Vol 2, August 2023 | जी-20 देशों ने जीवाश्म ईंधन पर खर्च किए 1.4 ट्रिलियन डॉलर

Newsletter - August 31, 2023

बाढ़ और सूखा: जहां हिमाचल में बाढ़ ने तबाही की हुई है वहीं इस बार यह इतिहास का सबसे सूखा अगस्त रहा।

एल-निनो प्रभाव: इस साल रहा इतिहास का सबसे सूखा अगस्त

हिमाचल और उत्तराखंड में भले ही भारी बारिश और बाढ़ ने तबाही की हो लेकिन देश के अधिकतर राज्यों में अगस्त का महीना सूखा ही रहा। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस साल का अगस्त 1901 के बाद से (जब से मौसम विभाग ने बारिश के आंकड़े रिकॉर्ड करने शुरू किए) अब तक का सबसे शुष्क अगस्त रहेगा। इतिहास में अब तक अगस्त में सबसे कम बारिश 190 मिलीमीटर हुई है लेकिन इस बार मंगलवार सुबह तक यह आंकड़ा 160 मिलीमीटर ही रहा।  सामान्य वर्षों में जुलाई के बाद मॉनसून सीज़न का दूसरा सबसे अधिक बरसात वाला महीना अगस्त ही होता है जिसमें औसतन 255 मिलीमीटर बारिश होती है जो सालाना बरसात का लगभग 22 प्रतिशत बारिश है।

इस साल अगस्त में बरसात औसत से करीब 33 प्रतिशत कम रही है। वैज्ञानिक इसके पीछे एल निनो प्रभाव को वजह  बता रहे हैं हालांकि एल निनो के बावजूद इस बार जुलाई में अनुमान से 13 प्रतिशत अधिक बारिश हुई थी लेकिन अगस्त में इसका स्पष्ट असर दिखा है। जिन राज्यों में अगस्त में सामान्य से बहुत कम बारिश हुई उनमें गुजरात, केरल, राजस्थान, कर्नाटक और तेलंगाना प्रमुख हैं। पश्चिम में महाराष्ट्र और गोवा और उत्तर भारत में पंजाब और हरियाणा में बारिश कम हुई है। इसी दौरान पश्चिमी गड़बड़ी के सक्रिय होने से हिमाचल में बाढ़ आई। हालांकि वहां भी कुल बारिश औसत ही रही लेकिन कुछ दिनों में अत्यधिक बरसात होने से काफी तबाही हो गई।

हिमाचल: मुख्यमंत्री ने अधिकारियों से ऑटोमेटिक वेदर स्टेशनों की संख्या बढ़ाने को कहा 

हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह ने अधिकारियों से कहा है कि वह प्रदेश में अधिक ऑटोमेटिक वेदर स्टेशन लगाने की योजना पर काम करें ताकि मौसम के पूर्वानुमान का रियल टाइम डाटा मिल सके। इस साल भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन से राज्य में करीब 400 लोगों की जान जा चुकी है और 10,000 करोड़ से अधिक का नुकसान हो चुका है। 

अभी राज्य में शिमला, धर्मशाला और कुफ्री जैसी जगहों को मिलाकर कुल 23 ऐसे स्टेशन हैं। हिमाचल आपदा के बाद पूर्व चेतावनी के दुरुस्त करने के लिए अत्याधुनिक ऑब्जर्वेटरी लगाने पर विचार कर रहा है। 

भारी बारिश और मृदा संतृप्ति के कारण बढ़ी आपदा: वैज्ञानिक

वैज्ञानिकों का कहना है कि पहाड़ों पर अत्यधिक बोझ, अंधाधुंध निर्माण और मृदा संतृप्ति (सॉयल सैचुरेशन) हिमाचल में आई आपदा के पीछे बड़े कारण हो सकते हैं। हिमाचल में जून 24 के बाद से 752 मिलीमीटर से अधिक बारिश हो चुकी है जबकि पूरे मॉनसून में यहां 730 मिलीमीटर बारिश होती है। हिमाचल प्रदेश विज्ञान,  प्रौद्योगिकी और पर्यावरण परिषद के प्रिंसिपल साइंटिफिक ऑफिसर एस एस रंधावा के मुताबिक इस आपदा के पीछे कई कारण हो सकते हैं लेकिन इतना साफ है कि इस भौगोलिक क्षेत्र में सीधे वर्टिकल निर्माण नहीं किए जा सकते। 

उन्होंने यह भी कहा कि हर दो किलोमीटर में निर्माण के बाद एक किलोमीटर की हरियाली वाले मानक लागू होने चाहिए।  शिमला ज़िले में करीब 100 से अधिक भवन क्षतिग्रस्त हुए हैं और आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 46 लोगों की मौत हो चुकी है। सरकारी और निजी संपत्ति का 1,200 करोड़ से अधिक का नुकसान इस जिले में ही हुआ है।  

छोटी एंटीबायोटिक निर्माता कंपनियों के सामने बड़ी चुनौती: सीएसई  

प्रतिजैविकी दवाओं (एंटीबायोटिक्स) का बेअसर होना अब मानव स्वास्थ्य के लिये बड़ी चुनौती बन रहा है। इसकी एक बड़ी वजह है मानव द्वारा उपयोग के अलावा फसलों और पशुआहार के लिए एंटिबायोटिक्स का अंधाधुंध इस्तेमाल। इस कारण यह दवाएं अब प्रभावी नहीं हो रही। दूसरी ओर नए एंटीबायोटिक्स की खोज की दिशा में जितनी रिसर्च की ज़रूरत है वह नहीं हो पा रही है। प्रभावी एंटीबायोटिक दवाओं की कमी के कारण 2019 में 50 लाख लोगों की जान गई।  

दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरेंमेंट की निदेशक सुनीता नारायण के मुताबिक बड़ी फार्मा कंपनियां एंटीबायोटिक दवाओं में निवेश नहीं कर रहीं और छोटी और मध्यम दर्जे की कंपनियों ने यह ज़िम्मेदारी ली है लेकिन उन्हें सहयोग की ज़रूरत है। नारायण के मुताबिक रिसर्च के लिए धन के अलाना इन दवाओं के ज़रूरतमंदों तक पहुंचने की भी आवश्यकता है। मेडिकल जर्नल लैंसेट के मुताबिक एंटीबायोटिक प्रतिरोध के कारण जितने लोग मर रहे हैं दुनिया में उतने लोगों की मौत मलेरिया या एड्स से नहीं हो रही। 

पिछले 30 साल में  60% प्रजातियां में पक्षियों की संख्या घटी: रिपोर्ट

भारत में पिछले 30 वर्षों में जिन 338 प्रजातियों के पक्षियों की संख्या में बदलावों का अध्ययन किया गया, उनमें 60 प्रतिशत प्रजातियों की संख्या में गिरावट देखी गई। देशभर में 30 हजार बर्ड वॉचर्स से मिले आंकड़ों पर आधारित एक नई रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है। इसके अलावा, ‘स्टेट ऑफ इंडियाज बर्ड’ नामक इस रिपोर्ट के अनुसार, पिछले सात वर्षों में 359 प्रजातियों में हुए परिवर्तनों का मूल्यांकन किया गया। इसमें पाया गया कि 40 प्रतिशत (142) प्रजातियों में पक्षियों की संख्या कम हुई है।

मूल्यांकन की गई कुल 942 प्रजातियों में से 338 प्रजातियों को दीर्घकालिक रुझान के तहत रखा गया। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस), वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) और जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जेडएसआई) समेत 13 सरकारी व गैर-सरकारी संस्थानों के एक समूह द्वारा प्रकाशित की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि इनमें से 204 प्रजातियों की संख्या में गिरावट आई, 98 स्थिर रहीं और 36 में वृद्धि देखी गई।

पक्षियों का जैव विविधता में बड़ा महत्व है। वह कीड़ों की संख्या को नियंत्रित रखते हैं। परागण की क्रिया में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। कई प्रजातियों के बीज उनके पाचन तंत्र से निकल कर ही भूमि पर पुन: अंकुरित होते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि नॉर्दर्न शॉवेलर, नॉर्दर्न पिंटेल, कॉमन टील, टफ्टेड डक, ग्रेटर फ्लेमिंगो, सारस क्रेन, इंडियन कौरसर और अंडमान सर्पेंट ईगल समेत 178 प्रजातियों के वजूद को बड़ा खतरा है और इनकी पहचान उच्च वरीयता संरक्षण के लिये की गई है। 

इनमें इंडियन रोलर, कॉमन टील, नॉर्दर्न शॉवेलर और कॉमन सैंडपाइपर समेत 14 प्रजातियों की संख्या में 30 प्रतिशत या उससे अधिक की गिरावट आई है और उनका आईयूसीएन रेड लिस्ट के लिये मूल्यांकन की अनुशंसा की गई है।

राज्य से जुड़े लोगों का कहना है कि ऑइल पाम की खेती जैव विविधता को नष्ट कर देगी।

ऑइल पाम को लेकर भिड़ा मेघालय, जैव विविधता और किसानों के हितों का हवाला

केंद्रीय कैबिनेट ने दो साल पहले आधिकारिक रूप से घरेलू आइल पाम को बढ़ावा देने के लिए नीतिगत फैसले को मंज़ूरी दी लेकिन उत्तर पूर्वी राज्य मेघालय इसके पक्ष में नहीं है। महत्वपूर्ण है कि राज्य में एनडीए की सरकार है लेकिन नेशनल पीपुल्स पार्टी के लीडर और मेघालय औद्योगिक विकास कॉर्पोरेशन के चेयरमैन जेम्स के संगमा और राज्य के कृषि और स्वास्थ्य मंत्री एम ए लिंगदोह ने इसका विरोध किया है। इन लोगों का कहना है कि ऑइल पाम की खेती जैव विविधता को नष्ट कर देगी और राज्य के किसान भी इसके खिलाफ हैं। 

महत्वपूर्ण है कि इसी साल 25 जुलाई से 12 अगस्त के बीच कई राज्यों ने ऑइल पाम की खेती को बढ़ाने के लिए नेशनल मिशन फॉर एडिबल ऑइल्स — ऑइल पाम के तहते देश भर में कार्यक्रम किये थे। पतंजलि फूड और गॉदरेज एग्रोवेट जैसी कंपनियां इसे बढ़ा रही हैं। संगमा, जो पहले राज्य के वन और पर्यावरण मंत्री भी रह चुके हैं, ने कहा कि वह हमेशा ही ऑइल पाम की खेती के खिलाफ रहे हैं। 

भारत पूरी दुनिया में पाम ऑइल का सबसे बड़ा आयातक है और यहां इस तेल की सबसे अधिक खपत भी है। सरकार देश में 10 लाख हेक्टेयर से अधिक ज़मीन में इसकी खेती करना चाहती है और इसके उत्पादन को  2025-26 तक 11.20 लाख टन तक करना चाहती है। आज देश में आंध्र प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना  और गोवा के साथ उत्तर पूर्व के त्रिपुरा, नागालैंड, असम और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों को शामिल किया गया है। 

जी-20 में अनुपस्थित रहेंगे रूसी राष्ट्रपति पुतिन 

रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन भारत में हो रहे जी-20 सम्मेलन में अनुपस्थित रहेंगे। उनकी गैरमौजूदगी में विदेश मंत्री सर्जेई लेवरोव नुमाइंदगी करेंगे। यूक्रेन के साथ शुरु हुए युद्ध के बाद पुतिन ने पूर्व सोवियत संघ देशों के अलावा केवल ईरान की ही यात्रा की है। एक इंटरनेशन क्रिमनल कोर्ट के वॉरंट के बाद पुतिन ने हाल में दक्षिण अफ्रीका में हुए ब्रिक्स सम्मेलन में भी अनुपस्थित रहे। 

