आई-फॉरेस्ट के अध्यक्ष और सीईओ चन्द्र भूषण का मानना है कि न्यायपूर्ण परिवर्तन करना और देश में कोयले का उपयोग बढ़ना परस्पर विरोधी नहीं हैं।

‘भारत को (अंतर्राष्ट्रीय मंच पर) जस्ट-ट्रांजिशन के मुद्दे से भागने की ज़रूरत नहीं है’

आज भारत की तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था से जुड़ी है बिजली की मांग। भारत को अधिकांश बिजली कोयला पावर प्लांट से मिलती है। लेकिन जंगलों को बचाने और ग्लोबल वॉर्मिंग को काबू करने के लिए कोयले से साफ ऊर्जा की ओर बढ़ना ज़रूरी है। शर्म-अल-शेख सम्मेलन में जब क्लाइमेट फाइनेंस और हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) की बात हो रही है तो क्या भारत कोयले से साफ ऊर्जा की ओर बढ़ने के न्यायपूर्ण परिवर्तन यानी जस्ट ट्रांजिशन की बात कर सकता है?  

दिल्ली स्थित आई-फॉरेस्ट ने हाल में इस विषय पर काफी रिसर्च की है। आई-फॉरेस्ट के अध्यक्ष और सीईओ चन्द्र भूषण ने कार्बनकॉपी से बात की।  

शर्म अल-शेख में चल रहे जलवायु परिवर्तन सम्मलेन (कॉप27) को आप आज की परिस्थितियों में किस तरह देखते हैं?

इसे एक तरह से ‘अफ़्रीकी कॉप’ की तरह देखा जा रहा है। बहुत समय बाद यह सम्मलेन अफ्रीका में हो रहा है। इसलिए विकासशील देश यह चाहते हैं कि इस सम्मलेन से उनके मुद्दों पर कुछ नतीजा निकले। दूसरी बात है कि यह कॉप रूस और यूक्रेन के युद्ध के दौरान हो रहा है। इस युद्ध का सबसे बड़ा असर यह है कि रूस से गैस आपूर्ति बंद होने के कारण यूरोप ने कोयले का इस्तेमाल शुरू कर दिया है।  तो वह यूरोप जो अब तक दुनिया भर में जाकर प्रवचन देता था कि आप कोयले से हटिए, आप जीवाश्म-ईंधन का प्रयोग मत करिए, उसी यूरोप ने अपने ऊपर आई विपत्ति के समय दुनिया भर से कोयला और पेट्रोल-डीजल खरीदना शुरू कर दिया है।

तो एक तरह से यह कॉप यूरोप की जो हिपोक्रेसी है, उसकी पृष्ठभूमि में भी हो रहा है। और तीसरी बात यह है कि इस कॉप में रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से विश्व में जो ऊर्जा संकट है उस पर चर्चा बहुत जरूरी है, तेल के दाम 90-100 डॉलर के बीच हैं, अंतराष्ट्रीय बाजार में कोयले के दाम एकदम चरम पर पहुंच चुके हैं। तो इस बात पर चर्चा बहुत जरूरी है कि हम कैसे ऊर्जा संक्रमण करें। क्योंकि अब यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि केवल एक क्षेत्रीय युद्ध से जब पूरी दुनिया में ऊर्जा संकट उत्पन्न हो सकता है, तो कोई बड़ा युद्ध यदि हुआ तो उसका क्या प्रभाव होगा? 

तो जो तीसरा मुद्दा इस कॉप में है वह यह कि किस तरह से हम जल्दी ऊर्जा संक्रमण करें, केवल बात न करें बल्कि जीवाश्म ईंधन को छोड़कर हम अक्षय ऊर्जा की तरफ जाएं, यह तीन बड़े मुद्दे हैं।

इसी से मेरा दूसरा सवाल निकल कर आता है कि यूरोप अब अफ्रीकी देशों से तेल और गैस समेटने की फ़िराक में है। ऐसे में जो एनडीसी (कार्बन उत्सर्जन कम करने के राष्ट्रीय लक्ष्य) हैं या 2030 तक उत्सर्जन कम करने के जो लक्ष्य हैं, उनको आप किस तरह प्रभावित होता देख रहे हैं?

