कर्नाटक के बेल्लारी में एक बार फिर से माइनिंग बढ़ने खनन क्षेत्र का भूमि अधिकारों का रिकॉर्ड स्पष्ट न होने से यहां के किसानों और मूल निवासियों के लिये मुश्किल खड़ी हो रही है। भूमि संबंधी विवादों का डाटाबेस बनाने और रिसर्च करने वाली संस्था लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच (एलसीडब्लू) की रिसर्च बताती है कि बेल्लारी के जिन गांवों में माइनिंग हो रही है उनमें से कई इलाके सरकार के राजस्व रिकॉर्ड में नहीं है और किसानों को इसके क़ानूनी पट्टे नहीं दिये गये हैं। इस रिसर्च पर आधारित एक समाचार रिपोर्ट वेबसाइट द मॉर्निंग कॉन्टैक्स्ट ने प्रकाशित की है और यहां पढ़ी जा सकती है।
महत्वपूर्ण है कि बेल्लारी में खनन पर लगी पाबंदियां सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में हटा दी थीं। एलसीडब्लू की रिसर्च के मुताबिक किसानों के पास क़ानूनी अधिकार न होने के कारण माइनिंग कंपनियां उनका शोषण कर रही हैं और ज़मीन छिन रही है। किसानों का कहना है माइनिंग की धूल से उनकी मक्का, प्याज और मूंगफली की फसल चौपट हो रही है और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है।
विशेषज्ञों ने लक्षद्वीप के मामले पर राष्ट्रपति को लिखी चिट्ठी
देश के 60 वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को पत्र लिखकर कहा है कि लक्षद्वीप डेवलपमेंट अथॉरिटी रेग्युलेशन का ड्राफ्ट वापस लिया जाना चाहिये। इसके नये नियमों लक्षद्वीप को एक बड़ा पर्यटन केन्द्र बनाने के लिये हैं लेकिन इन विशेषज्ञों का कहना है कि नये बदलाव लक्षद्वीप की भौगोलिक स्थिति, इकोलॉजी और लम्बे मानव इतिहास को देखते हुये सही नहीं होंगे। लक्षद्वीप में कुल 36 टापू हैं जो 32 वर्ग किलोमीटर में फैले हैं और इन जानकारों ने राष्ट्रपति से ड्राफ्ट का “गंभीर पुनर्मूल्यांकन” करने की मांग की है। इससे पहले 90 से अधिक पूर्व नौकरशाहों ने इसी मांग को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखी थी और कहा था कि नये बदलाव लक्षद्वीप को तबाह कर देंगे।
केरल में प्रस्तावित सेमी हाई-स्पीड रेलवे लाइन से पर्यावरण को खतरा
केरल के उत्तरी और दक्षिणी इलाकों को जोड़ने के लिये प्रस्तावित सेमी-हाई स्पीड रेलवे लाइन पर पर्यावरणविदों की नज़र है। उनका मानना है कि ये रेलवे लाइन इस क्षेत्र की जैव विविधता के लिये ख़तरा पैदा करेगी। करीब 64,000 करोड़ रुपये का ये सिल्वर लाइन प्रोजेक्ट 1,383 हेक्टेयर ज़मीन पर फैला होगा। इस क्षेत्र में रिहायशी इलाकों के अलावा वेटलैंट, बैकवॉटर, जंगल और धान के खेत हैं। पर्यावरण के जानकारों का कहना है कि इस प्रोजेक्ट से बड़े पैमाने पर विस्थापन होगा। उन्होंने ये भी कहा कि इस प्रोजेक्ट से पहले किसी तरह का वैज्ञानिक, तकनीकी या सामाजिक और पर्यावरण प्रभाव आंकलन नहीं किया गया है।
जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन (COP26) पर संकट?
इस साल नवंबर में ग्लासगो में होने वाले जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन (COP26) के आयोजक इस सम्मेलन की कामयाबी को लेकर सशंकित और चिंतित है। उनकी चिन्ता है कि जी-7 जैसे अमीर देशों ने जलवायु परिवर्तन को लेकर अब तक अपने लक्ष्य पूरा करने के लिये पर्याप्त काम नहीं किया है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है पेरिस संधि के तहत विकासशील देशों को 10,000 करोड़ डालर सालाना फंड का वादा। इस रकम को देने में अमीर देशों का अनमनापन हाल में हुए जी-7 समिट में दिखा जहां कनाडा और जर्मनी 10,000 करोड़ डालर के फंड के लिये अपना हिस्सा देने को तैयार थे लेकिन इटली इटली केवल 10 करोड़ डालर ही जुटा पाया। दूसरी ओर अमेरिका देश के भीतर कोयले का इस्तेमाल बन्द करने की जी-7 देशों की प्रस्तावित संधि से पीछे हट गया जबकि जापान जो कोयले पर काफी हद तक निर्भर है इसका इस्तेमाल बन्द करने को सहमत था।
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