जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया भर में चक्रवात और तूफान अधिक विनाशकारी होते जा रहे हैं। अक्टूबर 2023 में चक्रवात दाना ने भारत के पूर्वी तट पर तबाही मचाई, जिससे लाखों लोग प्रभावित हुए और ओडिशा और पश्चिम बंगाल में व्यापक क्षति हुई। दुनिया भर में यही चिंताजनक प्रवृत्ति बनी हुई है। मिल्टन और हेलेन जैसे तूफान अमेरिका और एशिया में कहर बरपा रहे हैं। जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के कारण महासागर गर्म होते जा रहे हैं, ऐसे तूफान बार-बार आ रहे हैं और तीव्र होते जा रहे हैं। ब्रिटेन स्थित क्रिश्चियन एड की एक रिपोर्ट में पाया गया कि 2023 में दुनिया में जिन जलवायु आपदाओं ने सबसे अधिक आर्थिक क्षति पहुंचाई थी उनमें 85% बाढ़ और उष्णकटिबंधीय तूफान थे।
इस दृष्टि से मैंग्रोव बढ़ते समुद्रों, चक्रवातों और तटीय कटाव के खिलाफ महत्वपूर्ण प्राकृतिक सुरक्षा के रूप में काम कर सकते हैं। फिर भी, शहरीकरण और जलवायु पर दबाव के कारण ये इकोसिस्टम तेजी से कम हो रहे हैं। हालांकि भारत की मैंग्रोव इनिशिएटिव फॉर शोरलाइन हैबिटैट्स एंड टैंजिबल इनकम्स (मिष्टी) के तहत 540 वर्ग किमी तटरेखा पर फिर से वनीकरण करने का लक्ष्य रखा गया है, लेकिन विशेषज्ञों का तर्क है कि बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण सबसे प्रभावी समाधान नहीं है।
तटीय सुरक्षा का प्राकृतिक समाधान
तटीय क्षेत्रों की सुरक्षा में मैंग्रोव ने लगातार अपना महत्व साबित किया है। उदाहरण के लिए, ओडिशा के भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान में घने मैंग्रोव आवरण के कारण चक्रवात दाना का प्रभाव कम हो गया था। एक सरकारी रिपोर्ट बताती है कि अम्फान और यास जैसे चक्रवातों के दौरान घने मैंग्रोव वाले क्षेत्र अधिक सुरक्षित रहे।
भारत वैश्विक मैंग्रोव एलायंस फॉर क्लाइमेट (एमएसी) का हिस्सा है, जिसका लक्ष्य 2030 तक 15 मिलियन हेक्टेयर मैंग्रोव को संरक्षित करना है। हालांकि, एमएसी के तहत एक लोकप्रिय रणनीति है बड़े पैमाने पर रोपण, जो अक्सर निराशाजनक परिणाम देती है। उदाहरण के लिए, 2020 में चक्रवात अम्फान के बाद पश्चिम बंगाल ने लाखों मैंग्रोव पौधे लगाए, लेकिन कुछ क्षेत्रों में केवल 15% ही बचे।
बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण की चुनौतियाँ
बड़े पैमाने पर मैंग्रोव वृक्षारोपण में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। नए लगाए गए मैंग्रोव अक्सर कटाव वाले क्षेत्रों या उच्च ज्वारीय गतिविधि वाले क्षेत्रों में विफल हो जाते हैं। दुनिया भर में इसी तरह की विफलताओं की सूचना मिली है। केन्या में बड़े पैमाने पर लगाए गए मैंग्रोव पौधों में केवल 30-32% ही जीवित रहते हैं, जबकि श्रीलंका में सुनामी के बाद केवल 3% ही जीवित बचे थे।
श्रीलंका ने 2015 में वैज्ञानिक संरक्षण की ओर रुख किया, और मौजूदा मैंग्रोव के पोषण और प्राकृतिक पुनर्जनन पर ध्यान केंद्रित किया। इस तरीके से 500 हेक्टेयर से अधिक मैंग्रोव को सफलतापूर्वक बहाल किया गया है और संयुक्त राष्ट्र वर्ल्ड रेस्टोरेशन फ्लैगशिप के रूप में मान्यता प्राप्त की है।
