कॉप29: संकट में खाली गुल्लक

कॉप 29 में विकासशील देशों का सवाल: क्या जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए धनी देश और बहुराष्ट्रीय वित्तीय संस्थायें सुनिश्चित करेंगी खरबों की राशि?

अज़रबेजान की राजधानी बाकू में जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन अभूतपूर्व चुनौतियों के साये में हो रहा है। विश्व स्तर पर दो खूनी संघर्ष और दुनिया की सबसे शक्तिशाली अर्थव्यवस्था में एक विवादास्पद चुनाव और जलवायु परिवर्तन को हौव्वा कहने वाले शख्स की जीत – एक महत्वपूर्ण मुद्दा सबके सामने और केंद्र में बना हुआ है: जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई का वित्तपोषण।

ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2050 तक दुनिया को जलवायु परिवर्तन से होने वाली वार्षिक क्षति 59 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच जायेगी, जो कि इसके वर्तमान सकल घरेलू उत्पाद के आधे से भी अधिक है। ऐसे समय में जबकि हिंसा और संघर्ष नए चक्रों पर हावी हैं, विश्व स्तर पर मानव-जनित जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले नुकसान का मीटर 16 मिलियन डॉलर प्रति घंटे की चौंका देने वाली लागत पर टिक-टिक कर रहा है। हालांकि यह स्पष्ट है कि इसका समाधान बिना पर्याप्त वित्तीय जुटाव के नहीं हो सकता।

वर्तमान जलवायु वित्त पोषण प्रतिबद्धताएं भी जितना फाइनेंस जुटायेंगी वह कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था के प्रयोग से धरती को ठंडा करने और सबसे कमजोर लोगों की रक्षा करने के लिए खरबों डॉलर से कम पड़ रही हैं। यह बाकू में चल रही COP29 में भाग लेने वाले लगभग 200 देशों के लिए क्लाइमेट फाइनेंस को महत्वपूर्ण बनाता है।

एक साझा लक्ष्य की ज़रूरत  

इस वर्ष, राष्ट्रों को विकासशील देशों के लिए आवश्यक धन लाने के लिए एक नया वित्त लक्ष्य निर्धारित करना है। इसे न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल (एनसीक्यूजी) कहा जाता है। 

एनसीक्यूजी 2009 में अमीर देशों द्वारा 2020 तक सालाना 100 अरब डॉलर देने के लिए की गई पिछली प्रतिबद्धता की जगह लेगा – एक लक्ष्य जो अभी तक पूरा नहीं हुआ है। आज तक, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान और जर्मनी जैसे 23 ज्यादातर उच्च आय वाले देशों की एक सूची — जिसे कन्वेंशन के अनुलग्नक II के रूप में जाना जाता है — विकासशील देशों की मदद के लिए वित्तीय योगदान देने के लिए संयुक्त रूप से जिम्मेदार हैं।

एनसीक्यूजी से जलवायु संकट से निपटने की वास्तविक लागत का पता चलेगा। अकेले विकासशील देशों के लिए यह रकम सालाना $5.8 ट्रिलियन से $5.9 ट्रिलियन के बीच अनुमानित है, जिसमें मिटिगेशम (शमन) और एडाप्टेशन (अनुकूलन) दोनों प्रयास शामिल हैं। सौ अरब डॉलर के लक्ष्य को पूरा करने में धनी देशों की विफलता उनकी ओर से प्रतिबद्धता की कमी से कहीं अधिक दर्शाती है। यह धन आवंटित और उपयोग करने के तरीके में संरचनात्मक मुद्दों का खुलासा करता है।

लक्ष्य के तहत अधिकांश जलवायु वित्त ऋण के रूप में आया, जिससे कमजोर देशों पर कर्ज़ का बोझ और बढ़ गया। वर्ष 2013 और 2018 के बीच विकासशील देशों को प्रदान किया गया 70% से अधिक वित्त ऋण में था, अनुदान में नहीं, जिस कारण इन देशों को जलवायु संकट से निपटने के लिए आवश्यक सहायता मिलने के बजाय उन पर कर्ज़ और गहरा गया है। इसलिए अब कॉप29 की एनसीक्यूजी वार्ता में मुख्य फोकस यह सुनिश्चित करना होगा कि जो वित्त मिले वह सुलभ, न्यायसंगत और विकासशील देशों की वास्तविक जरूरतों को पूरा करता हो।

वित्तीय लक्ष्यों के प्रति विकसित देशों में अनिच्छा है और विकासशील देश चाहते हैं कि  प्रतिबद्धताओं को उनके सामने आने वाली चुनौतियों के पैमाने के साथ जोड़ा जाए। इस कारण एनसीक्यूजी वार्ता के विवादास्पद बने रहने की पूरी संभावना है। एनसीक्यूजी को सफल बनाने के लिए, धनी देशों को केवल यह स्वीकार करने के अलावा और भी बहुत कुछ करना होगा कि उनके ऐतिहासिक उत्सर्जन का जलवायु संकट में प्रमुख योगदान रहा है। मुख्य चुनौती यह सुनिश्चित करना होगी कि अमीर देश अपने वादे पूरे करें।