आतंकवाद, विश्व अर्थव्यवस्था और कोरोना महामारी के बाद उपजे हालात के साथ जी-20 में जलवायु परिवर्तन एक अहम मुद्दा है। इस समूह के देश दुनिया के करीब 80% कार्बन एमिशन के लिए ज़िम्मेदार हैं। जी-20 सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहा भारत चीन और अमेरिका के बाद तीसरे नंबर का सबसे बड़ा उत्सर्जक है और जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े शिकार देशों में है और विकासशील देशों के हितों को आगे बढ़ाने में उसकी भूमिका अहम है।   

‘इकोसाइड’ को अपराध घोषित करने के लिए क़ानून 

दुनिया के कई देश इकोसाइड को अपराध घोषित करने के लिए क़ानून बना रहे हैं हालांकि यह कितना प्रभावी होगा वह क़ानून की सख़्ती और क्रियान्वयन पर निर्भर है। अंग्रेज़ी समाचार पत्र  गार्डियन में प्रकाशित ख़बर के मुताबिक सबसे नए मामलों में मेक्सिको एक ऐसा देश है जहां पर्यावरणीय क्षति करने वाले को दंडित करने के लिये ऐसे क़ानून की मांग हो रही है। मेक्सिको के प्रस्तावित क़ानून में इकोसाइड क्राइम के लिए क़ानूनी जानकारों के अंतर्राष्ट्रीय पैनल द्वारा 2021 में तय परिभाषा को इस्तेमाल किया है। 

रूस, वियेतनाम और यूक्रेन ने ऐसे क़ानून बनाए हैं जहां पर्यावरण को गहरी क्षति पहुंचाने पर ‘इकोसाइड’ के  लिये मुकदमा और सज़ा हो सकती है। यूक्रेन नोआ कखोवा बांध को तोड़ने के लिए रूस के खिलाफ अपने देश के इकोसाइड लॉ के तहत जांच कर रहा है।  फ्रांस यूरोपीय यूनियन का पहला देश है जिसने इकोसाइड पर क़ानून बनाया लेकिन इसकी भाषा और प्रावधान उतने कड़े नहीं है जितना पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने अपेक्षा की थी।

वन संरक्षण का बढ़ा-चढ़ाकर आकलन करके जारी किए जा रहे हैं लाखों कार्बन क्रेडिट

साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, निर्वनीकरण या डीफॉरेस्टेशन रोकने के स्तरों का बढ़ा-चढ़ाकर आंकलन करके लाखों कार्बन क्रेडिट   जेनरेट किए जा रहे हैं। इसका मतलब है कि उत्सर्जन को संतुलित करने के लिए कंपनियों द्वारा खरीदे गए तमाम ‘कार्बन क्रेडिट’ वास्तव में वन संरक्षण से वैसे नहीं जुड़े हैं, जैसा कि उनको लेकर दावा किया गया है।

कार्बन क्रेडिट, या कार्बन ऑफसेट ऐसे परमिट होते हैं जो धारकों को एक निश्चित मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड या अन्य ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करने की अनुमति देते हैं।

कैम्ब्रिज और एम्स्टर्डम के व्रीजे विश्वविद्यालय के नेतृत्व में दुनिया भर के वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों की एक टीम ने पाया कि लाखों कार्बन क्रेडिट ऐसी गणनाओं पर आधारित हैं जो आरईडीडी+ परियोजनाओं की सफलताओं को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं। आरईडीडी+ यूएनएफसीसीसी द्वारा विकसित एक स्वैच्छिक जलवायु परिवर्तन शमन फ्रेमवर्क है, जिसके तहत विकासशील देशों को वन प्रबंधन जैसे विकल्पों के माध्यम से उत्सर्जन को कम करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और इन प्रयासों के लिए तकनीकी और वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण वनों की सुरक्षा में निवेश करके आरईडीडी+ योजनाएं कार्बन क्रेडिट जेनरेट करती हैं। यह क्रेडिट उस कार्बन को दर्शाते हैं जो अब उत्सर्जित नहीं होगा क्योंकि वनों को नहीं काटा जाएगा। कंपनियां, संस्थाएं या कोई व्यक्ति अपने कार्बन फुटप्रिंट को कम करने के लिए कार्बन क्रेडिट खरीद सकते हैं।

लेकिन इस रिसर्च ने पाया है कि जिन पेड़ों या वनों के बदले में यह कार्बन क्रेडिट जारी किए गए हैं वह वास्तव में हैं ही नहीं, नतीजन कार्बन उत्सर्जन कम होने की बजाय बढ़ा है। 

झरिया फायर ज़ोन से हर हफ्ते लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया जाएगा

सौ सालों से धधक रहे झरिया कोलफील्ड के डेंजर ज़ोन में रहने वाले लोगों को हर हफ्ते सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया जाएगा। धनबाद प्रशासन ने हर सप्ताह 10 से 15 परिवारों को डेंजर जोन से हटाने करने का निर्णय लिया है। 

मानसून के दौरान यह फायर ज़ोन और खतरनाक हो जाते हैं। केंद्र सरकार के झरिया मास्टर प्लान के तहत प्रभावित क्षेत्रों के निवासियों को अगस्त 2021 तक सुरक्षित स्थानों पर भेज दिया जाना चाहिए था, लेकिन आवास की कमी के कारण अब तक केवल 2,687 परिवारों का ही पुनर्वास किया जा सका है।
झरिया एक ऐसा इलाका है, जहां की जमीन पिछले 100 सालों से धधक रही है। ऐसा वहां जमीन के अंदर मौजूद कोयले की वजह से हो रहा है। यहां जमीन में मौजूद कोयले की वजह से अंदर ही अंदर आग जलती रहती है। झरिया में पहले भी जमीन धंसने और लोगों के हताहत होने के कई मामले सामने आ चुके हैं।