देखिए पिछले साल तक जो ट्रेंड चल रहा था उससे एक उम्मीद थी की यदि दुनिया के देश थोड़ी और मेहनत करें तो 2030 तक जो 45% कटौती का लक्ष्य था उसके आस-पास पहुंच जाएंगे। लेकिन इस युद्ध के कारण अब वह उम्मीदें कमजोर हो गई हैं। यहां दो-तीन चीज़ें समझना बहुत जरूरी है। पहला यह कि यूक्रेन युद्ध के कारण हथियार उद्योग में निवेश बहुत बढ़ गया है। वैश्विक स्तर पर रक्षा पर खर्च बहुत बढ़ा है। अमेरिका ने रक्षा पर खर्च बढ़ाया है। यूरोप, विशेषकर जर्मनी, जिसने अभी तक रक्षा बजट नियंत्रित रखा था, वह अब अपने जीडीपी का डेढ़ से दो फीसदी रक्षा पर खर्च करने की बात कर रहे हैं, जो कि 150 बिलियन डॉलर है।

तो एक तरफ संसाधनों को दूसरी तरफ मोड़ा जा रहा है, जो निवेश ऊर्जा संक्रमण, जलवायु परिवर्तन, पर्यावरण जैसे मुद्दों पर होना था वह अब दूसरी ओर चला गया है। भारत में भी रक्षा बजट बढ़ा है। चीन और अमेरिका में जिस तरह गरमा-गर्मी चल रही है उसके कारण भी रक्षा पर खर्च बढ़ा है। पूरी दुनिया में यह माना जा रहा है अगले दो-तीन सालों में रक्षा पर खर्च बहुत बढ़ेगा।। 

और यह पैसा कहां से आएगा? जो पर्यावरण और सामाजिक क्षेत्रों में निवेश हो रहे थे वहीं से आएगा। तो जो पैसा विकसित देश ऊर्जा संक्रमण पर खर्च कर सकते थे, जो उन्होंने विकासशील देशों को 100 बिलियन डॉलर देने का वादा किया था, उसमें अब थोड़ी मुश्किल आ गई है।  

दूसरी बात यह है कि जब रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू हुआ, तो जितनी तेजी से अक्षय ऊर्जा को बढ़ना चाहिए था वह नहीं बढ़ पाई क्योंकि चीन अभी भी महामारी के कारण लॉकडाउन से जूझ रहा है। आज की तारीख में 50 प्रतिशत से ज्यादा नवीकरणीय क्षमता का उत्पादन करता है। इससे यह भी सीख मिलती है कि अब आप अक्षय ऊर्जा क्षमता उत्पादन के लिए एक देश पर निर्भर नहीं रह सकते। 

तो ऐसे में क्या किया जाए ? 

तो अगर हमें 2030 के लक्ष्य के आस-पास भी पहुंचना है तो दो चीज़ें करनी पड़ेंगी।  

पहला यह कि सभी देशों को मिल कर यह निर्णय लेना पड़ेगा कि इस प्रकार के युद्ध जो उन्नीसवीं शताब्दी की देन हैं उनको ख़त्म करके, जो पैसा रक्षा और युद्ध में खर्च हो रहा है उसे जलवायु परिवर्तन की ओर मोड़ना होगा। दूसरा, वैश्विक स्तर पर अक्षय ऊर्जा क्षमता के उत्पादन का विस्तार करें। विश्व के ऊर्जा संक्रमण में चीन बाधक नहीं होना चाहिए।  

यह दो चीज़ें हमें करने की ज़रूरत है।

एक सवाल यह उठता है, जिस पर आपकी संस्था आई-फॉरेस्ट भी काम कर रही है। वह यह कि भारत और दुनिया के तमाम देशों की ऊर्जा क्षमता बहुत हद तक कोयले और जीवाश्म ईंधन पर निर्भर है। ऐसे में जब दुनिया के विकसित देश भी जीवाश्म ईंधन से हटकर साफ़ ऊर्जा की ओर नहीं जा पा रहे हैं, तो भारत जैसे देश बिना अपने लोगों को एक न्यायपूर्ण परिवर्तन (जस्ट ट्रांजिशन) दिए बगैर कैसे हरित ऊर्जा की और बढ़ सकते हैं। इस सवाल के दो भाग हैं, एक तो अभी भारत की स्थिति क्या है और दूसरा कि भारत इस संबंध में दूसरे देशों से कैसे बातचीत कर सकता है?

देखिए पहली बात तो यह है कि न्यायपूर्ण परिवर्तन जिसे हम जस्ट ट्रांजिशन कहते हैं वह करना और देश में कोयले का उपयोग बढ़ना यह परस्पर विरोधी नहीं हैं। 

Photo: Wikimedia Commons

कोयले के प्रयोग की दो स्थितियां हैं, एक राष्ट्रीय और दूसरी क्षेत्रीय, और दोनों एक दूसरे से बहुत अलग हैं। राष्ट्रीय स्थिति यह है कि एनटीपीसी ने छह साल बाद यह घोषणा की है कि वह नए ताप विद्युत् संयंत्र पर 50,000 करोड़ रुपए का निवेश करेंगे। इसका कारण है कि जैसा भारत ने सोचा था उसे सस्ते दामों पर गैस मिलेगी और दूसरी तरफ वह तेजी से अक्षय ऊर्जा स्थापित करेगा, वैसा नहीं हो पा रहा है क्योंकि मांग बहुत तेजी से बढ़ रही है। 

