहीं हो सकता। टेक्नोलॉजी बदल रही है और नये उपकरण और हल उपलब्ध हैं। हमें आईटी आधारित समाधानों को तेज़ी से अपनाना होगा जिससे प्रकृति के बदलते स्वभाव को समझने में मदद होगी। 

यह बहुत मूलभूत बात है जो हमें करनी है क्योंकि जो लोग इस क्षेत्र में अलग-अलग संस्थानों में पिछले 20 साल से काम कर रहे हैं उन्हें “कुछ नया सीखना” है तो बहुत कुछ पुराना ऐसा है जिसे “भूलना” भी है और इसके लिये बहुत विनम्रता चाहिये,” मेनन ने कहा। 

चुनावी शोर में नदारद है यह मुद्दा 

पूरा हिमालयी क्षेत्र करीब 10,000 छोटे-बड़े ग्लेशियरों का घर है। करीब 1000 ग्लेशियर तो उत्तराखंड में पड़ने वाले हिमालयी इलाकों में हैं। सैकड़ों छोटी बड़ी नदियों, जंगलों और अपार जल स्रोत का भंडार होने के कारण इसे धरती का तीसरा ध्रुव यानी थर्ड पोल भी कहा जाता है। इसका रिश्ता सिर्फ पर्यावरण से नहीं करोड़ों लोगों की जीविका और देश के बड़े हिस्से के आर्थिक ढांचे से है। संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों के पैनल (आईपीसीसी) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि साल 2100 तक जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण भारत को जीडीपी में 3-10% सालाना क्षति हो सकती है। स्थानीय स्तर पर आये दिन बाढ़, भूस्खलन और क्लाइमेट में बदलाव की चोट यहां रह रहे लोगों की जीविका पर तो है ही, बड़ी विकास परियोजनाओं में पर्यावरण नियमों की अनदेखी ने कई गांवों को बर्बाद किया है। पिछले साल रैणी गांव की ममता राणा ने इस डर को बयां किया था। लोग अपने घरों को छोड़कर जिस गांव में बसना चाहते हैं वहां के लोग संसाधनों पर दबाव के कारण इन लोगों को अपने पास नहीं बसाना चाहते। रैणी से कुछ दूर दरक रहे चाईं के जैसे बीसियों गांव हैं जहां जल संसाधनों और कृषि को जल विद्युत परियोजनाओं के लिये किये जा रहे विस्फोटों ने बर्बाद कर दिया है। उत्तराखंड के चुनावों में क्या इस बार राजनेता ये मुद्दे उठायेंगे या जनता इन पर वोट करेगी। यह पर्यावरण या आर्थिक रोड मैप के लिये उनकी समझ का ही नहीं बल्कि सामाजिक चेतना का भी बैरोमीटर होगा। 

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