2021 में दिल्ली का वार्षिक औसत पार्टिकुलेट प्रदूषण 2.5 का स्तर 126.5 µg/m3 पाया गया, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देश से 25 गुना अधिक है।

दिल्लीवासियों के लगभग 12 साल खा रहा है वायु प्रदूषण: रिपोर्ट

शिकागो विश्वविद्यालय के ऊर्जा नीति संस्थान की 2023 की वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक (एक्यूएलआई) रिपोर्ट के अनुसार, वायु प्रदूषण दिल्ली के निवासियों के जीवन को लगभग 11.9 वर्ष कम कर देता है। गुणवत्ता जीवन सूचकांक जीवन प्रत्याशा पर पार्टिकुलेट प्रदूषण के प्रभाव को मापता है और यह रिपोर्ट जीवन प्रत्याशा पर इसके प्रभाव को निर्धारित करने के लिए 2021 के पार्टिकुलेट मैटर डेटा पर आधारित है।

रिपोर्ट के अनुसार  2021 में दिल्ली का वार्षिक औसत  पार्टिकुलेट प्रदूषण 2.5 का  स्तर 126.5 µg/m3 पाया गया, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के दिशानिर्देश 5 µg/m3 से 25 गुना अधिक है। 2020 में यह आंकड़ा थोड़ा कम 107 µg/m3 था । रिपोर्ट में कहा गया है कि पार्टिकुलेट मैटर प्रदूषण भारत में जीवन प्रत्याशा को कम करने में सबसे बड़ा खतरा है और यह  हृदय रोगों और बाल एवं मातृ कुपोषण को भी मात देता है। जबकि कणीय प्रदूषण औसत भारतीय के जीवन से 5.3 वर्ष कम कर देता है, हृदय रोगों से जीवन प्रत्याशा लगभग 4.5 वर्ष कम हो जाती है, और बाल और मातृ कुपोषण से जीवन प्रत्याशा 1.8 वर्ष कम हो जाती है।

अत्यधिक प्रदूषित हवा और कार्सिनोजेन्स के संपर्क में हैं एड हॉक वर्कर

गाजियाबाद में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि दोपहिया वाहनों पर सवार होकर भोजन वितरण करने वाले कर्मचारी अत्यधिक प्रदूषित हवा में सांस ले रहे हैं। गाजियाबाद में डिलीवरी कर्मचारी भारत के केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानकों की तुलना में बहुत अधिक स्तर पर कण पदार्थ और वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों के संपर्क में हैं। अध्ययन में यह भी पाया गया कि सर्वेक्षण में शामिल लगभग 67% श्रमिकों को उनके स्वास्थ्य पर प्रदूषण के प्रतिकूल प्रभाव के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। 

अध्ययन में दिसंबर 2020 में, वायु प्रदूषण के लिए चरम महीनों में से एक है, गाजियाबाद में 30 डिलीवरी व्यक्तियों के नमूना आकार को देखा गया । अध्ययन में यह भी पाया गया कि रात में प्रदूषण का जोखिम सबसे अधिक होता है, इसके बाद सुबह और दोपहर का समय आता है। यह भी पता चला कि यातायात जंक्शनों पर प्रदूषकों की सांद्रता डिलीवरी कर्मियों के स्वास्थ्य जोखिम को प्रभावित करने वाला एक प्रमुख पैरामीटर था।

गैस सिलिंडर की ऊंची कीमतें घर के अंदर प्रदूषण को दे रही हैं बढ़ावा 

एक नए अध्ययन में पाया गया है कि स्वच्छ ऊर्जा तक पहुंच में असमर्थता, नकारात्मक स्वास्थ्य प्रभावों के बारे में जागरूकता की कमी और एलपीजी सिलेंडर की ऊंची कीमतें भारतीय घरों में इनडोर वायु प्रदूषण को कम करने में बड़ी बाधाएं पैदा कर रही हैं। यह बायोमास के जलने के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में अनभिज्ञता की ओर भी इशारा करता है।अध्ययन के अनुसार लोग बायोमास जलने के कारण होने वाले घर के अंदर के धुएं को प्रदूषण नहीं मानते हैं, बल्कि इसे एक अस्थायी असुविधा के रूप में देखते हैं जिसका दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्रभाव नहीं होता है। यह अध्ययन भारत सरकार के पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय और दिल्ली सरकार के पर्यावरण विभाग के अधिकारियों द्वारा जारी किया गया था। 

रिपोर्ट इस तथ्य के साथ एलपीजी सिलेंडरों की ऊंची कीमत को रेखांकित करती है कि उन्हें एक बार में भुगतान करने की आवश्यकता होती है, जिससे कम आय वाले परिवारों के लोगों के लिए यह अप्रभावी हो जाता है। रिपोर्ट में महिलाओं को एलपीजी तक पहुंचने में अन्य प्रणालीगत मुद्दों का सामना करने पर जोर दिया गया है, जिसमें गैस कनेक्शन के लिए आवेदन करने के लिए दस्तावेज प्रस्तुत करने में असमर्थता भी शामिल है। साथ ही, एलपीजी के उपयोग के खिलाफ धारणाएं भी बाधाओं के रूप में सामने आती हैं। महिलाओं का मानना ​​है कि एलपीजी पर पकाए गए भोजन से गैस्ट्रिक समस्याएं होती हैं, स्वाद अच्छा नहीं होता है और एलपीजी का उपयोग करना असुरक्षित है। 

