Vol 1, August 2023 | हिमाचल में बाढ़ से 300 से अधिक लोगों की मौत, उत्तराखंड में भी हाहाकार

Newsletter - August 16, 2023

हिमालयी राज्यों में तबाही: हिमाचल, उत्तराखंड में बाढ़ और भूस्खलन जारी

हिमाचल प्रदेश अब तक की सबसे भयानक बाढ़ और आपदा का सामना कर रहा है। पिछले एक महीने से यहां कई मार्ग बन्द हैं और बार-बार बाढ़ और भूस्खलन से तबाही की तस्वीरें  आ रही हैं। राज्य के कुल्लू, मंडी, सिरमौर और शिमला ज़िलों से तबाही की ख़बरें आई और अब तक 300 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है और 50 से अधिक लोग लापता हैं। उधर पड़ोसी राज्य उत्तराखंड के कई इलाकों में बाढ़ और भूस्खलन से हाहाकार मच गया है। 

हिमाचल में सेब बागान और पर्यटन चौपट: हिमाचल में आपदा की मार सेब के बागानों पर पड़ी है। पहले बर्फबारी न होने और असामान्य तापमान और लगातार बारिश के कारण सेब में फंगस के साथ कई बीमारियां आ गई। अनुमान है कि सेब के उत्पादन में इस साल 50 प्रतिशत से अधिक की गिरावट होगी। इसके अलावा भारी बारिश और भूस्खलन के कारण सड़कें बन्द हो जाने से किसान सेब को मंडियों तक नहीं पहुंचा पा रहे और यह कारोबार में एक और बड़ी दिक्कत है।

दूसरी ओर पर्यटन में भी बाढ़ और खराब मौसम ने बड़ी चोट की है। यह राज्य की अर्थव्यवस्था के लिये बहुत बड़ा संकट है क्योंकि कृषि और पर्यटन मिलकर हिमाचल की जीडीपी में करीब 17 प्रतिशत का योगदान करता है और 70 प्रतिशत लोगों को इन्हीं दो व्यवसायों में रोज़गार मिला है। जानकारों का कहना है कि चरम मौसमी घटनाओं और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के बढ़ने के साथ यह संकट आने वाले दिनों में और अधिक बढ़ सकता है।  

उत्तराखंड के गौरीकुण्ड में लापता लोगों में से 8 के शव मिले: उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग ज़िले में स्थित गौरीकुण्ड में 3-4 अगस्त की रात  भारी बारिश और भूस्खलन से 23 लोग लापता हो गए थे। इनमें से आठ लोगों के शव मिल गए हैं, जबकि 15 की तलाश जारी है। गौरीकुण्ड केदारनाथ धाम के रास्ते में महत्वपूर्ण पड़ाव है। यहां मंदाकिनी नदी में उफान के कारण तीन दुकानों के बह जाने से यह हादसा हुआ। लापता लोगों में अधिकांश नेपाली श्रमिक थे। 

उत्तर भारत में सबसे मज़बूत और मध्य भारत में कमज़ोर हो रहा अल निनो, ला निना प्रभाव 

एक नए अध्ययन में पता चला है कि पिछले कुछ दशकों में उत्तर भारत के मॉनसून पर अल निनो और ला निना प्रभाव “असामान्य रूप से शाक्तिशाली” हुआ है जबकि मध्य भारत क्षेत्र में यह कमज़ोर हुआ है। यह एक बड़ा महत्वपूर्ण बदलाव है क्योंकि इन क्षेत्रों में कृषि और रोज़गार मौसमी बारिश पर काफी हद तक निर्भर हैं।

यह अध्ययन पुणे स्थित इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मैटरिलॉजी के क्लाइमेट साइंटिस्ट रॉक्सी मैथ्यू कॉल की अगुवाई में किया गया जिसमें पाया गया कि समय बीतने के साथ अल निनो और ला निना के बीच व्यवहार में एक नया बदलाव आया है। बीसवीं सदी के पहले 40 सालों में (1901 से 1940 तक) यह  मज़बूत हुआ और फिर अगले 40 सल यानी 1980 तक स्थिर रहा और उसके बाद कमज़ोर हुआ है। 

हालांकि यह बदलाव पूरे देश में इस दौरान एक समान नहीं रहे हैं। दक्षिण भारत में ईएनएसओ और मॉनसून के रिश्ते में कोई बड़ा उतार-चढ़ाव नहीं हुआ है। इसका मतलब है कि मॉनसून पर ला निना और एल निनो  का सर्वाधिक प्रभाव अब उत्तर भारत में और सबसे कम प्रभाव मध्य भारत में हो रहा है। 

अत्यधिक भू-जल दोहन का ख़तरा, दिल्ली-एनसीआर में धंस रही ज़मीन

एक नए शोध से पता चला है कि दिल्ली और आसपास के इलाकों में भू-जल के अत्यधिक दोहन के कारण ज़मीन में धंसाव हो रहा है। इस कारण बहुमंज़िला इमारतों और घरों में दरारें दिख रही है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के शोधार्थी ने 2020 में भू-जल निकासी और भू-धंसाव में संबंध स्थापित किया था। शोधकर्ताओं ने दिल्ली के अलावा चंडीगढ़, कोलकाता, गांधीनगर और अंबाला जैसे शहरों में भूधंसाव के खतरे की ओर संकेत दिया है। इस बारे में विस्तार से आप यहां पढ़ सकते हैं। 