संरचनात्मक बदलाव 

धन जुटाने के लिए वैश्विक वित्तीय संरचनाओं में सुधार भी महत्वपूर्ण है जो धन का वितरण करता है। वर्तमान वैश्विक बहुपक्षीय फंडिंग के ढांचे को पहली बार द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1944 में आयोजित ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में रखा गया था। यह  भारत, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका या पश्चिम और पूर्वी एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था विकसित होने से दशकों पहले की बात है। 

ब्रेटन वुड्स समझौते के तहत बनाए गए दो प्रमुख वित्तीय संस्थानों में विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए कोई जगह नहीं थी, जिनमें से कई विकासशील देशों पर  विकसित दुनिया के शोषण के लिए कब्ज़ा कर लिया गया था।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की स्थापना वैश्विक मौद्रिक सहयोग सुनिश्चित करने, विनिमय दरों को स्थिर करने और भुगतान संतुलन संकट का सामना करने वाले देशों को अल्पकालिक वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए की गई थी। पुनर्निर्माण और विकास के लिए अंतर्राष्ट्रीय बैंक (आईबीआरडी), जो बाद में विश्व बैंक समूह का हिस्सा बन गया, युद्धग्रस्त यूरोप के पुनर्निर्माण में सहायता के लिए बनाया गया था। इसने बाद में विकासशील देशों में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए ऋण और वित्तीय सहायता प्रदान करना शुरू किया।

हालांकि बाद के दशकों में नए वित्तीय संस्थान स्थापित किए गए, लेकिन आईएमएफ और विश्व बैंक ने वैश्विक अर्थव्यवस्था पर अपना दबदबा बनाए रखा। यदि राष्ट्र बेहतर ऋण दरें और कम कर्ज़ चाहते हैं तो बहुपक्षीय विकास बैंकों (एमडीबी) के भीतर सुधार ज़रूरी हैं क्योंकि इससे जलवायु वित्त पोषण प्रवाह को सुधारने के लिए एक महत्वपूर्ण रास्ता खुलता है।  एमडीबी भले ही विकासशील देशों में धन पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन उनके भी वोटिंग शेयर के असमान वितरण के कारण उनकी आलोचना होती है क्योंकि यह असमानता उन्हें पक्षपाती और अलोकतांत्रिक बनाती है। डब्ल्यूबीजी और आईएमएफ में संयुक्त राज्य अमेरिका के पास सबसे बड़ी वोटिंग शक्ति बनी हुई है। उसके पास 15% से अधिक वोटिंग पावर है। इस कारण उसे फैसलों पर वीटो करने का अधिकार मिल जाता है। डब्ल्यूबीजी और आईएमएफ के अधिकांश निर्णयों के लिए 50% बहुमत की आवश्यकता होती है, जबकि कुछ महत्वपूर्ण मामलों में 70% या 85% सकारात्मक वोटों की दर की आवश्यकता होती है।

बारबाडोस के प्रधान मंत्री, मिया मोटली द्वारा प्रस्तावित हालिया ब्रिजटाउन पहल ने वर्तमान वैश्विक वित्तीय ढांचे की सीमाओं पर ध्यान आकर्षित किया और एमडीबी से रियायती वित्तपोषण बढ़ाने, ऋण राहत की पेशकश करने और जलवायु-संवेदनशील देशों को अनुदान बढ़ाने का आह्वान किया, जो गलत तरीके से काम कर रहे हैं। यह एक ऐसे संकट का खमियाज़ा भुगत रहे हैं जो उन्होंने पैदा नहीं किया बल्कि अपने अस्थिर ऋण बोझ को बढ़ा दिया।

वर्ष 2023 में जी20 शिखर सम्मेलन में भारत की अध्यक्षता में एमडीबी सुधारों पर भी प्रकाश डाला गया था। इसमें नेताओं ने जलवायु वित्त में अरबों नहीं बल्कि खरबों को जुटाने की आवश्यकता पर सहमति व्यक्त की थी। एमडीबी को मजबूत करने की प्रतिबद्धता सही दिशा में एक कदम था, लेकिन इन उच्च-स्तरीय चर्चाओं को ठोस कार्यों में बदलने के लिए बहुत काम बाकी है। बाकू में हो रही COP29 इन सुधारों को आगे बढ़ाने का एक और अवसर है।  विकासशील देशों की मांग है कि एमडीबी उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप अधिक रियायती वित्त प्रदान करें।

एशियाई विकास बैंक ने पिछले महीने एक नए लक्ष्य को मंज़ूरी दी। इसके तहत वर्ष 2030 तक अपने वार्षिक ऋण का 50% जलवायु वित्त में समर्पित करने और निजी क्षेत्र की पूंजी जुटाने को बढ़ावा देना शामिल है। यह लक्ष्य 2019 और 2030 के बीच संचयी जलवायु वित्त में $100 बिलियन डॉलर-आधारित लक्ष्य से जुड़ा है, जिसमें अब तक केवल $30 बिलियन का योगदान हुआ है।