मध्य प्रदेश की बढ़ती पराली जलाने की समस्या हो रही है नज़रअंदाज़ 

भारत में जब वायु प्रदूषण की बात होती है तो पराली जलाने की भी होती है।  देश भर में पराली जलाने के मामले में मध्य प्रदेश धीरे-धीरे दूसरे स्थान पर पहुंच रहा है। मध्य प्रदेश में वर्ष 2020 में पराली जलाने के 49,459 मामले सामने आए, जबकि पंजाब में उसी वर्ष 92,922 मामले दर्ज किए गए। तब से, मध्य प्रदेश पराली जलाने के मामलों में पंजाब के बाद दूसरे स्थान पर बना हुआ है। मप्र में फसल की आग 2002 में 454 से लगभग दस गुना बढ़कर 2016 में 4,359 हो गई, जो औसत वार्षिक दर 64% है। 2016 में 4,359 से, राज्य में फसल की जलाने की गतिविधियां 2020 में बढ़कर 49,459 हो गई। हालाँकि, सरकारी प्रयासों और पराली जलाने के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत की फसल अवशेष प्रबंधन योजनाएँ देश भर में पराली जलाने की समस्या से निपटने के बजाय दिल्ली की वायु प्रदूषण समस्या पर केंद्रित हैं।

हालाँकि, केंद्र सरकार ने पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली की राज्य सरकारों को 2018 से 2023 तक 3,062 करोड़ रुपये  फसल अवशेषों के प्रभावी प्रबंधन के लिए जारी किए हैं । लेकिन इसकी तुलना में मध्य प्रदेश को केंद्र सरकार से इतनी वित्तीय सहायता नहीं मिली।

सरकार ने बताया है कि हरित हाइड्रोजन के उत्पादन में कितना होना चाहिए उत्सर्जन।

सरकार ने जारी की हरित हाइड्रोजन की परिभाषा, तय किए मानक

सरकार ने हरित हाइड्रोजन की परिभाषा देते हुए मानक जारी किए हैं और इसमें इलेक्ट्रोलिसिस और बायोमास-आधारित उत्पादन विधियों को भी शामिल किया है। नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय द्वारा जारी किए गए मानक वह उत्सर्जन सीमा तय करते हैं जिन्हें ‘हरित’ के रूप में वर्गीकृत किए जाने वाले हाइड्रोजन के उत्पादन हेतु पूरा किया जाना अनिवार्य है। 

मंत्रालय ने कहा है कि हरित हाइड्रोजन के उत्पादन में वेल-टू-गेट (यानी वाटर ट्रीटमेंट, इलेक्ट्रोलिसिस, गैस शुद्धिकरण, सुखाने और हाइड्रोजन संपीड़न सहित) उत्सर्जन 2 किलोग्राम CO2 इक्विवलैन्ट प्रति किलो H2 से अधिक नहीं होना चाहिए। ‘CO2 इक्विवलैन्ट प्रति किलो H2’ ग्रीनहाउस उत्सर्जन मापने की इकाई है।

इस अधिसूचना के साथ, भारत ग्रीन हाइड्रोजन की परिभाषा घोषित करने वाले दुनिया के पहले कुछ देशों में से एक बन गया है।

2050 तक नेट जीरो पर पहुंचने के लिए भारत को चाहिए 12.7 ट्रिलियन डॉलर का निवेश

भारत को 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन तक पहुंचने के लिए अपने एनर्जी सिस्टम में 12.7 ट्रिलियन डॉलर का निवेश करने की आवश्यकता होगी, जो देश की जीडीपी का तीन गुना से भी अधिक है।

भारत ने 2070 तक नेट जीरो उत्सर्जन प्राप्त करने का लक्ष्य रखा है, जो की दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से पीछे है। संयुक्त राष्ट्र प्रमुख एंटोनियो गुटेरेश पहले कह चुके हैं कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जरूरी है कि अमीर देश 2040 तक और विकासशील देश 2050 तक नेट-जीरो उत्सर्जन पर पहुंचने का प्रयास करें।

ब्लूमबर्गएनईएफ की रिपोर्ट के मुताबिक, 2050 तक नेट जीरो पाने के लिए भारत को अपने विशाल और कोयले पर निर्भर बिजली क्षेत्र को तेजी से साफ ऊर्जा की ओर ले जाना होगा। इसके लिए बड़े पैमाने पर हरित ऊर्जा में निवेश की आवश्यकता होगी। भारत में अभी भी 70% बिजली का उत्पादन कोयले से होता है।

बीएनईएफ के आंकड़ों के अनुसार इसके लिए 2050 तक हर साल 438 बिलियन डॉलर के निवेश की आवश्यकता होगी। ब्लूमबर्गएनईएफ के विश्लेषण के अनुसार भारत के लिए बिजली को अधिक लोगों तक पहुंचाने और साथ ही बिजली आपूर्ति को डीकार्बनाइज करने का सबसे सस्ता विकल्प है कि सौर और पवन ऊर्जा की स्थापना अधिक से अधिक की जाए।

2030 तक देश के ऊर्जा मिश्रण का 65% हिस्सा होगा गैर-जीवाश्म आधारित: ऊर्जा मंत्री

केंद्रीय ऊर्जा मंत्री आर के सिंह ने कहा है कि 2030 तक देश के ऊर्जा मिश्रण में नवीकरणीय ऊर्जा का हिस्सा 65 प्रतिशत होगा। उन्होंने कहा कि भारत में फिलहाल 186 गीगावॉट गैर-जीवाश्म ईंधन-आधारित बिजली उत्पादन करने की क्षमता है। “2015 में हमने लक्ष्य रखा था कि 2030 तक हमारे ऊर्जा मिश्रण में 40 प्रतिशत हिस्सा नवीकरणीय ऊर्जा का होगा। यह लक्ष्य हमने नौ साल पहले 2021 में हासिल कर लिया। अब 2030 का लक्ष्य है कि ऊर्जा मिश्रण का 65 प्रतिशत नवीकरणीय ऊर्जा हो,” उन्होंने कहा।

उन्होंने कहा कि सरकार ने हर साल 50 गीगावॉट नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता बढ़ाने की योजना बनाई है। वर्तमान में भारत में 423 गीगावॉट स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता है। इस वर्ष देश को 40 गीगावॉट अधिक बिजली की आवश्यकता होगी क्योंकि देश की बिजली मांग 14 प्रतिशत की दर से बढ़ी है।