हवाई के जंगलों में आग, 106 लोगों की मौत 

अमेरिका के हवाई द्वीप में भयानक आग से 106 लोगों की मौत हो गई।  करीब एक हज़ार लोग लापता हैं और पूरा इलाका तबाह हो गया। इतनी भयानक आग के कारण अभी स्पष्ट नहीं है लेकिन तापमान वृद्धि के कारण यहां काफी सूखा पड़ गया था। इसके बाद यहां प्रशांत महासागर से उठे चक्रवाती तूफान डोरा के कारण आग भड़क गई। विशेषज्ञों का कहना है कि हवाई द्वीप श्रंखला में आग का ख़तरा लगातार बढ़ा है और पिछली एक सदी में यहां आग की ज़द में आने वाले क्षेत्रफल में कोई 400% का वृद्धि हुई है। 

इस आग से हुई क्षति के बाद अर्ली वॉर्निंग को लेकर भी सवाल खड़े हुये हैं। क्या यहां लोगों को आग से संभावित ख़तरे की जानकारी समय रहते नहीं दी गई। हवाई के अटॉर्नी जनरल ने कहा है कि इसका सम्पूर्ण रिव्यू किया जाएगा। 

पिघल रहा है विश्व का सबसे बड़ा पर्माफ्रॉस्ट क्रेटर, दुनिया के लिए खतरे की घंटी 

रूस के साखा गणराज्य में बटागाइका क्रेटर खतरनाक दर से पिघल रहा है और इसका विस्तार हो रहा है।

वैज्ञानिकों का मानना ​​है कि बढ़ते तापमान और उच्च मानवजनित दबाव के कारण, विश्व में इस तरह के मेगास्लंप और देखने को मिलेंगे,  जब तक सारी स्थायी तुषार भूमि, यानी पर्माफ्रॉस्ट खत्म नहीं हो जाती।

यह 100 मीटर (328 फीट) गहरा क्रेटर 1960 के दशक में बनना शुरू हुआ जब आसपास के जंगल साफ कर दिए गए और भूमिगत पर्माफ्रॉस्ट पिघलना शुरू हुआ, जिससे जमीन धंसने लगी।

स्थानीय लोग जिसे ‘केव-इन’ कहते हैं वह 1970 के दशक में पहले एक खड्ड के रूप में विकसित हुआ और अंततः गर्म दिनों के दौरान पिघलने से उसमें विस्तार होने लगा। पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से उत्तरी और उत्तरपूर्वी रूस के शहरों और कस्बों में सड़कों का खिसकना, घरों का टूटना और पाइपलाइनों का बाधित होना शुरू हो चुका है।

यदि यह पिघलना जारी रहता है तो इससे कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और ग्रीनहाउस गैसों का अधिक उत्सर्जन होगा, जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ेगी।

संशोधित वन संरक्षण अधिनियम के अनुसार 'डीम्ड फॉरेस्ट' को संरक्षित भूमि की परिभाषा के बाहर रखा गया है।

ओडिशा ने नए वन संरक्षण कानून के तहत दिया ‘डीम्ड फॉरेस्ट’ की समाप्ति का आदेश लिया वापस

ओडिशा सरकार ने ‘डीम्ड फॉरेस्ट’ की श्रेणी समाप्त करने के अपने फैसले पर रोक लगा दी है और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के विस्तृत नियमों और दिशानिर्देशों की प्रतीक्षा करने का फैसला लिया है।   

इससे पहले, ओडिशा सरकार ने 11 अगस्त को जिला-स्तर के अधिकारियों को भेजे गए एक पत्र में कहा था कि वन-भूमियों का गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए प्रयोग करने के अनुरोधों पर निर्णय अब संशोधित वन अधिनियम के अनुरूप होना चाहिए, साथ ही ‘डीम्ड फॉरेस्ट’ की श्रेणी अब समाप्त की जाती है।

‘डीम्ड फॉरेस्ट’ ऐसी भूमि को कहा जाता है जिसे केंद्र या राज्यों द्वारा वन-भूमि के रूप में दर्ज नहीं किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में राज्यों को ऐसी भूमियों को वनों के ‘पारंपरिक’ अर्थ के अंतर्गत लाने का आदेश दिया था।

ओडिशा में इकोलॉजिकल रूप से महत्वपूर्ण माने जाने वाले वनों को प्रभावित करने वाले इस कदम के कारण सरकार की आलोचना हो रही थी।

संशोधित वन संरक्षण अधिनियम के अनुसार ‘डीम्ड फॉरेस्ट’ को संरक्षित भूमि की परिभाषा के बाहर रखा गया है

वन संरक्षण (संशोधन) विधेयक को मानसून सत्र के दौरान सदन में पारित किया गया था और 4 अगस्त को इसे राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मंजूरी मिल गई। केंद्र सरकार द्वारा राजपत्र में अधिसूचित करते ही यह कानून लागू हो जाएगा।

