सड़क की धूल के प्रबंधन में खर्च की गई एनसीएपी की 64% फंडिंग: सीएसई

राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) का सर्वाधिक ध्यान सड़क की धूल को कम करने पर केंद्रित रहा है, जबकि प्रदूषण करने वाले वाहनों और अन्य उत्सर्जक स्रोतों के लिए बहुत कम फंडिंग दी गई है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के विश्लेषण में यह बात सामने आई है। एनसीएपी की शुरुआत 2019 में 131 प्रदूषित शहरों के लिए स्वच्छ वायु लक्ष्य निर्धारित करने और राष्ट्रीय स्तर पर पार्टिकुलेट प्रदूषण को कम करने के उद्देश्य से की गई थी। 

कुल 10,566 करोड़ रुपए की धनराशि का 64% सड़क बनाने, चौड़ीकरण, गड्ढों की मरम्मत, पानी का छिड़काव, और मशीनों से सफाई करने आदि में खर्च किया गया है। केवल 14.51% धनराशि का उपयोग बायोमास प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए किया गया है, जबकि वाहनों से होनेवाले प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए12.63% और औद्योगिक प्रदूषण नियंत्रण के लिए मात्र 0.61% का उपयोग किया गया है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि सड़क की धूल होनेवाले प्रदूषण का नियंत्रण फंडिंग के केंद्र में रहा है।

एनसीएपी का लक्ष्य है 2019-20 के स्तर से 2025-26 तक पार्टिकुलेट प्रदूषण को 40% तक कम करना। यह भारत में वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए पहला प्रदर्शन-लिंक्ड फंडिंग कार्यक्रम है।

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की 2023-24 की रिपोर्ट के अनुसार, एनसीएपी में 131 शहरों के लिए वित्त वर्ष 2019-20 से 2025-26 की अवधि के लिए 19,711 करोड़ रुपए निर्धारित किए गए हैं। इसमें से लगभग ₹3,172.00 करोड़ 82 शहरों के लिए और लगभग ₹16,539.00 करोड़ सात शहरी समूहों और 42 दस लाख से अधिक की आबादी वाले शहरों के लिए आवंटित किए गए हैं। एनसीएपी कार्यक्रम और पंद्रहवें वित्त आयोग दोनों के तहत वित्त वर्ष 2019-20 और वित्त वर्ष 2023-24 (3 मई 2024 तक) के बीच 131 शहरों को लगभग ₹10,566.47 करोड़ जारी किए गए थे।

सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण ने कहा कि एनसीएपी के उद्देश्य और लक्ष्य हमेशा सराहनीय रहे हैं, लेकिन इसके तहत ध्यान और निवेश काफी हद तक धूल नियंत्रण पर केंद्रित है, न कि उद्योगों या वाहनों के उत्सर्जन पर।

सुप्रीम कोर्ट ने बीमा नवीनीकरण के लिए प्रदूषण सर्टिफिकेट अनिवार्य करने का आदेश लिया वापस

सुप्रीम कोर्ट ने अपना 2017 का आदेश वापस ले लिया है, जिसमें थर्ड-पार्टी बीमा पॉलिसी के नवीनीकरण के लिए वैध प्रदूषण नियंत्रण (पीयूसी) प्रमाणपत्र अनिवार्य कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि इस निर्देश को अक्षरश: लागू करने की अनुमति दी गई, तो इसके विनाशकारी परिणाम होंगे क्योंकि कुछ वाहन थर्ड-पार्टी बीमा के बिना ही चलते रहेंगे।

कोर्ट का आदेश बीमा कंपनियों की शीर्ष संस्था जनरल इंश्योरेंस काउंसिल (जीआईसी) की याचिका पर आया है। जीआईसी का प्रतिनिधित्व कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि अदालत का आदेश मोटर दुर्घटना पीड़ितों के लिए हानिकारक साबित हो रहा है क्योंकि लगभग 55% वाहनों के पास बीमा कवर नहीं है। इससे सड़क दुर्घटनाओं में मुआवजे के दावों के निपटान की मांग करने वाले पीड़ितों के लिए बड़ी कठिनाई उत्पन्न हो रही है।

दुनिया की नदियों में प्रवेश कर रहा है भारत का ठोस कचरा: अध्ययन

एक नए अध्ययन के अनुसार, कूड़े के विशाल लैंडफिल और खराब अपशिष्ट प्रबंधन के कारण भारत दुनिया की नदियों में सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले देशों में से एक बन सकता है। इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ एप्लाइड सिस्टम एनालिसिस (आईआईएएसए) के अध्ययन के अनुसार, 2020 में दुनिया की नदियों में अपशिष्ट रिसाव का 10% हिस्सा भारत में पैदा हुए ठोस म्युनिसिपल कचरे से आया था

मोंगाबे की रिपोर्ट के अनुसार, अध्ययन के निष्कर्षों से स्पष्ट है कि भविष्य में जनसंख्या बढ़ने और शहरीकारण धीमा होने की स्थिति में, भारत और चीन की नदियों में अपशिष्ट का रिसाव बढ़ेगा क्योंकि जल निकायों के पास रहने वाले ग्रामीण लोगों की संख्या बढ़ेगी। रिपोर्ट में कहा गया है कि 2022 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भारत की 605 नदियों में से आधे से अधिक को प्रदूषित पाया था।

एनजीटी ने खेतों में धान की पराली प्रबंधन के बारे में पंजाब से जवाब मांगा

नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल (एनजीटी) ने धान की पराली को दूसरी जगह ले जाने की बजाय खेतों में ही प्रबंधित करने के बारे में पंजाब से कई सवाल पूछे हैं। एनजीटी राज्य में पराली जलाने से संबंधित एक मामले की सुनवाई कर रही थी। सर्दियों के मौसम के दौरान दिल्ली में होनेवाले वायु प्रदूषण के लिए अक्सर परली जलाने को दोषी ठहराया जाता है। 

एनजीटी अध्यक्ष न्यायमूर्ति प्रकाश श्रीवास्तव की पीठ ने कहा कि ट्राइब्यूनल ने धान की फसल के अवशेषों के उसी स्थान पर (इन-सीटू) प्रबंधन के बारे में विशेष जानकारी मांगी थी क्योंकि यह एक “महत्वपूर्ण तरीका” है जिसमें मशीनों की मदद से बचे हुए डंठल और धान की जड़ों को हटाना शामिल है।

धान की पराली का मूल स्थान पर प्रबंधन मुख्य रूप से मशीनों द्वारा किया जाता है। हालांकि पिछले सप्ताह पारित एक आदेश में पीठ ने  कहा कि राज्य सरकार की रिपोर्ट में इन-सीटू प्रबंधन के बारे में कुछ पहलुओं का खुलासा नहीं किया गया है।

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