अनियंत्रित शहरीकरण का प्रभाव
शहरीकरण ने मैंग्रोव इकोसिस्टम को नष्ट कर दिया है, विशेष रूप से मुंबई में, जहां शहर की सीमा के भीतर 15-20% और महानगरीय क्षेत्र में 40% तक मैंग्रोव नष्ट हो गए हैं। मैंग्रोव विनाश को रोकने के लिए संरक्षण के प्रयास किए जा रहे हैं, जैसे 650 सीसीटीवी कैमरे लगकर मॉनिटरिंग आदि, लेकिन नियमों का पालन कराने और फंडिंग की चुनौतियां बनी हुई हैं।
भारत की लगभग 3,000 किलोमीटर लंबी पश्चिमी तटरेखा के लिए मैंग्रोव महत्वपूर्ण हैं, जो ढाई करोड़ लोगों का भरण-पोषण करते हैं। पिछले दो दशकों में अरब सागर में चक्रवाती तूफानों में 52% की वृद्धि देखी गई है, जो दर्शाता है कि मैंग्रोव संरक्षण की तत्काल आवश्यकता है।
मैंग्रोव: प्राकृतिक आवास में आबाद
मुंबई से 2,000 किमी दूर – भारत के पूर्वी तट पर – सुंदरबन में कुछ जवाब मिलते हैं। सुंदरबन दुनिया का सबसे बड़े मैंग्रोव वन है और यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में शामिल है।
यहां रामगंगा गांव में नदी का किनारा एक प्राचीन ग्रामीण पेंटिंग की तरह लगता है – कंक्रीट के तटबंध के चारों ओर तीन हेक्टेयर तक फैली एक हरी-भरी मैंग्रोव की पट्टी। मैंग्रोव की तीस अलग-अलग प्रजातियाँ यहां खड़ी हैं -जो पथार प्रतिमा ब्लॉक के गाँव में मिलने वाली चार नदियों की बड़ी कटाव शक्तियों के खिलाफ एक आवश्यक सुरक्षा दीवार बनाती हैं।
यह कल्पना करना कठिन है कि ज़मीन का यह टुकड़ा कुछ साल पहले ही बंजर था।
यह उन 31 साइटों में से एक है जिसे पश्चिम बंगाल राज्य विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान की प्रोफेसर कृष्णा रे 2013 से विकसित कर रही हैं। डॉ. रे मैंग्रोव वृक्षारोपण और बहाली के लिए वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण अपनाती हैं। मैंग्रोव के बड़े पैमाने पर रोपण के बजाय, वह पहले उनके जीवित रहने और फिर पनपने के लिए सही वातावरण बनाने पर ध्यान केंद्रित करती है।
पहली बात, मैंग्रोव बिना अधिक हस्तक्षेप के अपने प्राकृतिक आवास में प्रचुर मात्रा में आबाद हो सकते हैं। मलेशिया के पश्चिमी तट पर किए गए एक प्रयोग में पाया गया कि मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र को नए वृक्षारोपण के बिना, केवल एक ब्रेकवाटर खड़ा करके और मैंग्रोव विकास के लिए अनुकूल वातावरण की सुविधा प्रदान करके पुनर्जीवित किया जा सकता है।
दूसरे, नए वृक्षारोपण की सफलता दर एक समान नहीं होती है क्योंकि सभी पौधे पूर्ण वृक्ष नहीं बन पाते हैं। बहुत कुछ उन क्षेत्रों में ज्वारीय प्रभाव और कटाव पर निर्भर करता है।
तीसरा, यदि एक या कुछ व्यापक रूप से उपलब्ध मैंग्रोव की किस्में लगाई जायें तो , तो परिणाम उतना प्रभावी नहीं होगा, क्योंकि इससे एक विविधतापूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र नहीं बन पायेगा।
डॉ रे कहती हैं, “कुछ मैंग्रोव प्रजातियाँ उच्च लवणता वाली मिट्टी में उगती हैं, जबकि अन्य की उपज मीठे जल क्षेत्रों में अधिक होती है। इसलिए, अधिक दक्षता के लिए, क्षेत्रों को लवणता के अनुसार मैप करना होगा, और फिर उपयुक्त प्रजातियों को रोपना होगा।”
