Photo: Hridayesh Joshi

केदारनाथ आपदा के 8 साल बाद भी वहीं खड़ा है उत्तराखंड

उत्तराखंड के केदारनाथ में आई भयानक बाढ़ को 8 साल हो गये हैं। साल 2013 में 16-17 जून को आई इस आपदा में कम से कम 6000 लोग मारे गये। तब कई दिनों से हो रही मूसलाधार बारिश और फिर चौराबरी झील के फटने से राज्य का यह हिस्सा तहस नहस हो गया। अमूमन सौम्य दिखने वाली मंदाकिनी रौद्र रूप में आ गई। असल में मरने वालों की संख्या आधिकारिक आंकड़े से कहीं अधिक है। 

इस घटना को भले ही केदारनाथ आपदा  के नाम से जाना जाता है लेकिन यह त्रासदी उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग ज़िले तक ही सीमित नहीं थी जहां केदारनाथ स्थित है। तब राज्य की सभी नदियां उफान पर थीं। उत्तरकाशी, चमोली और पिथौरागढ़ के ज़िलों में भी भारी तबाही हुई और कई लोग मारे गये और बेघर भी हुये। 

आपदाओं का इतिहास 

ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में यह पहली आपदा थी। भारत का हिमालयी क्षेत्र संवेदनशील है और संकटग्रस्त रहा है। उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदाओं का लिखित ब्योरा 19वीं शताब्दी से मिलता है। गढ़वाल में 1803 में आया भूकंप रिक्टर स्केल पर 8 तीव्रता का था और तब इसने गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर को पूरी तरह तबाह कर दिया था। इसमें राजा का शाही महल भी ध्वस्त हो गया था। 1880 में नैनीताल में आये भूस्खलन और भूकंप में करीब डेढ़ सौ लोग मरे। यह महत्वपूर्ण है कि नैनीताल की ‘खोज’ ही 1841 में हुई थी और तब यहां की आबादी कुछ हज़ार से अधिक नहीं थी। 

इसके बाद 1893 में जोशीमठ के पास बिरही झाल में पहाड़ आ गिरा और एक बड़ी झील बन गई जो अगले साल 1894 में टूटी। इससे जो आपदा हो सकती थी उसे अंग्रेज़ प्रशासन की सूझबूझ से कैसे टाल दिया गया इसका ज़िक्र आगे किया गया है। लेकिन करीब 80 साल बाद 1970 में जब इस नदी पर बनी झाल टूटी तो अलकनंदा घाटी में भारी तबाही हुई। इसके बाद 1970 और 1980 के दशक में गढ़वाल और कुमाऊं बाढ़ और बादल फटने की घटनायें हुईं। साल 1991 में उत्तरकाशी का भूकंप आपदाओं के इतिहास की बड़ी घटना है। 

पिछले 20 साल में इन आपदाओं की संख्या बढ़ी है। इंटरनेट और सोशल मीडिया के विस्तार के कारण अब इनकी अधिक रिपोर्टिंग भी हो रही है। केदारनाथ आपदा हो या इस साल फरवरी में आई चमोली  की बाढ़ इनका पता पहले फेसबुक और ट्विटर जैसे माध्यमों से ही चला। 

संकट के बावजूद बेपरवाह 

उत्तराखंड के 200 साल से अधिक के आपदाओं के लिखित इतिहास में बहुत सारी घटनाओं के लिये कुदरत ज़िम्मेदार है लेकिन कई आपदाओं में इंसानी दखल भी स्पष्ट है। मिसाल के तौर पर जिस बिरही झील के 1894 में टूटने से कोई नुकसान नहीं हुआ वह जब 1970 में फिर टूटी तो सिर्फ प्राकृतिक आपदा नहीं थी। तब अलकनंदा घाटी में बड़ी संख्या में पेड़ काटे जा रहे थे। महत्वपूर्ण है कि आज़ादी के बाद से ही हिमालयी क्षेत्र में वनांदोलन चल रहे थे और 1970 का दशक तो चिपको आन्दोलन के लिये जाना जाता ही है। 

इस बाढ़ में 55 लोग और 142 पशु मारे गये थे। साथ ही 6 मोटर ब्रिज और 16 पैदल यात्री पुल नष्ट हो गये। हिमालयी इतिहास के जानकार शेखर पाठक कहते हैं कि हम खुशकिस्मत रहे कि तब यहां बहुत आबादी नहीं थी। चिपको के प्रमुख नेताओं में एक चंडीप्रसाद भट्ट कहते हैं कि उनके साथियों ने पूरे क्षेत्र में घूम-घूम कर पता किया कि जिन जगहों में बर्बादी (बाढ़, भूमि कटाव, भूस्खलन इत्यादि) हुई वहां पहाड़ों पर पेड़ों का अंधाधुंध कटान हुआ था।  

लेकिन 1970 की उस बाढ़ के 50 साल बाद न केवल पहाड़ पर विकास का कोई टिकाऊ मॉडल नहीं है बल्कि जो भी काम हो रहा है उसमें सभी पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी हो रही है। केदारनाथ आपदा की बाढ़ के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ कमेटी ने अपनी जो रिपोर्ट जमा की थी उसमें ग्लेशियरों के पिघलने और  पहाड़ में बड़े निर्माण कार्य (जलविद्युत परियोजनायें और उनके साथ अन्य निर्माण) को लेकर चेतावनी दी थी। 