हरित-अमोनिया आधारित एनर्जी स्टोरेज सिस्टम स्थापित करेगा भारत

भारत हरित अमोनिया-आधारित ऊर्जा भंडारण प्रणाली स्थापित करने की योजना बना रहा है, जिसके लिए जल्दी ही निविदा जारी की जाएगी। भारत को चौबीसों घंटे नवीकरणीय ऊर्जा की आवश्यकता है, जिसके लिए ऊर्जा भंडारण आवश्यक है। सरकार ने कहा कि जल्द ही भारत हरित अमोनिया को भंडारण के रूप में उपयोग करने के लिए बोलियां आमंत्रित करेगा। यदि यह प्रयास सफल होता है तो ऊर्जा भंडारण के लिए लिथियम-आयन बैटरी पर भारत की निर्भरता कम हो जाएगी।

हाल ही में भारत ने बैटरी ऊर्जा भंडारण प्रणालियों (बीईएसएस) और पंप भंडारण परियोजनाओं (पीएसपी) के लिए बोलियां आमंत्रित कीं। सरकार द्वारा महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन को शुरू करने के साथ, अगले दो से तीन वर्षों के भीतर हरित अमोनिया का उत्पादन बढ़ने वाला है। ग्रीन अमोनिया ग्रीन हाइड्रोजन का व्युत्पन्न है, दोनों को “ग्रीन” कहा जाता है यदि इनके निर्माण में इस्तेमाल होने वाली बिजली पूरी तरह से नवीकरणीय ऊर्जा के साथ उत्पादित होती है।

2022 में ईवी की बिक्री में 300% की वृद्धि हुई।

2030 तक ईवी क्षेत्र में पैदा होंगे 5 करोड़ रोज़गार: गडकरी

केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि 2030 तक देश में इलेक्ट्रिक वाहनों की सालाना बिक्री एक करोड़ यूनिट तक बढ़ने की उम्मीद है, जिससे पांच करोड़ रोजगार पैदा होंगे। उन्होंने कहा कि अभी भारत में पंजीकृत ईवी की संख्या 30 लाख है और 2022 में ईवी की बिक्री में 300% की वृद्धि हुई। उन्होंने कहा कि  भारत में 400 ईवी स्टार्ट-अप हैं और 2030 तक ईवी का बाजार 266 बिलियन डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है।

जी20 की अध्यक्षता कर रहे भारत ने समूह की बैठकों में खुद को तेज़ी से उभरते इलेक्ट्रिक चार्जर, इलेक्ट्रिक वाहन बैटरी निर्माण और बैटरी रीसाइक्लिंग के केंद्र के रूप में प्रस्तुत किया है। अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करने के लिए भारत सरकार ने लक्ष्य निर्धारित किया है कि 2030 तक 40% बसें, 30% निजी कारें, 70% कमर्शियल वाहन और 80 प्रतिशत दोपहिया वाहन इलेक्ट्रिक होंगे।

इस बीच, दिल्ली में नई ईवी नीति बन रही है, जिसका ध्यान कथित तौर पर चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर का विस्तार करने, दोपहिया ईवी की मांग बढ़ाने और सब्सिडी योजनाओं को और अधिक आकर्षक बनाने पर होगा।

बेहतर फंडिंग के लिए ईवी उद्योग को पीएसएल में शामिल कर सकती है सरकार

सरकार इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रायोरिटी लेंडिंग सेक्टर (पीएसएल) दिशानिर्देशों के अंतर्गत लाने के प्रस्ताव पर रिज़र्व बैंक के साथ चर्चा कर रही है। रायटर्स की एक रिपोर्ट में वित्त मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी के हवाले से कहा गया कि इस कदम से इस सेक्टर के लिए फंड जुटाना सस्ता हो जाएगा।

पीएसएल दिशानिर्देशों के अंतर्गत बैंकों को अपनी लोन बुक का 40% इन क्षेत्रों के लिए आवंटित करना होता है। वर्तमान में सात क्षेत्र — कृषि, सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई), निर्यात क्रेडिट, शिक्षा, आवास, सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर और नवीकरणीय ऊर्जा — पीएसएल श्रेणी के अंतर्गत आते हैं।

वित्त मंत्रालय के उक्त अधिकारी के अनुसार यह प्रस्ताव ऊर्जा मंत्रालय से आया है और इसके लिए एक विस्तृत जांच-पड़ताल की आवश्यकता है, जो की जा रही है। उम्मीद की जा रही है कि यह कदम इलेक्ट्रिक वाहनों का प्रयोग व्यापक रूप से बढ़ाने में सहायक होगा।

दिल्ली में कर्मचारियों की छंटनी के कारण रुका ईवी नीति 2.0 का काम

दिल्ली में इलेक्ट्रिक वाहन नीति 2.0 के साथ-साथ, कैब एग्रीगेटर और प्रीमियम बस सेवा कार्यक्रम जैसे महत्वपूर्ण प्रस्ताव भी अधर में लटके हैं क्योंकि राज्य के परिवहन विभाग के कई सलाहकारों, कंसल्टेंट्स और अन्य कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया गया है।

टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार कुल मिलाकर राज्य में लगभग 400 कर्मचारियों की नौकरी गई है, जिनमें 50 कर्मचारी परिवहन विभाग के भी हैं। यह नियुक्तियां कथित तौर पर एलजी की सहमति के बिना और आरक्षण नीतियों का उल्लंघन करके की गईं थीं।

परिवहन विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों ने कहा कि कैब एग्रीगेटर कार्यक्रम के लिए हितधारकों से बातचीत चल रही थी। कैब एग्रीगेटर्स और डिलीवरी सेवा प्रदाताओं को रेगुलेट करने की मसौदा योजना की कुछ मुख्य बातें हैं टैक्सियों में अनिवार्य पैनिक बटन, आपातकालीन रेस्पॉन्स नंबर ‘112’ के साथ इंटीग्रेशन और चरणबद्ध तरीके से इलेक्ट्रिक वाहनों में ट्रांजीशन आदि।

