इस हफ्ते दिल्ली और एनसीआर में पानी से भरी सड़कों ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा किया कि आखिर हमारे शहर ज़रा सी देर की बारिश क्यों नहीं झेल पाते। यही नज़ारा इस साल मुंबई में दिखा। असल में मुंबई में पहली बार 2005 में आई बाढ़ ने यह पोल खोली थी कि किसी भी एक्सट्रीम वेदर की स्थित को हमारे शहर नहीं झेल सकते। फिर 2013 की केदारनाथ आपदा, 2015 में चेन्नई की बाढ़, 2018 में केरल और 2019 में पटना को कौन भूल सकता है। क्या यह सिर्फ मौसम के बदलाव या जलवायु परिवर्तन का असर है या फिर बाढ़ आपदा प्रबंधन की कमी इसके लिये ज़िम्मेदार है।
जानकार कहते हैं कि बाढ़ खुद में आपदा नहीं है बल्कि कुछ हद तक बाढ़ खेतीहर ज़मीन की उर्वरता को बनाये, ग्राउंड वॉटर रिचार्ज और तालाब-सरोवरों जैसे जल निकायों को रिचार्ज करने के लिये ज़रूरी भी है लेकिन पिछले कुछ वक्त में बाढ़ अप्रत्याशित हो गई हैं और उनका प्रभाव क्षेत्र ग्रामीण इलाकों में ही नहीं बल्कि शहरों में बढ़ता गया है। बाढ़ से होने वाला नुकसान जान माल से लेकर सम्पत्ति तक हर जगह दिखता है। सरकारी आंकड़े ही इस बात की तसदीक करते हैं।
संसद में सरकार के दिये आंकड़ों के मुताबिक साल 2018 में 1808 लोगों की जान बाढ़ के कारण गई और 95,000 करोड़ रुपये का माली नुकसान हुआ। असम सरकार का कहना है कि 1947 के बाद से अब तक कम से कम 1.25 लाख परिवारों ने या तो अपनी रिहायशी ज़मीन खो दी है या फिर कृषि भूमि या फिर कई मामलों में दोनों तरह की भूमि।
हालांकि बाढ़ से निपटने के लिये सरकार की कई एजेंसियां हैं लेकिन उनमें तालमेल की काफी कमी है। एक समस्या बाढ़ प्रभावित इलाकों का दायरा तय करने और समझने की भी है। सरकारी दस्तावेज़ों में भारत की कुल 12% भूमि पर बाढ़ का ख़तरा है लेकिन जानकार कहते हैं कि यह डाटा 30-40 साल पुराना है जो कि 70 के दशक में बनाये गये बाढ़ आयोग ने दिया था। अब हालात काफी बदल चुके हैं और चुनौती काफी गंभीर है।
मौसम और जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञ मानते हैं कि बहुत अधिक बरसात कम वक्त में हो रही है जिससे कई कस्बाई और शहरी इलाकों में बाढ़ की समस्या के विकराल हो जाती है लेकिन नगर पालिका स्तर पर निकम्मापन, ज़मीन पर क़ब्ज़ा, बेतरतीब निर्माण और खराब कचरा प्रबंधन इस संकट के लिये ज़िम्मेदार है। मिसाल के तौर पर दिल्ली और तमाम छोटे-बड़े शहरों में सैकड़ों में सरोवर हुआ करते थे जो बाढ़ के दौरान निकासी और संग्रह का काम करते थे लेकिन अब या तो वह बेतरतीब निर्माण के लिये अतिक्रमण की भेंट चढ़ गये हैं या कचरे के ढेर से भर दिये गये हैं।
दो साल पहले, हमने अंग्रेजी में एक डिजिटल समाचार पत्र शुरू किया जो पर्यावरण से जुड़े हर पहलू पर रिपोर्ट करता है। लोगों ने हमारे काम की सराहना की और हमें प्रोत्साहित किया। इस प्रोत्साहन ने हमें एक नए समाचार पत्र को शुरू करने के लिए प्रेरित किया है जो हिंदी भाषा पर केंद्रित है। हम अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद नहीं करते हैं, हम अपनी कहानियां हिंदी में लिखते हैं।
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