दुरबाकोटी में 5 वर्ष पुरानी साइट पर यह साफ दिखता है। हाथ से लगाई गई घास की कतारें नदी की ओर फैली हुई हैं, जबकि घना मैंग्रोव जंगल तटबंध क बचाये हुए है।
वैज्ञानिक दखल के प्रभाव
डॉ रे कहती हैं, “हम पहले पूरी तरह से बंजर मिट्टी के मैदान पर घास लगाते हैं। ये पोषक तत्वों को बढ़ाकर मिट्टी को समृद्ध करते हैं, जिससे यह जगह पेड़ लगाने के लिए अधिक अनुकूल हो जाती है। फिर, हम स्थानीय रूप से उपलब्ध मैंग्रोव प्रजातियों का प्रत्यारोपण करते हैं, और कुछ विश्व स्तर पर विलुप्त हो रही प्रजातियों को पहली बार यहां रोपा जाता है। इससे जैव विविधता बढ़ती है, चक्र पुनर्जीवित होता है।”
घास एक महत्वपूर्ण सू्त्रधार है, खासकर जब मडफ्लैट पर मैंग्रोव उगाते हैं, जहां वे पारंपरिक रूप से नहीं होते । इंटरनेशनल यूनियन ऑफ कंजर्वेशन ऑफ नेचर के अनुसार, मडफ्लैट्स “क्षरण और जल तरंगों के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील होते हैं”, और “निरंतर नमी के कारण कम ऑक्सीजन सामग्री के परिणामस्वरूप उच्च अंकुरण मृत्यु और अवरुद्ध विकास हो सकता है”।
इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि समाधान अत्यधिक स्थानीय होना चाहिए – स्थान की भौगोलिक स्थितियों के अनुसार बदलाव किया जाना चाहिए, भले ही वह बड़े पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा हो।
मैंग्रोव संरक्षण विशेषज्ञ नरेंद्रन राजेंद्रन – जो तमिलनाडु में रहते हैं – के अनुसार, “संरक्षणवादियों के लिए एक मुख्य नियम होना चाहिए कि वो स्थानीय समुदायों से जानकारी एकत्र करें कि पुरातनकाल से वहां कौन सी मैंग्रोव प्रजातियां मौजूद रही हैं।”
तमिलनाडु के कुड्डालोर जिले में पारंगीपेट्टई में चार स्थलों पर राजेंद्रन की विज्ञान आधारित कोशिशों से 90% नए लगाए गए मैंग्रोव जीवित रहे। लगभग सात साल पहले लगाए गए, ये स्थल इतने घने जंगलों में बदल गए हैं कि अब वह खुद इन स्थलों में प्रवेश नहीं कर पा रहे हैं, और मैंग्रोव अपने आप ही बढ़ते जा रहे हैं।
वह बताते हैं, “मिट्टी की हाइड्रोग्राफी और पोषक तत्वों की मात्रा के आधार पर ही प्रजातियों को रोपा जाना चाहिए। हम मिट्टी की शीर्ष परत को 15-30 सेमी को खोदते हैं, पोषक तत्वों के स्तर का अध्ययन करते हैं, और केकड़े के बिलों का करीबी से निरीक्षण करते हैं – अगर वह अधिक हैं तो इसका मतलब अधिक जैव विविधता है।”
इसका प्रमाण श्रीलंका के सफल मैंग्रोव वृक्षारोपण अभियान में दिया जा सकता है। इसके दिशानिर्देश दस्तावेज़ में बताया गया है कि प्रभावी मैंग्रोव बहाली के लिए किन तत्वों का अध्ययन किया जाना चाहिए। “मैंग्रोव प्रजातियाँ लवणता, पीएच, मिट्टी की नमी के स्तर और एरोबिक मिट्टी की परत की गहराई के अनुसार वितरित होती हैं। इसलिए, प्रभावी बहाली के लिए इन मापदंडों को पहले से मापा जाना चाहिए, ”यह बताता है। दस्तावेज़ में कहा गया है कि समानांतर रूप से, लवणता का स्तर, ज्वारीय उतार-चढ़ाव, हवा और सूरज की रोशनी की तीव्रता भी मैंग्रोव विकास को प्रभावित करती है, और इसलिए, बहाली के प्रयास।
हीरा है सदा के लिए
