पिछले पखवाड़े दक्षिण भारत में रिकॉर्ड बारिश दर्ज की गई। तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भारी बारिश हुई और दक्षिण-पश्चिम मॉनसून सीज़न में पहली बार बैंगलुरू में 1000 मिलीमीटर से अधिक बारिश हुई। मुंबई और इसके आसपास के इलाकों में खूब बादल गरजने और बिजली चमकने के साथ पानी बरसा।
हालांकि इस बीच उत्तर भारत के यूपी और राजस्थान में किसान पानी को तरसते रहे। असामान्य गर्मी ने इस बार खरीफ की फसल को वक्त से पहले ही तैयार कर दिया और कई जगह वह खराब भी हो गई। पिछले हफ्ते राजस्थान के चुरू में 41 डिग्री तापमान दर्ज किया गया।
मौसम विभाग ने उत्तर-पश्चिम भारत में बारिश की एक और झड़ी का पूर्वानुमान किया। इससे कुछ राहत मिल सकती है हालांकि इस वजह से अब दक्षिण-पश्चिम मॉनसून की वापसी कुछ देरी से होगी। सामान्य रूप से 17 सितंबर तक मॉनसून की बारिश खत्म होती है लेकिन पिछले साल यह मध्य अक्टूबर में हुई।
1.5 डिग्री तापमान वृद्धि के कई गंभीर परिणाम हो सकते हैं: अध्ययन
एक ताज़ा रिसर्च बताती है कि धरती के गर्म होने के साथ-साथ क्लाइमेट संबंधी कुछ प्रलंयकारी प्रभाव हो सकते हैं। इन्हें क्लाइमेट टिपिंग पॉइंट (सीटीपी) कहा जाता है यानी वह हालात जब एक हद से अधिक तापमान वृद्धि के बाद क्लाइमेट सिस्टम का एक हिस्सा अनियंत्रित हो जाता है। यह बदलाव बड़े बेढप, अपरिवर्तनीय और खतरनाक हो जाते हैं जिसका दुनिया पर बड़ा विनाशकारी असर हो सकता है।
इस शोध में नौ वैश्विक “कोर” टिपिंग एलीमेंट्स की पहचान की गई है जो अर्थ सिस्टम की गतिविधि पर निर्णायक प्रभाव डालते हैं। इसी तरह रिसर्च में सात क्षेत्रीय “प्रभाव” डालने वाले टिपिंग एलीमेंट्स बताये गये हैं जो कि मानव हितों के लिये बहुमूल्य हैं। यह स्टडी में की गई गणना के हिसाब से 1.1 डिग्री की वर्तमान तापमान वृद्धि ही पांच क्लाइमेट टिपिंग पॉइंट्स की शुरुआती उथलपुथल का कारण बन सकती है। इसी तरह पेरिस संधि के तहत तापमान वृद्धि को 1.5 से 2 डिग्री के बीच रोकने का संकल्प किया गया है लेकिन उस हालात में भी क्लाइमेट चेन्ज के ये अपरिवर्तनीय प्रभाव स्पष्ट दिखने लगेंगे।
ग्लोबल वॉर्मिंग: घटते फसल उत्पादन का बायोएनर्जी क्षमता पर पड़ेगा असर
एक नये अध्ययन में पता चला है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण फसलों की घटती पैदावार का असर बायोएनर्जी पर पड़ेगा। इस स्टडी में कहा गया है कि बायोएनर्जी और कार्बन कैप्चर स्टोरेज (बैक्स) तकनीक के तहत बायोमास से बिजली उत्पादन और इस प्रक्रिया में निकलने वाले इमीशन को कैद करने की क्षमता कम होगी। हालांकि बैक्स कार्बन इमीशन पर नियंत्रण का कितना प्रभावी तरीका है इसे लेकर जानकारों की राय बंटी हुई है। स्टडी कहती है “निगेटिव” इमीशन टेक्नोलॉजी धरती की तापमान वृद्धि को 1.5 से 2.0 डिग्री तक सीमित करने का एक आदर्श रास्ता हो सकता है।
बायोफ्यूल और खाद्य फसलों के अवशेष बैक्स टेक्नोलॉजी के लिये इस्तेमाल किये जाते हैं और अगर तापमान वृद्धि से फसल उत्पादन घटेगा तो अवशेष भी कम होंगे। साइंस पत्रिका नेचर में प्रकाशित शोध के मुताबिक अगर तापमान वृद्धि 2.5 डिग्री को पार कर गई तो बैक्स कारगर नहीं रहेगी।
बर्फबारी के पैटर्न में बदलाव का असर दक्षिण-पूर्व तिब्बत के ग्लेशियरों पर
गर्मियों में होने वाली कम बर्फबारी दक्षिण-पूर्व तिब्बत में ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने का संभावित कारण है। एक नये अध्ययन में कहा गया है कि इस क्षेत्र में गर्मियों में सबसे अधिक बर्फबारी होती है लेकिन तेज़ी से बढ़ते तापमान के कारण इस क्षेत्र में बारिश और बर्फबारी दोनों प्रभावित हुई हैं। इसका असर यहां पर जमा होने वाली बर्फ पर पड़ा है जो कि आइस के रूप में इकट्ठा हो जाती है। प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित रिसर्च में कहा गया है कि कम बर्फबारी और ग्लेशियरों के पिघलने की तेज़ रफ्तार से हिमनदों के द्रव्यमान (मास) में कमी हो रही है।
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