इस अधिनियम के तहत संरक्षित भूमि का उपयोग केंद्र के साथ-साथ संबंधित क्षेत्रों की ग्राम पंचायतों की सहमति के बिना नहीं किया जा सकता है। जो लोग संरक्षित भूमि का उपयोग गैर-वानिकी उद्देश्यों के लिए करते हैं, उनपर भारी आर्थिक दंड लगाने के साथ ही यह कानून उनपर नष्ट किए गए क्षेत्र से दोगुनी भूमि के बराबर भूखंड पर पेड़ लगाने का दायित्व भी डालता है।

अधिनियम में संशोधन के बाद उन सभी भूमियों पर वाणिज्यिक गतिविधियों का खतरा मंडरा रहा है जो आधिकारिक तौर पर ‘वन’ के रूप में वर्गीकृत नहीं हैं

कूनो में जारी मौतें, विशेषज्ञों ने सौंपी रिपोर्ट

कूनो नेशनल पार्क में पिछले दिनों एक और चीते की मौत के बाद अबतक नौ चीतों की मौत हो चुकी है। लेकिन सरकार ने फिर कहा है कि फिलहाल चीतों को कूनो से बाहर भेजने की उनकी कोई योजना नहीं है

2 अगस्त की सुबह मादा चीता धात्री मृत पाई गई। 6 अगस्त को पर्यावरण मंत्री भूपेंदर यादव ने कहा कि सरकार स्थिति की गंभीरता को समझती है और कूनो में “सभी वन अधिकारी और पशुचिकित्सक बहुत मेहनत कर रहे हैं”।  

इससे पहले, 1 अगस्त को पर्यावरण मंत्रालय और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि कूनो राष्ट्रीय उद्यान के अलावा, उन्होंने मध्य प्रदेश और राजस्थान में चीतों के लिए संभावित स्थलों की पहचान की है। 

पिछले महीने रेडियो कॉलर के कारण गर्दन पर लगे घावों में संक्रमण के कारण दो चीतों की मौत हो गई थी। हालांकि, भूपेंदर यादव ने इस संक्रमण के लिए मानसून-जनित कीड़ों को जिम्मेदार ठहराया।

जानकारों का कहना है कि भारी बारिश, अत्यधिक गर्मी और नमी के कारण समस्याएं हो सकती हैं, और “चीतों की गर्दन के चारों ओर लगे कॉलर संभावित रूप से अतिरिक्त जटिलताएं पैदा कर रहे हैं”।

इन मौतों के बाद, दो मादाओं को छोड़कर सभी चीतों को जांच के लिए उनके बाड़ों में वापस ले आया गया था और उनके कॉलर निकालकर घावों को साफ़ किया गया था। जो दो मादाएं बाहर थीं उनमें धात्री की मौत 2 अगस्त को हो गई, जबकि एक और मादा ‘निरवा’ लापता हो गई थी क्योंकि उसके रेडियो कॉलर ने काम करना बंद कर दिया था। ‘निरवा’ को 22 दिनों की खोज के बाद वापस पकड़ा जा सका, और बताया जा रहा है कि वह स्वस्थ है।

इसी बीच अफ्रीका के विशेषज्ञों ने सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी है और बताया है कि कैसे चीतों को सुरक्षित भारत में बसा कर इस प्रोजेक्ट को सफल बनाया जा सकता है।

नए कानून से लिथियम आदि खनिजों के निजी खनन का रास्ता साफ

निजी क्षेत्र को लिथियम सहित 12 परमाणु खनिजों में से छह और सोने और चांदी जैसे खनिजों के खनन की अनुमति देने वाले एक विधेयक को मानसून सत्र के दौरान संसद में पारित किया गया। पिछले महीने लोकसभा से मंजूरी मिलने के बाद यह विधेयक 2 अगस्त को राज्यसभा में पारित हो गया। इसे 4 अगस्त को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई।

यह विधेयक खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 में संशोधन करके 29 खनिजों की खोज और खनन में निजी भागीदारी की अनुमति देता है, जिनमें सोना, चांदी, तांबा, कोबाल्ट, निकल, सीसा, पोटाश, रॉक फॉस्फेट, बेरिलियम और लिथियम शामिल हैं।

लिथियम का इस्तेमाल इलेक्ट्रिक वाहनों और ऊर्जा भंडारण उपकरणों के लिए बैटरी के निर्माण हेतु किया जाता है।

यह कानून केंद्र सरकार को कुछ महत्वपूर्ण खनिजों के लिए विशेष रूप से खनन पट्टे और मिश्रित लाइसेंस की नीलामी करने का अधिकार भी देता है।

कर्नाटक में बढ़ी हाथियों की संख्या

ताजा सर्वेक्षण के अनुसार कर्नाटक में हाथियों की आबादी 6,049 से बढ़कर 6,395 हो गई है

राज्य के वन मंत्री ईश्वर खंडरे ने मई में हुई हाथियों की जनगणना की रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि 2017 में आयोजित अंतिम जनगणना की तुलना में 346 हाथी अधिक पाए गए हैं

कर्नाटक में 6,104 वर्ग किमी में फैले 32 वन मंडलों में हाथियों की संख्या का अनुमान लगाने के लिए गणना की। खंडरे ने बताया कि सर्वेक्षण के दिन 23 मंडलों में हाथी पाए गए और 2,219 हाथियों की सीधे गणना की गई। वन विभाग ने हाथियों की औसत संख्या जानने के लिए विशेषज्ञों द्वारा विकसित एक फार्मूले का प्रयोग किया।