जलवायु वित्त के भविष्य को आकार देने में G20 और COP29 से बहुत उम्मीद भी नहीं की जा सकती। वर्ष 2023 में जी20 शिखर सम्मेलन एक महत्वपूर्ण क्षण था, जिसमें नेताओं ने माना कि जलवायु संकट से निपटने के लिए बहुपक्षीय सुधार और निजी क्षेत्र की लामबंदी आवश्यक है। एमडीबी को अधिक जोखिम लेने और जलवायु-संबंधित ऋण बढ़ाने के लिए प्रेरित करने का समझौता एक सकारात्मक कदम था, लेकिन बाकू सम्मेलन में इस मुहिम को कैसे आगे बढ़ाया जाता है यह महत्वपूर्ण होगा।

पहेली का अहम हिस्सा 

नई दिल्ली के नेताओं की घोषणा में स्वीकार किया गया कि विकासशील दुनिया को अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के लिए 2030 तक $5.9 ट्रिलियन की आवश्यकता होगी, और शून्य-उत्सर्जन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के लिए हर साल अतिरिक्त $4 ट्रिलियन की आवश्यकता होगी। यह 2030 तक $34 ट्रिलियन की भारी भरकम राशि है – जो अमेरिका की $28.78 ट्रिलियन की जीडीपी से अधिक है। वार्षिक आधार पर, यह राशि वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 5% है।

हालाँकि सार्वजनिक वित्तपोषण और एमडीबी सुधार महत्वपूर्ण हैं, लेकिन वे पर्याप्त नहीं होंगे। दुनिया भर के लगभग 140 निम्न-मध्यम-आय वाले देशों के लिए जलवायु वित्त अंतर को पाटने के लिए सभी हितधारकों को आगे आने की आवश्यकता होगी। स्वच्छ ऊर्जा और अनुकूलन परियोजनाओं में वैश्विक निवेश को 2030 तक प्रति वर्ष $4 ट्रिलियन से अधिक करने की आवश्यकता है, फिर भी निजी पूंजी का योगदान जितना आवश्यक है उस पैमाने पर काफी धीमा रहा है। 

अप्रैल के मध्य में वाशिंगटन डीसी में आईएमएफ की बैठक में, चर्चा उच्च धन लागत की निरंतरता और देशों के इस समूह में निजी पूंजी जुटाने में प्रगति की कमी पर केंद्रित थी। यूएनएफसीसीसी द्वारा स्थापित दुनिया के सबसे बड़े बहुपक्षीय जलवायु कोष, ग्रीन क्लाइमेट फंड (जीसीएफ) के अनुसार, निजी क्षेत्र वर्तमान में 210 ट्रिलियन डॉलर से अधिक की संपत्ति का प्रबंधन करता है, लेकिन इसका केवल एक बहुत ही छोटा हिस्सा जलवायु निवेश में लगाया जाता है। 

विकासशील देशों को भी उन क्षेत्रों में अपनी नीतियों को बेहतर बनाना होगा जहां राजनीतिक अस्थिरता, मुद्रा अस्थिरता और नियामक अनिश्चितता उनकी पूंजी खोने के जोखिम को बढ़ाती है। सरकारें निजी निवेशकों के कुछ अग्रिम जोखिमों को घटाने के लिए मिश्रित वित्त जैसे उपकरणों का उपयोग करके एमडीबी के साथ काम कर सकती हैं।

इसके अलावा कार्बन मूल्य निर्धारण, विनियमन और समग्र निवेश परिदृश्य पर स्पष्ट, सुसंगत नीतियों की कमी से व्यवसायों के लिए दीर्घकालिक जलवायु परियोजनाओं की योजना बनाना और निवेश करना मुश्किल हो जाता है। समस्या को नियामक ढांचे के माध्यम से हल किया जा सकता है जो जलवायु समाधानों में निजी पूंजी प्रवाह के लिए स्थिर, पूर्वानुमानित वातावरण बनाता है। कंपनियों को जोखिम प्रबंधन में मदद करने के लिए राष्ट्रों में एडाप्टेशन और रेजिलिएंस एक्शन प्लान लागू करने की भी आवश्यकता है।

कार्बन बाजारों को मिटिगेशन प्रोजेक्ट्स के लिए अरबों डॉलर के वित्त को अनलॉक करने के साधन के रूप में देखा जा रहा है लेकिन यहां ग्रीनवॉशिंग और कार्बन क्रेडिट में धोखाधड़ी की व्यापक चिंतायें हैं। पेरिस समझौते का अनुच्छेद 6, जो एक वैश्विक कार्बन बाजार बनाने का प्रयास करता है, COP29 में मुख्य फोकस होगा।  साथ ही विकासशील देशों में, विशेष रूप से अनुकूलन के लिए अधिक विश्वसनीय परियोजनाओं को सुनिश्चित करने पर चर्चा की उम्मीद है। यदि वित्तीय प्रतिबद्धताएं विज्ञान की मांग के अनुसार पूरी नहीं होती हैं, तो अरबों लोगों को गर्म होते ग्रह के विनाशकारी परिणामों को झेलना होगा। दुनिया देख रही है, और सब कुछ दांव पर लगा है

Archana Chaudhary
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