शर्म-अल-शेख में सम्पन्न हुए जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (कॉप-27) में आखिरकार जलवायु आपदाओं से लड़ने के लिए वित्तीय कोष के गठन की बात मान ली गई।
लॉस एंड डैमेज (हानि और क्षति) के लिए यह फंड स्थापित होना जलवायु परिवर्तन वार्ता के इतिहास में मील का पत्थर है, लेकिन कई जानकार इसे बहुत देर से हासिल हुई कामयाबी बताते हैं।
इस क्लाइमेट फंड की उपयोगिता कितनी है यह अगले दो सालों में पता चलेगा जब इसकी बारीकियां तय होंगी।
अगले साल के सम्मेलन की शुरुआत तक यह पता किया जाएगा कि जलवायु आपदाओं से हो रहे नुकसान को लेकर किस देश को कितनी ज़रूरत है और उस देश को किस काम के लिए यह पैसा दिया जाए।
अगले दो साल में यह आंकने की कोशिश होगी कि यह पैसा कहां से आएगा और इसकी मॉनिटरिंग किस तरह से होगी।
इससे पहले हानि और क्षति और क्लाइमेट फाइनेंस पर अमीर और विकसित देशों ने कई अड़ंगे लगाए।
पहले दिन से ही टेक्सट की भाषा को कमज़ोर करने की कोशिश हुई। विकसित देश विकासशील देशों के बीच खाई पैदा करने की कोशिश करते रहे।
क्लाइमेट फाइनेंस किसे मिल सकता है या किसे नहीं इस आधार पर यह कोशिश हुई।
हालांकि इसमें केवल विशेष रूप से संकटग्रस्त देशों के लिए फंड की बात की गई है जिसके कारण भारत, पाकिस्तान और कई एशियाई देश इससे वंचित हो सकते हैं।
लॉस एंड डैमेज फंड की भाषा और बारीकियां अभी तय होनी हैं लेकिन यह माना जा रहा है कि विकसित देश चीन (जो कि वर्तमान में सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक है ) और भारत (जो कि दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक है) के साथ इंडोनेशिया और ब्राज़ील जैसे देशों को बाहर रखने की कोशिश करेगा।
जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव के कारण हो रही (बाढ़, सूखा और चक्रवाती तूफानों जैसी) आपदाओं से क्षति को देखते हुए क्लाइमेट फाइनेंस महत्वपूर्ण है। लेकिन अमीर और विकसित देश इक्विटी के सिद्धांत को कमज़ोर करने की कोशिश करते रहे हैं।
इक्विटी का अर्थ स्पष्ट रूप से ऐतिहासिक रूप से अधिक उत्सर्जन करने वाले देशों और नगण्य उत्सर्जन करने वाले देशों के बीच सही अनुपात में ज़िम्मेदारी बांटने और विकास की दौर में बहुत पिछड़ गए देशों को कार्बन बजट में हिस्सा देने से है।