गौरतलब है कि पूरे देश में हाथियों के हैबिटैट लगातार सिकुड़ रहे हैं और उनकी संख्या घटी है। हालांकि, पिछले कुछ सालों में सरकार ने एलीफैण्ट रिज़र्व की संख्या बढ़ाई है। फिर भी इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और अवैज्ञानिक विस्थापन के कारण हाथियों के बसेरे (हैबिटैट) लगातार नष्ट हो रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन के कारण नष्ट हो रही हैं भाषाएं

संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, आज दुनिया में जो भाषाएं बोली जाती हैं, उनमें से आधी इस सदी के अंत तक लुप्त या गंभीर रूप से लुप्तप्राय हो जाएंगी

भाषाओं के लुप्त होने के कई कारण हैं, लेकिन हाल ही में जलवायु परिवर्तन एक महत्वपूर्ण कारण के रूप में उभर रहा है।

जलवायु आपदाओं के कारण पलायन करने को मजबूर समुदाय अक्सर अपनी भाषा भावी पीढ़ियों तक नहीं पहुंचा पाते, यदि वह ऐसी जगह पलायन करते हैं जहां उनकी भाषा मुख्य रूप से नहीं बोली जाती है।

दुनिया में सबसे अधिक भाषाई विविधता वाले देशों में से कुछ इंडो-पैसिफिक में हैं और यही क्षेत्र विशेष रूप से पर्यावरणीय आपदाओं के प्रति संवेदनशील भी है। ग्लोबल ट्रेंड्स रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में 108 मिलियन से अधिक लोग जबरन विस्थापित हुए। दक्षिण एशिया, पूर्वी एशिया और पैसिफिक क्षेत्र में होने वाला लगभग पूरा आंतरिक विस्थापन जलवायु संबंधी आपदाओं, जैसे बाढ़ और तूफान के कारण हुआ।
चूंकि दक्षिण एशिया, पूर्वी एशिया और पैसिफिक क्षेत्र बड़ी संख्या में लुप्तप्राय भाषाओं का घर है, और यहां जलवायु आपदाओं के कारण बड़े पैमाने पर विस्थापन भी होता है, इसलिए भविष्य में इस क्षेत्र में विशेष रूप से भाषाओं का नुकसान हो सकता है।

एंटीबायोटिक प्रतिरोध वैश्विक स्वास्थ्य के लिए सबसे तेजी से बढ़ते खतरों में से एक है जिससे प्रति वर्ष 13 लाख लोग अपनी जान गवा रहे हैं।

वायु प्रदूषण एंटीबायोटिक प्रतिरोधक क्षमता को दे रहा है बढ़ावा

एक वैश्विक अध्ययन से पता चलता है कि वायु प्रदूषण एंटीबायोटिक प्रतिरोध को बढ़ाने में मदद कर रहा है, जो दुनिया भर में लोगों के स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा है। लगभग दो दशकों के दौरान किए गए 100 से अधिक देशों के डेटा के विश्लेषण से पता चलता है कि वायु प्रदूषण में वृद्धि के फलस्वरूप हर देश और महाद्वीप में लोगों में एंटीबायोटिक दवाओं से प्रतिरोधक क्षमता बढ़ रही है। इससे यह भी पता चलता है कि समय के साथ इन दोनों प्रक्रियाओं के बीच संबंध मजबूत हुआ है, वायु प्रदूषण के स्तर में वृद्धि के साथ-साथ एंटीबायोटिक प्रतिरोधक क्षमता में भी बड़ी वृद्धि हुई है। 

एंटीबायोटिक प्रतिरोध वैश्विक स्वास्थ्य के लिए सबसे तेजी से बढ़ते खतरों में से एक है। अनुमान के मुताबिक, यह किसी भी देश में किसी भी उम्र के लोगों को प्रभावित कर सकता है और पहले से ही प्रति वर्ष 13 लाख लोगों की जान ले रहा है। मुख्य कारण अभी भी एंटीबायोटिक दवाओं का दुरुपयोग और अति प्रयोग है, जिनका उपयोग संक्रमणों के इलाज के लिए किया जाता है। लेकिन अध्ययन से पता चलता है कि वायु प्रदूषण के बढ़ते स्तर से समस्या और गंभीर हो रही है। साक्ष्य बताते हैं कि सूक्ष्म कण वायु प्रदूषकों (पीएम2.5) में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया और प्रतिरोधी जीन हो सकते हैं।

वरिष्ठ आयुवर्ग में कई तरह के कैंसर का खतरा बढ़ा रहा है वायु प्रदूषण

हार्वर्ड टी.एच. के नेतृत्व में एक अध्ययन के अनुसार सूक्ष्म कण वायु प्रदूषकों (पीएम2.5) और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (एनओ2) के लगातार संपर्क से वरिष्ठ आयुवर्ग के लोगों में फेफड़े के कैंसर के अलावा बाकी कैंसरो का खतरा भी बढ़ सकता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि एक दशक तक पीएम2.5 और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के संपर्क में रहने से कोलोरेक्टल और प्रोस्टेट कैंसर विकसित होने का खतरा बढ़ गया।