हालांकि दिल्ली के परिवहन मंत्री कैलाश गहलोत ने कहा कि रुकावटों के कारण काम की गति थोड़ी धीमी हो सकती है, लेकिन सरकार जनता का काम रुकने नहीं देगी।

50 करोड़ की सब्सिडी लौटाने वाली पहली ईवी निर्माता बनी रिवोल्ट

फेम-II योजना के दिशानिर्देशों के उल्लंघन की जांच में दोषी पाए जाने के बाद, रिवोल्ट इंटेलीकॉर्प प्राइवेट लिमिटेड ने जुर्माने के रूप में केंद्र सरकार को ब्याज सहित 50.02 करोड़ रुपए लौटा दिए हैं। ग्राहकों को सस्ते दरों पर घरेलू निर्मित इलेक्ट्रिक वाहन उपलब्ध कराने की इस योजना के अंतर्गत, इस कंपनी को 44.30 करोड़ रुपए सब्सिडी के रूप में प्राप्त हुए थे।  

भारी उद्योग मंत्रालय (एमएचआई) के संयुक्त सचिव हनीफ कुरैशी ने इकोनॉमिक टाइम्स को बताया कि रतनइंडिया के स्वामित्व वाली यह कंपनी अब फेम योजना के तहत सब्सिडी का अनुरोध करने के लिए स्वतंत्र है, बशर्ते सरकार इसकी अनुमति दे।

सरकार द्वारा 10,000 करोड़ की फेम-II योजना के तहत घरेलू निर्माण के दायित्वों को पूरा करने में विफल रहने के लिए 13 ईवी दोपहिया निर्माताओं की जांच की जा रही थी। इनमें से सात को फेम नियमों के उल्लंघन का दोषी पाया गया था, क्योंकि इनके द्वारा निर्मित ईवी टू-व्हीलर्स में अनुमति से अधिक आयातित घटकों का प्रयोग किया गया था।

रिवोल्ट ने यह रिफ़ंड जारी कर दूसरी दोषी पाए गए निर्माताओं से बिल्कुल विपरीत रुख अपनाया है, जो सरकार के दावे से लड़ रहे हैं। कुरैशी ने कहा कि कुछ अन्य कंपनियों ने भी सब्सिडी लौटाने का इरादा जताया है और सरकार ने उन्हें कुछ और समय देने का फैसला किया है। उन्होंने यह भी कहा कि अगर सब्सिडी नहीं लौटाई गई तो मंत्रालय कानूनी कार्रवाई करेगा।

चीन में छोड़े गए इलेक्ट्रिक वाहनों का लगा ढेर, यूरोप में घटे ग्राहक

इलेक्ट्रिक वाहन उद्योग में तेजी से आ रहे बदलाव के कारण दुनिया का सबसे बड़े ईवी निर्माता चीन के लिए नई समस्याएं खड़ी हो गईं हैं। चीन के शहरों में पुराने और छोड़े जा चुके इलेक्ट्रिक वाहनों का ढेर लग रहा है। भारी सब्सिडी देकर चीन ईवी प्रयोग के मामले में विश्व में अग्रणी बन गया, लेकिन अब देश के पार्किंग लॉट्स में छोड़े गए बैटरी वाहनों की भरमार हो गई है। यह वाहन संभवतः टैक्सी सेवा देने वाली ऐसी कंपनियों द्वारा छोड़े गए हैं जो बंद हो चुकी हैं, या फिर इसलिए क्योंकि वे पुराने हो गए थे और ईवी निर्माता अब अधिक सुविधाओं और लंबी दूरी वाले नए वाहन लॉन्च कर रहे हैं।  

दूसरी ओर, यूरोप में अधिकांश संभावित ग्राहक चीन के ईवी ब्रांड्स को नहीं पहचानते हैं। इन ब्रांड्स को यूरोप में अतिरिक्त लागत का सामना भी करना पड़ रहा है। यूरोप में इस साल अब तक बेचे गए इलेक्ट्रिक वाहनों में से 8% चीनी ब्रांड्स द्वारा बनाए गए थे, जो पिछले साल के 6% और 2021 के 4% से अधिक है। फिर भी, सर्वेक्षण बताते हैं कि यूरोप में अधिकांश संभावित ईवी खरीदार चीनी ब्रांड्स को नहीं पहचानते हैं। वहीं यूरोपीय निर्माताओं के मुकाबले चीनी वाहन बहुत सस्ते होते हैं, लेकिन लॉजिस्टिक्स, टैक्स, आयत शुल्क और यूरोपीय प्रमाणन मानकों को पूरा करने में अतिरिक्त लागत आती है जिससे उनके दाम बढ़ जाते हैं।

जी20 देशों में जीवाश्म ईंधन पर दी जाने वाली सब्सिडी ही लगभग 1 ट्रिलियन डॉलर है।

जी20 देशों ने 2022 में जीवाश्म ईंधन पर खर्च किए 1.4 ट्रिलियन डॉलर

एक नए अध्ययन के अनुसार, जी20 देशों की सरकारों ने 2022 में जीवाश्म ईंधन के लिए रिकॉर्ड 1.4 ट्रिलियन डॉलर (लगभग 116 लाख करोड़ रुपए) खर्च किए। अध्ययन के अनुसार ऐसा यूक्रेन युद्ध के कारण ईंधन की बढ़ती कीमतों को कम करने और ऊर्जा भंडार को मजबूत करने के लिए किया गया। कनाडा के स्वतंत्र थिंकटैंक इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट (आईआईएसडी) और उसके साझेदारों द्वारा जारी की गई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि यह राशि 2019 में कोविड और ऊर्जा संकट के पूर्व किए गए खर्च से दोगुनी से भी अधिक है।