पॉलिसी के स्तर पर आम धारणा यह है कि मैंग्रोव ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को कम करने और वायुमंडल में कार्बन के स्तर को कम करने के लिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे बड़े विशाल कार्बन सिंक हैं। एक अन्य प्रत्यक्ष लाभ बढ़ते समुद्र और चक्रवात जैसी चरम मौसम की घटनाओं के खिलाफ तटीय क्षेत्रों की सुरक्षा है।
लेकिन अगर मैंग्रोव वन प्राचीन हों तो उसके कहीं अधिक फायदे हैं। अमेरिका में किए गए एक अध्ययन, जिसमें चार दशकों के डेटा का विश्लेषण किया गया, में पाया गया कि लगाए गए मैंग्रोव अक्षुण्ण, परिपक्व पारिस्थितिक तंत्र में पाए जाने वाले कार्बन स्टॉक का 75% तक संग्रहीत होते हैं।
नदी किनारे के लोगों और तटीय समुदायों की आजीविका भी इस पर निर्भर करती है। मछली पकड़ने और शहद इकट्ठा करने से लेकर लकड़ी की प्रचुर आपूर्ति तक, अप्रत्यक्ष लाभ कई गुना हैं, जो इन हाशिए पर रहने वाले लोगों को बहुत आवश्यक आय स्रोत प्रदान कर सकते हैं।
लेकिन मैंग्रोव का एक मोनोटाइपिक संरक्षण हो तो ज़रूरी नहीं कि ये सभी लाभ मिलेंगे । एक साइट पर जो कि डॉ. रे की टीम द्वारा नहीं देखी जा रही थी, उसमें केवल तीन प्रकार के मैंग्रोव थे जो बढ़ते पानी के खिलाफ बुनियादी सुरक्षा प्रदान करते थे, लेकिन वहां कोई अंडरग्रोथ नहीं थी। यहां तलछट को बरकरार रखने या अन्य पौधों को विकसित होने की संभावना नहीं बन पा रही थी, और इस प्रकार कोई जैव विविधता नहीं रही।
एक और महत्वपूर्ण बात यह कि मैंग्रोव हर जगह नहीं लगाए जा सकते। पौधों के पेड़ बनने की सफलता दर अलग अलग क्षेत्रों के अनुसार अलग-अलग होती है। यहां तक कि सुंदरबन जैसे एक जंगल में भी स्थितियां काफी भिन्न हो सकती हैं।
रामगंगा के पश्चिम में लगभग 30 किमी दूर, सागर द्वीप पर, नए पेड़ लगाना बिल्कुल व्यर्थ है। वजह साफ है। आईआईएसईआर, कोलकाता के जैविक विज्ञान विभाग के प्रोफेसर डॉ. पुण्यस्लोके भादुड़ी कहते हैं, “चूंकि लहरें बहुत तेज़ हैं, इसलिए नए मैंग्रोव जीवित नहीं रह पाएंगे।”
नए पेड़ लगाने के बजाय, वह 25-30 साल पुराने मैंग्रोव पेड़ों को बचाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं जो किसी तरह विनाशकारी चक्रवात अम्फान की तबाही से बचने में कामयाब रहे। उनके प्रयास सागर द्वीप के प्रवेश द्वारों में से एक चेमागुड़ी क्षेत्र में सफल रहे हैं।
डॉ भादुड़ी कहते हैं, “इन मैंग्रोवों की ज़िदा रहने की ताकत अधिक है। इसलिए हम उन्हें पुनर्स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं. हमने इस स्थान को इसलिए चुना क्योंकि यहां कटाव और समुद्र स्तर में वृद्धि का स्तर सबसे अधिक है। चक्रवात अम्फान ने इस हिस्से को गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त कर दिया था, लेकिन हमारी टीम के हस्तक्षेप से स्थितियों में सुधार हुआ है। अब, चेमागुरी सागर द्वीप में सबसे घने मैंग्रोव हैं, जो लगभग 2-3 वर्ग किमी में फैले हैं। यह क्षेत्र स्थानीय लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वे केकड़े पकड़ने के लिए यहां आते हैं।”
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Shaswata Kundu Chaudhuri
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