वायु प्रदूषण का निम्न स्तर भी लोगों को इन कैंसरों के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील बना सकता है। शोधकर्ताओं ने 2000 से 2016 तक एकत्र किए गए 65 वर्ष या उससे अधिक आयु वाले लोगों के डेटा का विश्लेषण किया। अध्ययन की अवधि के कम से कम शुरुआती दस वर्षों के दौरान सभी लोग कैंसर से मुक्त थे। 

शोधकर्ताओं ने पाया कि ऐसे समुदाय जो स्वच्छ हवा में रहते हैं, वह भी इस खतरे से पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। उन्होंने पाया विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के नए दिशानिर्देशों से नीचे के प्रदूषण स्तर पर भी, इन दो प्रदूषकों के संपर्क में आने से सभी चार प्रकार के कैंसरों का खतरा बना रहता है।

कम उत्सर्जन वाले क्षेत्रों में घटी स्वास्थ्य समस्याएं: शोध

वायु प्रदूषण के खिलाफ लड़ाई में एक अच्छी खबर सामने आई है। क्लीन एयर लो एमिशंस ज़ोन या साफ़ हवा और कम उत्सर्जन वाले क्षेत्रों पर किए गए एक शोध से पता चला है कि इन क्षेत्रों में रहने से जनता के स्वास्थ्य में सुधार आता है।

क्लीन एयर लो एमिशंस ज़ोन में प्रदूषण फैलाने वाले शहरी वाहनों का प्रवेश प्रतिबंधित होता है। इंपीरियल कॉलेज, लंदन की एक टीम ने पूरे यूरोप में 320 से अधिक कम उत्सर्जन वाले क्षेत्रों में किए गए उपलब्ध स्वास्थ्य अध्ययनों का विश्लेषण किया और पाया कि उन क्षेत्रों में वायु प्रदूषण से जुड़ी सभी स्वास्थ्य समस्याओं की व्यापकता में कमी आई है।

शोध टीम ने कहा कि स्वच्छ वायु वाले क्षेत्रों में रहने से होने वाले सबसे बड़े स्वास्थ्य लाभों में हृदय और संचार संबंधी रोगों में कमी के साथ-साथ दिल के दौरे और स्ट्रोक में कमी शामिल है। रक्तचाप की समस्याएं भी कम हो गईं, जिसका सबसे बड़ा लाभ वरिष्ठ लोगों को हुआ।

जकार्ता बना दुनिया का सबसे प्रदूषित प्रमुख शहर

वायु गुणवत्ता निगरानी फर्म आईक्यूएयर के अनुसार, इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता दुनिया का सबसे प्रदूषित प्रमुख शहर बन गया है। जकार्ता कई दिनों से वैश्विक प्रदूषण चार्ट में शीर्ष पर है क्योंकि अधिकारी जहरीली धुंध में वृद्धि से निपटने में विफल रहे हैं।

अनुमान है कि वायु प्रदूषण से हर साल सत्तर लाख लोगों की असामयिक मौत हो जाती है और संयुक्त राष्ट्र द्वारा इसे सबसे बड़ा पर्यावरणीय स्वास्थ्य जोखिम माना गया है।

जकार्ता और इसके आसपास के इलाके मिलकर एक महानगर बनाते हैं जिसमें लगभग 30 मिलियन लोग रहते हैं। इस इलाके में पीएम2.5 के कंसंट्रेशन ने पिछले सप्ताह के दौरान रियाद, दोहा और लाहौर सहित अन्य भारी प्रदूषित शहरों को भी पीछे छोड़ दिया है।

सरकार का कहना है कि ग्रीन हाइड्रोजन मिशन भारत के निर्यात में कार्बन कंटेंट कम करने के इरादे से लाया जा रहा है।

हरित हाइड्रोजन खरीदने वाले देशों को कार्बन क्रेडिट जारी कर सकता है भारत

ऊर्जा मंत्री आर के सिंह ने कहा है कि भारत उन देशों को कार्बन क्रेडिट हस्तांतरण करने के लिए तैयार है जो उससे हरित हाइड्रोजन खरीदते हैं और वह जापान और अन्य देशों के साथ बातचीत कर रहा है जिनके साथ वह ऐसा समझौता कर सकता है।

कार्बन क्रेडिट, या कार्बन ऑफसेट ऐसे परमिट को कहा जाता है जो किसी उत्सर्जक को एक निश्चित मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड या अन्य ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करने की अनुमति देते हैं। जो उत्सर्जक अपने उत्सर्जन में सीधे कटौती नहीं कर सकते वह कार्बन क्रेडिट के माध्यम से अपने क्लाइमेट एक्शन की भरपाई कर सकते हैं। जिन कार्बन क्रेडिट धारकों ने अपना क्लाइमेट टारगेट पूरा कर लिया है, वह बचे हुए क्रेडिट को कार्बन क्रेडिट मार्केट में बेच सकते हैं।  

देश में कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग का ढांचा पहले से प्रचलित नवीकरणीय ऊर्जा प्रमाणपत्र (आरईसी) की व्यवस्था की तरह है। यह प्रमाणपत्र प्रदूषण करने वाले उद्योगों को बाज़ार आधारित उपकरण खरीदकर अपनी हरित ऊर्जा प्रतिबद्धताओं को पूरा करने की अनुमति देते हैं। लेकिन आरईसी काफी हद तक स्वैच्छिक हैं, वहीं दूसरी ओर उद्योगों के लिए कार्बन क्रेडिट के नियमों का अनुपालन अनिवार्य होगा।

