फोटो: Nomi/Wikimedia Commons

क्लाइमेट चेंज के कारण जरूरी है सिंधु  जल समझौते की समीक्षा: विशेषज्ञ

जलवायु परिवर्तन और काराकोरम विसंगति के कारण पश्चिमी नदियों के मुकाबले पूर्वी नदियां समय से पहले सूखने लगेंगी। अतः जल के न्यायसंगत बंटवारे के लिए संधि की समीक्षा जरूरी है।

जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में आतंकवादी हमले के बाद भारत ने 1960 में हुआ सिंधु जल समझौता स्थगित कर दिया है। लेकिन हालिया अध्ययनों और जानकारों की राय है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण संधि की समीक्षा करने की जरूरत है।

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, ग्लेशियोलॉजिस्ट अनिल वी कुलकर्णी का कहना है कि भारत की पूर्वी नदियां — रावी, ब्यास और सतलुज — जिन ग्लेशियरों से निकलती हैं वह अधिक तेजी से पिघल रहे हैं। इसकी तुलना में पाकिस्तान में बहने वाली पश्चिमी नदियों का पानी जिन ग्लेशियरों से आता है वह काराकोरम रेंज में अधिक ऊंचाई पर स्थित हैं और इसलिए उनके पिघलने की रफ़्तार कम है। इस कारण से पूर्वी नदियों में अस्थाई रूप से पानी की मात्रा बढ़ सकती है, जिसके बाद तेजी से पानी की उपलब्धता में गिरावट होगी।

जब इस संधि का मसौदा तैयार किया गया था, तब बर्फ और ग्लेशियर आवरण से संबंधित पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध नहीं थे। आज सैटेलाइट तकनीक की मदद से हम देख सकते हैं कि सिंधु बेसिन में स्थित ग्लेशियरों के पिघलने की दर समान नहीं है। 

कुलकर्णी ने कहा कि तापमान, रनऑफ पैटर्न (बारिश, बर्फ या ग्लेशियर के पिघलने से पानी का बहना और नदियों, झीलों या समुद्र में पहुंचना) और ग्लेशियर स्टोरेज में बदलाव से पानी की उपलब्धता प्रभावित होगी। इससे संधि में दोनों देशों को मूल रूप से आवंटित पानी की हिस्सेदारी में भी परिवर्तन होगा, जो नदियों के स्थिर प्रवाह और पुराने आकलनों पर आधारित था।

सिंधु समझौते के अंतर्गत सभी नदियों का 50–60 प्रतिशत पानी ग्लेशियरों और बर्फ के पिघलने से आता है। हालिया रिसर्च से पता चलता है कि सिंधु और झेलम जैसी पश्चिमी नदियों में बड़े ग्लेशियर रिज़र्व हैं और वे अधिक स्थिर हैं, जबकि ब्यास और रावी जैसी पूर्वी नदियों के स्रोत तेजी से पिघल रहे हैं। कुलकर्णी बताते हैं कि इसे ‘काराकोरम विसंगति’ कहा जाता है। जबकि हिमालय में मौजूद दूसरे ग्लेशियर पिघल रहे हैं, काराकोरम में ऊंचाई पर स्थित ग्लेशियर अधिक स्थिर हैं, बल्कि कुछ का द्रव्यमान और बढ़ रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार इस क्षेत्र में गर्मियों का ठंडा मौसम, सर्दियों में अधिक बर्फबारी, ग्लेशियरों पर मिट्टी और पत्थरों की मोटी परत, और विशेष जलवायु पैटर्न मिलकर ग्लेशियरों को पिघलने से बचाते हैं।

वहीं दूसरी ओर 2023 में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि एशिया की आधी आबादी हिमालय से निकलने वाली जिन नदियों पर निर्भर है, उनके स्रोत तेजी से सिकुड़ रहे हैं और यदि इसी तरह कार्बन उत्सर्जन जारी रहा तो 2100 तक इनमें से 80 प्रतिशत ग्लेशियर विलुप्त हो जाएंगे। रिपोर्ट में कहा गया था कि उत्सर्जन में कटौती करने के लिए तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है।

इस कारण से सिंधु समझौते के अंतर्गत मुख्य रूप से भारत को आवंटित पूरी नदियां 2030 तक अपने बहाव के उच्चतम स्तर तक पहुंच जाएंगी, जिसके बाद यह घटने लगेंगी। वहीं मुख्य रूप से पाकिस्तान को आवंटित पश्चिमी नदियां 2070 तक अपने बहाव के उच्चतम पर पहुंचेंगी। इस स्थिति में पानी के न्यायसंगत बंटवारे के लिए संधि की समीक्षा जरूरी है।

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