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हर साल जलवायु परिवर्तन का दंश झेलता हिमाचल प्रदेश

  • हिमाचल प्रदेश में इस साल प्राकृतिक आपदाओं में कम से कम 246 लोगों ने जान गंवाई है। राज्य में भूस्खलन, बादल फटने और बाढ़ जैसी कुदरती अपदाएं बढ़ती जा रही हैं।
  • जानकार इन त्रासदियों को जलवायु परिवर्तन और मानव गतिविधियों का कुप्रभाव मानते हैं। हालांकि सरकार अभी भी अलग धुन में है।
  • जानकार बताते हैं कि मैदानी इलाकों का तापमान औद्योगिकरण के समय के मुकाबले एक डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। इसकी तुलना में हिमाचल प्रदेश के तापमान में 1.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की गई है।
  • विशेषज्ञों का दावा है कि राज्य सरकार के द्वारा राज्यभर में चल रहे दर्जनों हाइवे और पनबिजली परियोजनाओं की वजह से संवेदनशील पारिस्थितिकी वाले इलाके प्रभावित हो रहे हैं।

सफेद बर्फ की चादर से ढके पहाड़ी, कुदरती खूबसूरती और विहंगम नजारा। ये सब हिमाचल प्रदेश की पहचान हैं। इसकी खूबसूरती से आकर्षित होकर देश-विदेश के हजारों-हजार लोग राज्य यहां आते हैं। हालांकि, स्थानीय लोगों के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता। जलवायु परिवर्तन की वजह से बीते कुछ वर्षों में पहाड़ों में बढ़ती त्रासदी से न केवल इनका जीवन कठिन हुआ है बल्कि सैंकड़ों लोगों को जान भी गंवानी पड़ी है। यहां बाढ़, बादल फटना और भूस्खलन अब हर साल की बात हो गई है। इन हादसों में इस वर्ष 246 लोगों ने अपनी जान गवाईं हैं।

साल 2021 में राज्य में अबतक 35 बड़े भूस्खलन की घटना सामने आई है। यह संख्या 2020 में 16 थी। इस साल 11 अगस्त को किन्नौर में हुए भूस्खलन में 28 लोगों की जान चली गयी। इस मानसून में बादल फटने के मामले में भी बीते साल के मुकाबले 121 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। फ्लैश फ्लड या पहाड़ों में अचानक आई बाढ़ के 17 मामले इस वर्ष दर्ज किए गए हैं। पिछले साल इसकी संख्या नौ ही थी।

जी.बी. पंत राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान की वैज्ञानिक रेनु लता ने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में कहा कि जलवायु परिवर्तन और इंसानी गतिविधियों की वजह से हिमाचल प्रदेश में भीषण हादसे हो रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन पर हिमाचल प्रदेश आपदा प्रबंधन नीति ने पाया कि एक सदी में हिमाचल प्रदेश में धरातल का औसत तामपान 1.6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया है।

ब्यास नदी के किनारे भूस्खलन से लगा सड़क जाम। हाल के वर्षों में किनौर में भूस्खलन और अचानक आने वाले बाढ़ के मामले बढ़े हैं। तस्वीर- कपिल काजल
ब्यास नदी के किनारे भूस्खलन से लगा सड़क जाम। हाल के वर्षों में किनौर में भूस्खलन और अचानक आने वाले बाढ़ के मामले बढ़े हैं। तस्वीर- कपिल काजल

हिमाचल प्रदेश राज्य आपदा प्रबंधन नीति का मानना है कि तापमान और वर्षा में बदलाव की वजह से मौसम की विषम परिस्थितियों और उसकी मारक क्षमता में वृद्धि हो रही है। ये आपदाएं अचानक आई बाढ़, बादल फटना, भूस्खलन, हिमस्खलन, सूखा, जंगल की आग के रूप में सामने आ रही हैं। 

संस्था ने राज्य में हुए आपदाओं की सूची बनाकर इसके बदलते स्वरूप को समझने की कोशिश की। इसमें पाया गया कि शिमला में पिछले 20 वर्ष में गर्मी तेजी से बढ़ी है, ब्यास नदी में मानसून में कम पानी पहुंच रहा है और चिनाब नदी में सर्दियों में पानी अधिक रहता है। सतलुज नदी के हिमनद में बर्फ की मात्रा में कमी और सर्दियों और वसंत ऋतु में पानी की मात्रा में अधिकता भी दर्ज की जा रही है।  