इसके अलावा, भारत द्वारा कार्बन क्रेडिट के निर्यात से स्वच्छ ऊर्जा का उत्पादन करने वाले उद्योगों को पूंजी प्राप्त करने में मदद मिलेगी। जून में केंद्र ने देश के कार्बन बाजार की मॉनिटरिंग के लिए एक समिति का गठन किया था।

2022 तक 100 गीगावाट सौर ऊर्जा के लक्ष्य का 70% हासिल कर सका भारत

भारत ने 2022 तक 100 गीगावाट सौर ऊर्जा क्षमता का लक्ष्य रखा था और जून 2023 तक 70.10 गीगावाट हासिल कर लिया है, जबकि अन्य 55.60 गीगावाट की क्षमता निर्माणाधीन है।

सरकार ने संसद में बताया कि 30 जून, 2023 तक देश में स्थापित कुल सौर ऊर्जा क्षमता 70.10 गीगावाट है, और इसके अलावा, 55.90 गीगावाट की स्थापना चल रही है।

वहीं मेरकॉम की एक रिपोर्ट के अनुसार 2023 की दूसरी तिमाही में देश ने 30 बिलियन यूनिट सौर ऊर्जा का उत्पादन किया, जो पिछले साल इसी अवधि में हुए उत्पादन के मुकाबले 20.8 प्रतिशत अधिक रहा। पिछली तिमाही के मुकाबले उत्पादन में 5.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। पिछले छह महीनों में देश ने 59.79 बिलियन यूनिट सौर ऊर्जा का उत्पादन किया है, जिसमें राजस्थान, कर्नाटक और गुजरात अग्रणी हैं।

क्या फ्लोटिंग सोलर से हल होगी भूमि उपलब्धता की समस्या

सौर ऊर्जा परियोजनाओं की कमीशनिंग में देरी का एक प्रमुख कारण है भूमि के एक बड़े हिस्से की उपलब्धता और उसका अधिग्रहण। इसके लिए विश्लेषकों और निर्माताओं ने कई विकल्प सुझाए हैं जिनमें से एक है ‘फ्लोटिंग सोलर इंस्टालेशन’

फ्लोटिंग सोलर या फ्लोटिंग फोटोवोल्टिक्स (एफपीवी), एक ऐसी संरचना पर लगे सौर पैनल होते हैं जो किसी जलनिकाय पर तैरती रहती है। भूमि संरक्षण के अलावा, फ्लोटिंग सोलर प्लांट (एफएसपी) सोलर फोटोवोल्टिक (पीवी) मॉड्यूल की दक्षता में भी सुधार करते हैं, और जल निकायों को अत्यधिक वाष्पीकरण से बचाते हैं।

फरवरी 2020 की एक रिपोर्ट में दी एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) ने कहा था कि भारत के जलाशयों का क्षेत्रफल 18,000 वर्ग किमी या लगभग 1.8 मिलियन हेक्टेयर है, जिसमें एफएसपी के माध्यम से 280 गीगावाट सौर ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है।

जानकारों की मानें तो देश को 2030 तक 500 गीगावॉट गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बहुत अधिक भूमि की आवश्यकता है। एफएसपी इस समस्या का समाधान हो सकता है। भूमि संरक्षण के अलावा, वे पानी के वाष्पीकरण को 40 प्रतिशत से अधिक कम करते हैं।

पुरानी पवन टर्बाइनों को पुनः चालू करने के प्रयास तेज करे सरकार: संसदीय समिति

ऊर्जा संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय से कहा है कि वह पुरानी पवन टर्बाइनों को रीपॉवर करने की संशोधित नीति के अनुमोदन और कार्यान्वयन में तेजी लाए

भारत में पवन ऊर्जा के मूल्यांकन पर हाल ही में प्रस्तुत एक रिपोर्ट में समिति ने कहा कि अधिकांश पवन ऊर्जा क्षमता आठ राज्यों में केंद्रित है, और सुझाव दिया कि प्रमुख स्थलों पर मौजूद पुरानी, अकुशल पवन टर्बाइनों को रिटायर किया जाए।

समिति ने प्राकृतिक संसाधनों और भूमि का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करने के लिए पुरानी टर्बाइनों की जगह उन्नत, अधिक कुशल टर्बाइनों को लगाने का सुझाव दिया।

जवाब में मंत्रालय ने राष्ट्रीय पवन ऊर्जा संस्थान के इस अनुमान को स्वीकार किया कि 2 मेगावाट से कम क्षमता वाली पवन टर्बाइनों को रीपॉवर करके 25,406 मेगावाट की क्षमता प्राप्त की जा सकती है।

मंत्रालय ने याद दिलाया कि 2016 में एक रीपॉवर नीति जारी की गई थी, और हितधारकों की प्रतिक्रिया के आधार पर एक संशोधित नीति तैयार की गई है, जिसे मंजूरी मिलना अभी बाकी है।

केंद्र ने फेम-II योजना का अनुपालन किए बिना इंसेंटिव का दावा करने के लिए 7 ईवी निर्माताओं से 469 करोड़ रुपए की मांग की है।