इसमें जीवाश्म ईंधन सब्सिडी ($1 ट्रिलियन), सरकारी उद्यमों द्वारा निवेश ($322 बिलियन) और सार्वजनिक वित्तीय संस्थानों दिए गए लोन ($50 बिलियन) शामिल हैं।

रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि इस वर्ष जी20 देश अपनी जलवायु प्रतिबद्धताओं पर काम करने के लिए सहमत हों और सर्वाधिक गरीब तबके तक ऊर्जा पहुंचाने करने के लिए आवश्यक खर्च को छोड़कर जीवाश्म ईंधन पर सरकारी खजाने से किया जाने वाला सारा खर्च बंद करें। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जी20 अध्यक्ष के रूप में भारत ऐसा करने में विश्व का नेतृत्व कर सकता है क्योंकि इसने 2014 से 2022 तक अपनी जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को 76% कम किया है, जबकि साफ ऊर्जा के समर्थन में उल्लेखनीय वृद्धि की है।

जीवाश्म ईंधन सब्सिडी के मामले में भारत चौथे स्थान पर

जीवाश्म ईंधन पर दी जाने वाली सब्सिडी के मामले में भारत पूरी दुनिया में चौथे स्थान पर है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के एक वर्किंग पेपर में कहा गया है कि देश में जीवाश्म ईंधन पर लगभग 350 अरब डॉलर (28 लाख करोड़ रुपए से अधिक) की सब्सिडी दी जाती है। इस मामले में पहला स्थान चीन का है, जबकि अमेरिका और रूस क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। पाचंवा स्थान संयुक्त रूप से यूरोपीय संघ और जापान का है।

जीवाश्म ईंधन पर दी जाने वाली कुल सब्सिडी के दो भाग होते हैं: स्पष्ट सब्सिडी (यानी ईंधन की आपूर्ति के लिए लागत से कम शुल्क लेना) और अंतर्निहित सब्सिडी (पर्यावरणीय क्षति के लिए कम शुल्क और उपभोग कर में कटौती)। भारत में ‘उज्जवला’ योजना के तहत घरेलू एलपीजी के लिए स्पष्ट या प्रत्यक्ष सब्सिडी दी जाती है, जबकि विभिन्न प्रकार के ईंधन को दूरदराज के स्थानों तक ले जाने के लिए कुछ परिवहन सब्सिडी भी दी जाती है। पेपर में कहा गया है कि भारत में अंतर्निहित और स्पष्ट दोनों तरह की सब्सिडी मिलकर लगभग 346 अरब डॉलर होने का अनुमान है, जो जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का 10 प्रतिशत से अधिक है।

सुधरने को तैयार नहीं हैं तेल और गैस कंपनियां 

अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की अगस्त 2023 की आयल मार्केट रिपोर्ट के अनुसार, तेल और गैस उद्योग इस साल अपस्ट्रीम निवेश (कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस की खोज, ड्रिलिंग और निष्कर्षण आदि में निवेश) को 2015 के बाद सबसे बड़े स्तर तक बढ़ाने के लिए तैयार है। प्रमुख यूरोपीय तेल कंपनियों बीपी और शेल ने यह दिखावा करना भी छोड़ दिया है कि वे तेजी से एनर्जी ट्रांज़िशन करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव दुनिया भर में देखे जा रहे हैं, फिर भी बीपी ने तेल उत्पादन में कटौती की प्रतिबद्धता को दरकिनार कर दिया है, वहीं शेल का ध्यान शेयरधारकों को मुनाफा पहुंचाने और तेल और गैस का उत्पादन करने में पूंजी लगाने पर है। परिणामस्वरूप, तेल कंपनियों का स्वच्छ ऊर्जा पर पूंजीगत व्यय (जिसमें जैव ईंधन और सीसीएस भी शामिल हैं) अपस्ट्रीम तेल और गैस पर पूंजीगत व्यय के मुकाबले बहुत कम है।

गरीब देशों को जीवाश्म ईंधन पर निर्भर रहने के लिए मजबूर करते हैं अमीर देश: रिपोर्ट

कर्ज से लदे गरीब देश राजस्व के लिए जीवाश्म ईंधन पर निर्भर रहने के लिए मजबूर हैं, ऐसा ऋण-विरोधी प्रचारक संस्था डेट जस्टिस और प्रभावित देशों में इसके साझेदारों द्वारा जारी की गई एक नई रिपोर्ट में कहा गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि कोविड महामारी जैसे आर्थिक संकटों से निपटने के लिए इन देशों ने अमीर देशों और निजी कर्जदाताओं से भारी कर्ज लिए हैं। जिसके भुगतान के लिए इन्हें जीवाश्म ईंधन पर निर्भर रहना पड़ता है।

ज्यादातर ग्लोबल साउथ के इन देशों में जीवाश्म ईंधन को फेजआउट करना और नवीकरणीय ऊर्जा की ओर ट्रांज़िशन करना लगभग असंभव है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं से जितना राजस्व मिलने की उम्मीद होती है उतना प्राप्त नहीं होता, और अपेक्षित रिटर्न प्राप्त करने के लिए भी भारी निवेश की आवश्यकता होती है। ऐसे में परियोजना के लाभप्रद नहीं होने से कर्ज और बढ़ जाता है।

रिपोर्ट में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया है कि ग्लोबल साउथ देशों में जीवाश्म ईंधन पर किए जाने वाले निवेश को रोकने के कई आश्वासनों के बावजूद, अमीर देश और बहुपक्षीय और द्विपक्षीय कर्जदाता “अक्सर कर्ज के द्वारा जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं को वित्तपोषित करते हैं, जिससे (गरीब देशों पर) कर्ज का बोझ बढ़ जाता है और वह जीवाश्म ईंधन उत्पादन में बंध जाते हैं”।

रिपोर्ट में गरीब देशों को इस समस्या से मुक्ति दिलाने के उपायों के बारे में भी बताया गया है।