इससे आप समझ सकते हैं कि हमारी जरूरतों और साफ़ ऊर्जा में हमारे निवेशों के बीच कितना बड़ा अंतर है।    

दूसरी बात यह है कि न्यायपूर्ण परिवर्तन हमें केवल राष्ट्रीय स्तर पर नहीं बल्कि क्षेत्रीय स्तर पर भी देखना चाहिए। झारखण्ड, छत्तीसगढ़, ओडिशा, मध्य प्रदेश के जो पुराने माइनिंग इलाके हैं, वहां पर कोयले की खदानें बंद होनी शुरू हो गई हैं क्योंकि अब वहां संसाधन ही नहीं बचे हैं। भारत में 400 से अधिक कोयला खदानें हैं जिनमें से 300 से अधिक घाटे में हैं, सौ ही खदाने ऐसी हैं जिनसे कमाई होती है। कोल इंडिया लिमिटेड आज के दिन में बहुत अमीर कंपनी मानी जाती है, लेकिन उसकी तीन-चौथाई खदानें घाटे में हैं। 

ऐसे में हल क्या है? 

तो हमें त्वरित न्यायपूर्ण परिवर्तन बात करनी चाहिए क्योंकि यह जो 300 के ऊपर खदानें हैं जो बंद होने की कगार पर हैं और जिनमें से कई बंद भी हो चुके हैं, उनके मज़दूरों और कर्मचारियों का क्या करें?  जो संसाधन है उनका क्या होगा?  यह एक बहुत बड़ा मुद्दा है हमारे देश के लिए, क्योंकि अगर हम इसपर काम नहीं करेंगे तो रामगढ़ हो, धनबाद हो, कोरबा हो, कोरिया हो, जितनी भी जगह कोयले की खदानें बंद होंगी वहां की अर्थव्यवस्था तुरंत गिरेगी और बेरोज़गारी बढ़ेगी, गरीबी बढ़ेगी…

तो इसके लिए क्या शर्म-अल-शेख में हो रही चर्चा में कोई जगह है? क्या भारत इस तरह से यह बात वहां रख सकता है?

भारत अब तक न्यायपूर्ण परिवर्तन पर चर्चा से बचता रहा है, क्योंकि यह मुद्दा कोयले से जुड़ा है।  और जब इसपर चर्चा होगी तो कोयला कम करने की बात उठेगी और भारत की ऊर्जा सुरक्षा पर खतरा पैदा होगा। 

भारत को न्यायपूर्ण परिवर्तन और ऊर्जा संक्रमण दोनों पर साथ में बात करने की जरूरत है।  इस मुद्दे से भागने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि न्यायपूर्ण परिवर्तन तो अब हमें करना ही पड़ेगा चाहे हम राष्ट्रीय स्तर पर कोयला कम करें या न करें।  हो सकता है राष्ट्रीय स्तर पर कोयले का उत्पादन बढ़े, लेकिन जो पुराने इलाकों में 300 खदानों की मैं बात कर रहा हूं वह तो बंद होंगे ही होंगे। 

मैं तो इसे एक अवसर के रूप में देखता हूं कि यदि हम 300 समुदायों के त्वरित पुनर्वास में सफल रहे तो यह हमारे लिए एक मॉडल बन जाएगा जब हम आगे चलकर कोयले का उपयोग कम करेंगे। तो हमारे सामने एक अवसर है कि हम घरेलू संसाधन, अंतर्राष्ट्रीय संसाधन तथा निजी और सार्वजनिक संसाधनों को मिलाकर कैसे इन समुदायों को बचाएं जो अबतक भारत की ऊर्जा राजधानी थी।

जब आप कहते हैं कि यह हमारे लिए एक अवसर है तो क्या आप एक नीति सलाहकार के तौर पर उन क्षेत्रों के बारे में बता सकते हैं जहां खदानों के कर्मचारी काम करेंगे, क्योंकि उनमें से बहुत सारे लोगों में कौशल का अभाव होगा?