ईवी निर्माताओं की सरकार से गुहार, अतिरिक्त सब्सिडी वापस करें ग्राहक

सब्सिडी के कथित दुरुपयोग को लेकर आलोचना का सामना कर रहे सात इलेक्ट्रिक दोपहिया वाहन निर्माताओं ने सरकार से आग्रह किया है कि वह ग्राहकों से वाहनों की खरीद पर ली गई अतिरिक्त छूट वापस करने के लिए कहने की संभावना पर विचार करे।

भारी उद्योग मंत्री एमएन पांडे को लिखे एक पत्र में सोसाइटी ऑफ मैन्युफैक्चरर्स ऑफ इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (एसएमईवी) ने कहा कि जिन ग्राहकों ने अतिरिक्त सब्सिडी ली है, उन्हें उसे प्रभावित निर्माताओं को वापस करने के लिए कहा जा सकता है।

केंद्र ने फेम-II योजना के मानदंडों का अनुपालन किए बिना इंसेंटिव का दावा करने के लिए सात इलेक्ट्रिक दोपहिया निर्माताओं — हीरो इलेक्ट्रिक, ओकिनावा ऑटोटेक, एम्पीयर ईवी, रिवोल्ट मोटर्स, बेनलिंग इंडिया, एमो मोबिलिटी और लोहिया ऑटो से 469 करोड़ रुपए की मांग की है। भारी उद्योग मंत्रालय की जांच में पता चला है कि इन सात कंपनियों ने नियमों का उल्लंघन कर योजना के तहत मिलने वाले इंसेंटिव का लाभ उठाया है।

योजना के नियमों के अनुसार, यह इंसेंटिव भारत में निर्मित घटकों का उपयोग करके इलेक्ट्रिक वाहनों का निर्माण करने के लिए दिया जाना था। लेकिन जांच में पाया गया कि इन सात कंपनियों ने कथित तौर पर आयातित घटकों का उपयोग किया था।

एसएमईवी ने समूह के एजेंडे को संशोधित करने में मदद करने के लिए भाजपा के पूर्व प्रवक्ता संजय कौल को मुख्य प्रचारक के रूप में सम्मिलित किया है।

कौल ने एमएचआई को दिए गए पत्र में कहा कि यदि किसी ग्राहक को सही कीमत से अधिक सब्सिडी मिली है, तो अतिरिक्त राशि वापस करना उसके लिए अनिवार्य है, भले ही सुधार पूर्वप्रभावी हो।

दिल्ली में जारी रहेगी ईवी नीति के तहत दी जाने वाली सब्सिडी

दिल्ली के परिवहन मंत्री कैलाश गहलोत ने घोषणा की है कि नई इलेक्ट्रिक वाहन नीति स्वीकृत और अधिसूचित होने तक मौजूदा नीति के तहत दी जाने वाली सब्सिडी जारी रहेगी। मौजूदा नीति की अवधि समाप्त हो गई थी, लेकिन इसे एक और महीने के लिए बढ़ा दिया गया था।

गहलोत ने एक ट्वीट में कहा कि ‘चूंकि नई ईवी नीति बनाने की प्रक्रिया अभी चल रही है, मौजूदा नीति की सब्सिडी का लाभ नई नीति अधिसूचित होने तक जारी रहेगा’।

मौजूदा ईवी नीति अगस्त 2020 में लागू की गई थी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इसके तहत अब तक 1.12 लाख इलेक्ट्रिक वाहन पंजीकृत हो चुके हैं।

भारत में ईवी बिक्री का प्रतिशत अन्य देशों से बहुत पीछे

जहां एक ओर इस बात पर बहस जारी है कि क्या भारत को इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) पर दी जाने वाली सब्सिडी जारी रखनी चाहिए या नहीं, आंकड़ों से पता चला है कि देश में कुल वाहन बिक्री के मुकाबले ईवी का प्रतिशत दुनिया के कई प्रमुख देशों से काफी पीछे है। भारत को यदि 2030 तक ईवी की पैठ 30 प्रतिशत तक बढ़ाने के लक्ष्य को पूरा करना है तो सरकार को कुछ गंभीर प्रयास करने होंगे।

आईसीआरए के एक अध्ययन के अनुसार, फेम-II सब्सिडी कार्यक्रम के पांच वर्षों के बाद भी, 2022 में भारत में ईवी की पहुंच केवल 1.5 प्रतिशत रही। यह योजना मार्च 2024 में समाप्त होने वाली है। इसके दो प्रमुख कारण हैं सब्सिडी योजना में आ रही समस्याएं और विद्युतीकरण में देरी।

वहीं 2023 में समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष में ईवी की पहुंच 4 प्रतिशत रही।  जबकि चीन में पांच वर्षों के दौरान ईवी बिक्री 2 प्रतिशत से बढ़कर 2022 में 29 प्रतिशत हो गई। ब्रिटेन और यूरोपीय संघ में भी इसी अवधि के दौरान ईवी की बिक्री क्रमशः 23% और 21% तक पहुंच गई। 

भारत को 30% का लक्ष्य पाने के लिए लगभग आठ गुना वृद्धि की आवश्यकता होगी। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत सब्सिडी वापस लेने का जोखिम उठा सकता है?

