देश में बढ़ते वायु प्रदूषण से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानकों (एनएएक्यूएस) को और सख्त करने की योजना बनाई है। इन मानकों को 2009 से संशोधित नहीं किया गया है।
मिंट की एक रिपोर्ट में मामले से जुड़े दो अधिकारियों के हवाले से बताया गया है कि सरकार ने मानकों को अपडेट करने का काम आईआईटी कानपुर को सौंपा है, जिसने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और अन्य संस्थानों के विशेषज्ञों का एक पैनल गठित किया है।
केंद्र सरकार 1,000 नए एयर मॉनिटरिंग स्टेशन स्थापित करने की भी योजना बना रही है, खासकर उन शहरों में जिनकी आबादी100,000 से अधिक है। वर्तमान में देश भर के 543 शहरों में 1,504 एयर मॉनिटरिंग स्टेशन हैं।
राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानक (एनएएक्यूएस) पर्यावरण और जनसाधारण के स्वास्थ्य को वायु प्रदूषण से बचाने के लिए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा तय किए जाते हैं।
देश के शहरों में तेजी से बढ़ रहा ग्राउंड-लेवल ओजोन प्रदूषण
एक नए अध्ययन से पता चला है कि भारत के प्रमुख शहरों में ग्राउंड-लेवल ओजोन प्रदूषण बढ़ रहा है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) द्वारा जारी अध्ययन के अनुसार, दिल्ली-एनसीआर देश भर के उन 10 शहरों की सूची में शीर्ष पर है, जिनमें ग्राउंड-लेवल ओजोन (ओ3) की सांद्रता अधिक पाई गई।
अध्ययन के अनुसार, 1 जनवरी से 18 जुलाई के बीच 200 दिनों की अवधि के दौरान दिल्ली-एनसीआर में 176 दिनों तक ग्राउंड-लेवल ओजोन की अधिकता पाई गई। इसके बाद मुंबई-एमएमआर और पुणे दूसरे स्थान पर रहे जहां 138 दिन ग्राउंड-लेवल ओजोन की सांद्रता अधिक थी, तीसरे स्थान पर रहा जयपुर जहां यह 126 दिन तक अधिक रही। सीएसई ने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सतत परिवेशी वायु गुणवत्ता मॉनिटरिंग प्रणाली (सीएएक्यूएमएस) के तहत आधिकारिक स्टेशनों से मिले डेटा का उपयोग किया।
ग्राउंड-लेवल ओजोन एक अत्यधिक प्रतिक्रियाशील गैस है और विशेष रूप से सांस की बीमारी वाले लोगों के स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा करती है। पीएम2.5, यानि पार्टिकुलेट मैटर के विपरीत यह प्रदूषक गैस अदृश्य होती है। ग्राउंड-लेवल ओजोन सीधे उत्सर्जित नहीं होता है, बल्कि नाइट्रोजन ऑक्साइड (NOx) और वाहनों, बिजली संयंत्रों, कारखानों और अन्य स्रोतों से उत्सर्जित वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों के बीच एक जटिल पारस्परिक क्रिया से उत्पन्न होता है।
जर्मन वैज्ञानिकों को मिला प्लाटिक खाने वाला फंगस
जर्मनी में वैज्ञानिकों ने एक प्लास्टिक खाने वाले फंगस की पहचान की है, जो हर साल दुनिया के महासागरों को प्रदूषित करने वाले लाखों टन कचरे की समस्या से निपटने में सहायक हो सकता है।
लेकिन उन्होंने चेतावनी दी है कि उनका काम प्लास्टिक प्रदूषण के समाधान का केवल एक छोटा सा हिस्सा हो सकता है, और इसके बाद भी जरूरी है कि फ़ूड पैकेजिंग और अन्य मलबे को पर्यावरण में प्रवेश करने से रोका जाए, जहां इसे नष्ट होने में दशकों लगते हैं।
उत्तर-पूर्वी जर्मनी में लेक स्टेक्लिन में एक विश्लेषण से पता चला है कि कैसे कुछ प्लास्टिक पर सूक्ष्म फंगस पनपते हैं, जिनके पास खाने के लिए कोई अन्य कार्बन स्रोत नहीं है, जिससे स्पष्ट रूप से पता चला है कि उनमें से कुछ सिंथेटिक पॉलिमर को नष्ट करने में सक्षम हैं।
लखनऊ में बेकार साबित हो रहे ध्वनि प्रदूषण रोकने के प्रयास
लखनऊ में ध्वनि प्रदूषण के आंकड़ों की निगरानी करने के लिए मॉनिटरिंग नेटवर्क, क्वॉलिटी सेंसर और माइक्रोफोन लगाए गए थे। लेकिन यह सारे प्रयास जमीनी स्तर पर विफल हो रहे हैं। गौरतलब है कि ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम 2000 तथा संविधान के 1950 के अनुच्छेद 21 में, बिना शोरगुल के शान्ति से रहने का अधिकार दिया गया है।
लखनऊ में कुल 10 रियल टाइम एंबिएंट नाइस मॉनिटरिंग स्टेशन बनाए गए हैं। इनकी निगरानी राज्य प्रदषण नियंत्रण बोर्ड के सहयोग से केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा की जाती है। लेकिन इन 10 में से 8 स्थानों पर दर्शाए जा रहे आंकड़ें परेशान करने वाले हैं।
बाकी बचे दो क्षेत्र, जिसमें एक यूपी प्रदूषण बोर्ड, लखनऊ के अपने मुख्यालय में है, और दूसरा औधोगिक क्षेत्र चिनहट में हैं। इन दोनों क्षेत्रों में लगा मीटर कई महीनों से बंद पड़ा है, जबकि मुख्य सर्वर पर आधा-अधूरा आंकड़ा दर्ज हो रहा है।
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