दिसंबर 2014 में पर्यावरण मंत्रालय ने कोर्ट को दिये शपथपत्र में विशेषज्ञ कमेटी की सिफारिशों का संज्ञान लिया और माना कि 2,200 मीटर से  अधिक ऊंचाई पर पहाड़ों में भूस्खलन का ख़तरा है। इसके बावजूद सरकार ने उत्तराखंड में कई विवादास्पद प्रोजेक्ट या तो पास कर दिये हैं या वह पाइपलाइन में हैं जबकि भू-विज्ञानियों के शोध और पर्यावरण के जानकार ऐसे प्रोजेक्ट के खिलाफ चेतावनी देते रहे हैं।  

आपदा प्रबंधन और सोच नदारद 

हिमालयी इतिहास के जानकार शेखर पाठक कहते हैं न जाने कितनी घटनाओं को  पिछले 200 साल में आपदाओं में गिना ही नहीं गया और न ही इनसे कोई सीख ली गई। साल 2013 की केदारनाथ आपदा ने कम से कम यह सच उजागर किया कि हम किस तरह नदियों पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं और बड़े-बड़े बांधों का अनियंत्रित निर्माण हो रहा है। आपदा प्रबंधन के साथ मॉनिटरिंग और अलर्ट (निगरानी चेतावनी तंत्र) के मामले में हिमालयी क्षेत्रों में वह सुविधायें दूर-दूर तक नहीं हैं जो किसी हद तक चक्रवाती तूफानों से निपटने में उपलब्ध हैं। 

सवा सौ साल पहले अंग्रज़ों ने बिरही झील के टूटने से पहले (1894 की बाढ़) जो अलर्ट सिस्टम विकसित किया वैसी तत्परता आज तमाम संसाधनों और टेक्नोलॉजी के बावजूद नहीं दिखती। साल 1893 में जोशीमठ के पास बिरही नदी में पहाड़ टूटकर आ गिरा और उसका बहाव रुक गया। इस झील को इतिहास में बिरही या गौना झील के नाम से जाना जाता है। झील के टूटने और आसन्न खतरे को भांप कर अंग्रेज़ों ने बिरही से हरिद्वार तक टेलीफोन लाइन बिछा दी। ये बहुत बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि टेलीफोन तब बिल्कुल नई टेक्नोलॉजी थी और भारत में आये मुश्किल से 10 साल हुये थे। 

अगले साल 1894 में जब पानी के बढ़ते दबाव से वह झील टूटी तो फोन लाइन होने के कारण अलर्ट जारी कर दिया गया और किसी की जान नहीं गई। महत्वपूर्ण है कि उत्तराखंड जैसे संवेदनशील इलाके में आपदाओं की बढ़ती संख्या और भयावहता को देखते हुये आज भी कोई प्रभावी वॉर्निंग (चेतावनी) सिस्टम नहीं है। चमोली में इसी साल फरवरी में आई बाढ़ से ऋषिगंगा और धौलीगंगा पर बनी दो पनबिजली योजनाओं पर काम कर रहे 200 से अधिक लोग मरे या लापता हैं। इससे पता चलता है कि हमारी आपदा मॉनीटरिंग कितनी कमज़ोर है।  

जलवायु परिवर्तन से बढ़ेगी समस्या 

हिमालयी क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का असर स्पष्ट है। पिछले 2 दशकों में कई वैज्ञानिक रपटों में यह चेतावनी सामने आ चुकी है। ग्लोबल वॉर्मिंग से यहां के जंगलों, नदियों, झरनों, वन्य जीवों और जैव विविधता पर तो संकट है ही अति भूकंपीय ज़ोन में होने के कारण भूस्खलन और मिट्टी के कटाव का ख़तरा ऐसे में बढ़ रहा है। सरकार कहती है कि पर्यटन और पनबिजली ही उत्तराखंड में राजस्व के ज़रिये हैं। इन दोनों ही मोर्चों पर उसकी नीति पर्यावरण के मूल नियमों से उलट है जो खुद संसद ने बनाये हैं। 

आज सरकार यहां बेतरतीब हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स ते निर्माण पर आमादा तो है ही उसने पर्यटन और रोज़गार को बढ़ाने के नाम पर जो चार धाम यात्रा प्रोजेक्ट बनाया है वह सभी नियमों की धज्जियां उड़ाता है। यह भी स्पष्ट है कि इन योजनाओं की घोषणा के बाद राज्य के आम आदमी की माली स्थिति में कोई अंतर नहीं आता केवल बड़ी कंपनियों और ठेकेदारों को अनुबंध मिलते हैं। केदारनाथ आपदा के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री ने कहा था कि वह नया उत्तराखंड बनायेंगे। इन नये उत्तराखंड में पर्यावरण और पारिस्थितिकी को इसी तरह नज़रअंदाज़ किया गया तो वह नई आपदाओं का ही रास्ता खोलेगा।   

(हृदयेश जोशी की किताब ‘रेज ऑफ द रिवर – द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ द केदारनाथ डिजास्टर’ केदारनाथ आपदा का ब्योरा पेश करती है। इसे हिन्दी में ‘तुम चुप क्यों रहे केदार’ के नाम से प्रकाशित किया गया है।) 

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