भारत में और अधिक इलेक्ट्रिक वाहन लॉन्च करेगी हुंडई

दक्षिण कोरिया के हुंडई मोटर ग्रुप ने भारत में हुंडई (005380.केएस) और किआ (000270.केएस) ब्रांडों के तहत और इलेक्ट्रिक वाहन (ईवी) लॉन्च करने की योजना बनाई है।

हुंडई, जो पहले से ही बिक्री के हिसाब से भारत की दूसरी सबसे बड़ी कार निर्माता है, 2032 तक पांच ईवी मॉडल लॉन्च करेगी, जिसमें पहले से ही बिकने वाले दो — कोना और इओनीक 5 स्पोर्ट यूटिलिटी वाहन (एसयूवी) शामिल होंगे। कंपनी 2027 तक अपने चार्जिंग स्टेशनों को भी बढ़ाकर 439 कर देगी।

हुंडई मोटर ग्रुप ने एक बयान में कहा कि किआ 2025 से छोटे ईवी का उत्पादन शुरू करेगी और ईवी चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करेगी और साथ ही अपने बिक्री नेटवर्क को दोगुना करेगी, जिसका लक्ष्य घरेलू बाजार में अपनी हिस्सेदारी को वर्तमान 6.7% से बढ़ाकर 10% करना है।

भारत 2030 तक एमिशन इंटेंसिटी को 45% तक कम करने की प्रतिबद्धता को पूरा करने की राह पर है।

भारत ने 14 वर्षों में उत्सर्जन दर 33% घटाई: रिपोर्ट

भारत की ग्रीनहाउस उत्सर्जन दर 14 वर्षों में 33% घटी है। विभिन्न देशों की तरह भारत भी थर्ड नेशनल कम्युनिकेशन (टीएनसी) रिपोर्ट तैयार कर रहा है, जिसके द्वारा एक देश उत्सर्जन कम करने के अपने प्रयासों से यूएनएफसीसीसी, यानि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन को अवगत कराता है।

रॉयटर्स ने टीएनसी रिपोर्ट के लिए किए जा रहे नवीनतम आकलन से परिचित अधिकारियों के हवाले से बताया कि उत्सर्जन की दर में उम्मीद से कहीं अधिक तेजी से आई इस कमी के पीछे देश में नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन और वन क्षेत्र में वृद्धि का प्रमुख योगदान है।

टीएनसी रिपोर्ट के निष्कर्षों से पता चलता है कि भारत 2030 तक एमिशन इंटेंसिटी को (2005 के स्तर से) 45% तक कम करने की प्रतिबद्धता को पूरा करने की राह पर है। भारत की एमिशन इंटेंसिटी रेट —  यानि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की प्रत्येक इकाई वृद्धि के लिए उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैस की कुल मात्रा — 2005 से 2019 तक 33% गिर गई।

भारत ने 2016-2019 के दौरान सालाना 3% की औसत दर से उत्सर्जन में कटौती की; 2014-2016 की अवधि में यह दर लगभग 1.5% थी। यह अब तक की सबसे तेज़ कटौती थी, जिसका मुख्य कारण है सरकार द्वारा नवीकरणीय ऊर्जा पर दिया गया जोर, हालांकि अभी भी ऊर्जा मिश्रण में जीवाश्म ईंधन का हिस्सा कहीं अधिक है।

कोल इंडिया के मुनाफे में 10% की गिरावट

कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) ने पिछली तिमाही के दौरान कुल मुनाफा 7,941.40 करोड़ रुपए दर्ज किया, जो पिछले साल की दूसरी तिमाही के कुल मुनाफे के मुकाबले 10.1 प्रतिशत कम है। पिछले साल इसी अवधि के दौरान कंपनी को 8,834.22 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ हुआ था। हालांकि कंपनी की कुल आय 37,521.03 करोड़ रुपए रही, जो पिछले साल की इसी अवधि के मुकाबले 4 फीसदी अधिक है।

पिछली तिमाही के दौरान, कंपनी का कुल कोयला उत्पादन 175.47 मीट्रिक टन था, जो वित्त वर्ष 2022-23 की अप्रैल-जून की तिमाही के दौरान 159.75 मीट्रिक टन था। 

कंपनी की कुल स्टैंडअलोन आय 1,140.50 करोड़ रुपए हो गई, जो पिछले साल की इसी अवधि में 357.23 करोड़ रुपए थी। हालांकि कंपनी के खर्चे  11.67 फीसदी बढ़कर 26,785.68 करोड़ रुपए हो गए। इनमें से अधिकांश व्याय कर्मचारी लाभ और संविदात्मक भुगतान में हुआ।

जीवाश्म ईंधन का प्रयोग बंद करके प्रदूषण 40% कम कर सकता है भारत: गडकरी

केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि भारत पेट्रोल, डीजल आदि जीवाश्म ईंधनों का प्रयोग न करके प्रदूषण को 40% तक कम कर सकता है। उन्होंने कहा कि हम हर साल 16 लाख करोड़ रुपए का कच्चा तेल और 12 लाख करोड़ रुपए का कोयला आयात करते हैं।

इससे न केवल देश की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है बल्कि बड़े पैमाने पर प्रदूषण भी होता है।

उन्होंने कहा कि हमें हरित और साफ ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए नई तकनीकें विकसित करनी होंगी। गडकरी ने कहा कि नई तकनीक जरूरत पर आधारित होनी चाहिए, आर्थिक रूप से व्यवहार्य होनी चाहिए और उसके लिए कच्चा माल उपलब्ध होना चाहिए।