हमने कुछ क्लस्टर्स की पहचान की है, जैसे कि बोकारो-रामगढ़-धनबाद एक बहुत बढ़ा क्लस्टर निकल कर आ रहा है जहां कि कम से कम 75 से 80 कोयला खदानें घाटे में हैं। ऐसे ही दूसरा क्लस्टर कोरबा-कोरिया है। ओडिशा में झारसुगुड़ा-अंगुल का क्लस्टर है। बंगाल में एक बहुत बड़ा क्लस्टर निकल कर आ रहा है जो रानीगंज कोलफील्ड का है, ईस्टर्न कोलफील्ड के जितने हैं। नागपुर का एक क्लस्टर है वेस्टर्न कोलफील्ड का। हिंदुस्तान का कोई ऐसा कोलफील्ड नहीं है जहां कोयले की खदानें अगले दस साल के अंदर बंद नहीं होंगी।  जैसा कि मैंने आपको बताया काफी खदानें पहले ही अस्थायी रूप से बंद हो चुकी हैं।  

हमने न्यायोचित परिवर्तन का एक खाका तैयार किया है जो हमने केंद्र सरकार के साथ भी शेयर किया है।  हम जिला-स्तर पर अध्ययन कर रहे हैं, राज्य सरकारों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। हमें मोटे तौर पर पता है कि क्या करना है।  हमारा फ्रेमवर्क तैयार है, बस बात यह है कि किस तरह से इनको लागू किया जाए।

लगभग सभी विश्लेषकों का मानना है कि इस सम्मलेन में लॉस एंड डैमेज और क्लाइमेट फाइनेंस के मुद्दे अहम होंगे। इन मुद्दों पर भारत और विकासशील देशों की क्या स्थिति है और आप उसपर क्या कहना चाहेंगे?

इस पर मेरा विचार लोगों से थोड़ा अलग है।  

लॉस एंड डैमेज आप विकसित देशों से मुआवज़े की तरह नहीं ले सकते हैं। मान लीजिए अभी पाकिस्तान में जो बाढ़ आई उसे लेकर वह द हेग स्थित अंतराष्ट्रीय न्यायालय में जाएं और मांग करें कि यह अमेरिका और यूरोप की नीतियों की वजह से हुआ है और उन्हें इस नुकसान की भरपाई करनी होगी। अभी अंतर्राष्ट्रीय संबंध इतने विकसित नहीं हुए हैं उन्हें मुआवज़ा मिलेगा।

अभी अंतर्राष्ट्रीय कानून इतने विकसित नहीं हैं कि लॉस एंड डैमेज को एक मुआवज़े की तरह देखा जाए।  लॉस एंड डैमेज केवल अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से ही संभव हो सकता है। जो कि अबतक होता रहा है।  दुनिया में कहीं भी भूकंप आते हैं तो सारे देश मिलकर पैसा देते हैं।  दुनिया में कहीं भी तूफ़ान आते हैं तो लोग खुद ही एक दूसरे की मदद करने लग जाते हैं।  हमें इस व्यवस्था को सुदृढ़ करने की ज़रूरत है। जैसा कि ज्यादातर अंतर्राष्ट्रीय जलवायु वार्ताओं में अक्सर होता है कि विश्व “हम” और “वो” में बंट जाता है, अभी उसकी ज़रूरत नहीं है। ऐसा करने से आप राजनैतिक बिसात पर जीत सकते हैं लेकिन अंततः आपको जो परिणाम चाहिए वह नहीं मिलेंगे।  परिणाम तभी मिलेंगे जब सभी देश मिलकर इस बात पर सहमत हों कि जलवायु परिवर्तन से कुछ देशों को ज्यादा नुक्सान होता है और उन्हें ज्यादा सहायता की ज़रूरत है।

इस धारणा में भी बहुत मतभेद हैं कि केवल विकसित देशों को ही पैसे देने चाहिए। आज की तारीख में जलवायु को लेकर चीन की ज़िम्मेदारी बहुत अधिक है।  क्या कोई चीन से पैसे निकलवा सकता है? यूरोप और अमेरिका से तो हम बोल सकते हैं कि पैसा दो, और बोलते आए हैं।  आजतक आपने किसी विकासशील देश को कहते हुए सुना है कि चीन को पैसे देने चाहिए? सच्चाई यह है कि चीन 20 फीसदी जलवायु परिवर्तन के लिए ज़िम्मेदार है।

फाइनेंस को लेकर भी मेरा यही कहना है। फाइनेंस की बात पिछले 30 साल से हो रही है। वो वादा करते हैं, हम वादा लेकर तो चले आते हैं लेकिन पैसा नहीं आता। हम अपनी गलतियों से सीखने की बजाय बार-बार वही गलतियां कर रहे हैं। यह हमें मानना होगा। वह भी सीख चुके हैं हमें बहलाना-फुसलाना और हम भी सीख चुके हैं इन सम्मेलनों में जाकर ब्राउनी पॉइंट स्कोर करना।  लेकिन मुद्दा आगे नहीं बढ़ रहा। 

+ posts

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

कार्बन कॉपी
Privacy Overview

This website uses cookies so that we can provide you with the best user experience possible. Cookie information is stored in your browser and performs functions such as recognising you when you return to our website and helping our team to understand which sections of the website you find most interesting and useful.