हिमाचल बचाओ समिति से जुड़े पर्यावरणविद् कुलभूषण उपमन्यु ने कहा कि मैदानी इलाके में ग्लोबल वार्मिंग की वजह से औसत तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है, जबकि हिमाचल में यह आंकड़ा 1.6 डिग्री सेल्सियस है।

“पहले समुद्र तल से 3,000 फीट ऊपर बसे इलाके में बर्फ गिरती थी। अब बर्फ गिरने का अनुभव लेना हो तो पांच हजार फीट की ऊंचाई पर जाना होगा। पहले खुशनुमा बारिश एक-एक सप्ताह तक चलती थी, लेकिन अब बारिश के दिनों में कमी आई है और बारिश की बौछारें तेज हो गई हैं। हिमनद से बर्फ पिघलने का सिलसिला भी तेज हुआ है। बारिश और हिमनद का पानी मिलकर अचानक बाढ़ की स्थिति पैदा कर देता है,” उपमन्यु कहते हैं।

ब्यास नदी पर बना पंडोह बांध। तस्वीर- विश्वरूप गांगुली/विकिमीडिया कॉमन्स
ब्यास नदी पर बना पंडोह बांध। तस्वीर– विश्वरूप गांगुली/विकिमीडिया कॉमन्स

दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर इनवायरनमेंट मैनेजमेंट ऑफ डिग्रेडेड इकोसिस्टम के वैज्ञानिक फैयाज ए खुदसर कहते हैं, “मानवजनित जलवायु परिवर्तन की वजह से ही हिमाचल में धरातल का तापमान वैश्विक औसत से अधिक मापा गया है।”

“अगर इस दर से तापमान बढ़ता रहा तो हिमाचल में 2100 में तापमान 3-5 डिग्री तक बढ़ जाएगा, जिसके बाद वहां रहना मुश्किल हो जाएगा,” खुदसर कहते हैं।

उन्होंने आगे कहा कि जब एक घंटे में 10 सेंटीमीटर से अधिक बारिश हो तो उसे बादल फटना मानते हैं। “तापमान के बढ़ने से वातावरण में अधिक नमी मौजूद होती है जिससे बड़े बादल बनते हैं। गर्म हवाएं जब ठंडे बादलों से टकराती हैं तो यह नमी तेजी से नीचे की तरफ आती है। इसी घटना को बादल फटना कहते हैं,” खुदसर समझाते हैं।

बादल फटने की घटनाओं की वजह से ही अचानक बाढ़ और भूस्खलन जैसे हादसे हो रहे हैं। राज्य सरकार द्वारा जारी लैंडस्लाइड रिस्क असेसमेंट रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के 77 तहसील के 18,577 गावों में भूस्खलन का खतरा है। इसका मलतब लगभग पूरा राज्य इससे प्रभावित है।

अंधाधुंध निर्माण ने बढ़ाई जलवायु परिवर्तन की विभीषिका

पनबिजली के उत्पादन लिए बनने वाली परियोजनाओं को भारत के क्लीन एनर्जी या स्वच्छ ऊर्जा की महत्वाकांक्षी परियोजना का महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। लेकिन पर्यावरण के लिहाज से देखा जाए तो इससे हिमाचल के लिए मुसीबतें खड़ी हो रहीं हैं। राज्य में कई हाइवे और पनबिजली परियोजनाएं चल रही हैं।

उदाहरण के लिए वर्ष 2014 तक हिमाचल प्रदेश में 2,196 किलोमीटर का नेशनल हाइवे (राष्ट्रीय राजमार्ग) का नेटवर्क था। वर्ष 2018 में यह लंबाई बढ़कर 2,642 किलोमीटर हो गयी। 4,312 किलोमीटर स्टेट रोड को नेशनल हाइवे बनाने की अनुमति भी मिली है। राज्य में नेशनल हाइवे का पुनर्निर्माण या चौड़ीकरण का काम भी जोरों पर है।

हिमाचल प्रदेश की एक सड़क पर पहाड़ से पत्थर गिरने की चेतावनी देने वाला बोर्ड। तस्वीर- कपिल काजल
हिमाचल प्रदेश की एक सड़क पर पहाड़ से पत्थर गिरने की चेतावनी देने वाला बोर्ड। तस्वीर- कपिल काजल

पर्यावरण पर शोध करने वाली एक संस्था हिमधारा कलेक्टिव्स की एक रिपोर्ट बताती हैं कि हिमाचल प्रदेश में 813 बड़ी, मध्यम और छोटी और अत्यंत छोटी पनबिजली परियोजनाएं चल रही हैं।

राज्य में 10,264 मेगावाट की परियोजनाएं पहले से ही बिजली बना रही हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हिमाचल प्रदेश 27,436 मेगावाट बिजली उत्पादन की योजना बना रहा है जिसमें से 24,000 मेगावाट की परियोजनाएं सतलुज, चेनाब, रावी, ब्यास और यमुना नदी पर बनेंगी।

हिमधारा की सह-संस्थापक मानसी अशर कहती हैं, “हिमाचल प्रदेश के पहाड़ काफी युवा हैं। वे अभी बनने की अवस्था में ही हैं और कठोर नहीं हुए हैं। इस संवेदनशील पर्यावरण में इंसानों की विकास संबंधी गतिविधियां मसलन सड़क निर्माण, पेड़ों की कटाई और खेती के तरीकों में बदलाव खतरनाक हैं। इससे प्राकृतिक आपदाओं को न्यौता दिया जा रहा है।”

अशर ने एक शोध में पाया कि सतलुज नदी घाटी के किन्नौर में 53 पनबिजली परियोजनाओं की योजना बनी है, जहां इसी साल भूस्खलन से 37 लोगों की मौत हो गई। स्वच्छ ऊर्जा के नाम पर पनबिजली संयंत्र लगाने के लिए भूमि के उपयोग के तरीके को बदला जा रहा है। इससे स्थानीय लोग और पारिस्थितिकी तंत्र पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।

अशर ने पाया कि 1980 से 2014 तक किन्नौर में जितनी जंगल की जमीन को अन्य गतिविधियों के लिए इस्तेमाल किया गया उसके 90 प्रतिशत में पनबिजली और बिजली की तारों का विस्तार किया गया।

“हिमाचल प्रदेश में बड़ी पनबिजली और फोर-लेन सड़क परियोजनाओं पर काम चल रहा है। इसके पीछे कोई सोची समझी नीति नहीं है। ये पहाड़ इतने बड़े निर्माण का बोझ नहीं संभाल सकते। बड़ी मशीनों से पहाड़ों के टुकड़े किए जा रहे हैं जिससे यहां के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को खतरा है,” अशर ने मोंगाबे-हिन्दी से बातचीत में कहा।

उन्होंने कहा कि सड़क को चौड़ा करने के लिए पहाड़ों को काटा जाता है, जिसके बाद जो मलबा बचता है उससे पहाड़ी से निकलने वाले छोटे जलप्रपातों का रास्ता रुकता है। 

“पहले पानी निकासी के लिए पूरे पहाड़ का इस्तेमाल होता था, जबकि अब सिर्फ कुछ स्थानों पर ही ऐसा हो पाता है। बारिश की तेज बौछारों को न झेल पाने की स्थिति में भूस्खलन जैसी आपदाएं बढ़ रही हैं,” उन्होंने कहा।

हिमाचल प्रदेश के शिमला सोलन हाइवे पर फोर लेन का काम चल रहा है। सड़क चौड़ा करने के लिए पत्थरों को काटा जा रहा है जिससे पहाड़ की पारिस्थितिकी पर बुरा असर होगा। तस्वीर- कपिल काजल
हिमाचल प्रदेश के शिमला सोलन हाइवे पर फोर लेन का काम चल रहा है। सड़क चौड़ा करने के लिए पत्थरों को काटा जा रहा है जिससे पहाड़ की पारिस्थितिकी पर बुरा असर होगा। तस्वीर- कपिल काजल

अशर कहती हैं कि खनन की वजह से भी राज्य में भूस्खलन की घटनाएं सामने आ रही हैं। “अगर आप सिरमौर में भूस्खलन देखते हैं तो उसकी वजह चूना पत्थर के लिए वहां की पहाड़ियों को खरोंचा जाना है। खनन की वजह से कई पहाड़ियां खोखली हो गईं और उनकी जड़े कमजोर हो गईं,” वह कहती हैं।

अलबत्ता, स्टेट सेंटर फॉर क्लाइमेट के एक विश्लेषन में सामने आया है कि हिमाचल प्रदेश में बीते 24 साल में 1991 से लेकर 2015 तक 25 फीसदी जंगल में वृद्धि हुई है। हालांकि इसी रिपोर्ट में यह भी दर्ज है कि राज्य में घने जंगलों की मात्रा में कमी आई है।

उपमन्यु कहते हैं, “खेत के खुले जंगल और झाड़ियां को ग्रीन कवर नहीं माना जा सकता। सिर्फ घने जंगल ही वन की श्रेणी में आते हैं।”

“एक पेड़ के बड़े होने में सैकड़ों वर्ष लगते हैं। एक छोटा पौधा उसकी बराबरी नहीं कर सकता है। राज्य में 10 प्रतिशत से अधिक वन क्षेत्र नहीं बचा है। पेड़ काटने का दुष्प्रभाव मिट्टी पर होता है और भूस्खलन की घटनाएं सामने आती हैं,” वह कहते हैं।

सरकार की बेरुखी से बढ़ रहा खतरा

धर्मशाला के निकट स्थित बोह और बागली में इस साल जुलाई में भूस्खलन से कई घर तबाह हो गए। इसमें कई लोगों की जान गईं। हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर एके महाजन के एक अध्ययन में इस इलाके को स्लाडिंग जोन में रखा और विकास कार्यों को रोकने की सलाह दी।

अध्ययन में उन्होंने कहा कि टेक्टोनिक प्लेट के खिसकने से धर्मशाला की चट्टानें अत्यधिक विकृत, मुड़ी हुई और खंडित हैं। इससे बारिश का पानी इसमें घुस जाता है जिससे बहुत अधिक भूस्खलन का खतरा होता है।

महाजन ने मोंगाबे-हिन्दी को बताया कि इस अध्ययन के बाद उनसे कोई संपर्क नहीं साधा गया। “जब हादसा हो गया तो मुझे बुलाया गया,” वह कहते हैं।

जानकारों के द्वारा कई बार चेताने के बाद भी निर्माण कार्य रोके नहीं जा रहे हैं। जानकारों ने आरोप लगाया कि किसी निर्माण परियोजना की स्वीकृति से पहले सरकार जानकारों की नहीं सुनती और ऐसे खतरनाक जोन में भी बेरोक-टोक निर्माण होता रहता है।

हिमाचल प्रदेश में जलवायु परिवर्तन का असर है जिससे बारिश की तीव्रता बढ़ी हैं और सेब की खेती भी प्रभावित हुई है। तस्वीर-नील पामर/सीआईएटी/फ्लिकर
हिमाचल प्रदेश में जलवायु परिवर्तन का असर है जिससे बारिश की तीव्रता बढ़ी हैं और सेब की खेती भी प्रभावित हुई है। तस्वीर-नील पामर/सीआईएटी/फ्लिकर

“सरकार कभी आम लोग, भूवैज्ञानिकों या पर्यावरणविद् से विकास कार्यों को शुरू करने से पहले सलाह नहीं लेती। हमारे विरोध के बावजूद यहां निर्माण जारी है। नियम उद्योग के पक्ष में हैं। इसके परिणामस्वरूप लोगों की जान जा रही है और आर्थिक नुकसान भी हो रहा है,” उपमन्यु ने आरोप लगाया।

हिमाचल प्रदेश सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक अधिकारी (पर्यावरण) सुरेश अत्री ने स्वीकारा कि जलवायु परिवर्तन का असर पैदावार और बारिश पर दिखना शुरू हो गया है। हालांकि, उन्होंने भूस्खलन में विकास की परियोजनाओं के प्रभाव को नहीं स्वीकारा।  

“हिमाचल प्रदेश में जलवायु परिवर्तन का असर है जिससे बारिश की तीव्रता बढ़ी हैं और सेब की खेती भी प्रभावित हुई है। भूस्खलन हिमाचल में आम है। इसके पीछे जलवायु परिवर्तन या इंसानी गतिविधियां जिम्मेदार नहीं हैं,” अत्री ने मोंगाबे-हिन्दी से कहा।

“जलवायु परिवर्तन का असर वैश्विक स्तर पर है और हिमाचल प्रदेश भी इसी का शिकार है। इसका मतलब यह नहीं कि हमने कुछ गलत किया है। हिमाचल के लोगों के लिए विकास महत्वपूर्ण है। हम राज्य का टिकाऊ विकास कर रहे हैं,” उन्होंने आगे कहा।

ये स्टोरी मोंगाबे हिन्दी से साभार ली गई है।

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