साल 2024 अबतक इतिहास में दर्ज सबसे गर्म साल रहा, लेकिन इस साल वैश्विक जलवायु संकट में एक और महत्वपूर्ण मोड़ आया।
ग्लोबल वार्मिंग आधिकारिक रूप से 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर गई। ज्यादातर जलवायु सूचकांक ऐसे टिपिंग पॉइंट के करीब पहुंच गए हैं जहां से वापसी मुमकिन नहीं है। लेकिन जिस साल दुनिया को इस संकट से निपटने के लिए तत्परता दिखानी चाहिए, वही साल दोहरे झटके के साथ समाप्त हुआ।
पिछले साल बाकू में कॉप29 सम्मलेन में अमीर देशों ने फाइनेंस के नाम पर केवल 300 बिलियन डॉलर का वादा किया, वह भी कई शर्तों के साथ। दूसरी ओर अमेरिका में जलवायु संकट को हौव्वा बताने वाले डोनाल्ड ट्रंप फिर से राष्ट्रपति चुने गए, जो विकासशील देशों के लिए एक नई चुनौती है।
जलवायु संकट से सबसे बुरे प्रभाव झेलती प्रभावित भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए इन घटनाओं ने एक बात साफ कर दी — कि जलवायु संकट से निपटने के लिए उन्हें खुद ही फाइनेंस की व्यवस्था करनी होगी।
पिछले आर्थिक सर्वे में भारत सरकार ने स्पष्ट रूप से कह दिया था कि क्लाइमेट फाइनेंस की कमी से देशों को अपने “जलवायु लक्ष्यों में बदलाव करना होगा”। जीवाश्म ईंधन का प्रयोग बंद करने के अलावा, भारत के लिए एक रेसिलिएंट इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने, स्वच्छ ऊर्जा अपनाने की गति बढ़ाने, और खतरों से घिर समुदायों का संरक्षण करने के लिए क्लाइमेट फाइनेंस महत्वपूर्ण है।
लेकिन अंतर्राष्ट्रीय फाइनेंस कम होने के साथ, ऐसी क्या वैकल्पिक रणनीतियां हैं जो भारत फाइनेंस पैदा करने के लिए अपना सकता है? विशेषज्ञों का कहना है कि भारत को वैश्विक स्रोतों जैसे डेवलपमेंट बैंक, सॉवरेन वेल्थ फंड, पेंशन और निजी इक्विटी का उपयोग करना चाहिए, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर बैंकों, एनबीएफसी और बड़े निवेशकों के माध्यम से फंड जुटाना चाहिए। उनका मानना है कि पूंजीगत लागत को कम करना, क्रेडिट एक्सेस और डेवलपमेंट बैंको में सुधार कर फंडिंग को सस्ता बनाना, महंगे कर्ज लेने से बेहतर है।
भारत फंडिंग की चुनौती से कैसे निपटता है, उससे न केवल देश के क्लाइमेट एक्शन की दिशा तय होगी, बल्कि वह एक ग्लोबल क्लाइमेट लीडर बन सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि भारत नए तरीकों और रेसिलिएंस के ज़रिए अपनी वित्तीय बाधाओं को अवसर में बदलकर फाइनेंस की दृष्टि से एक बेहत भविष्य बना सकता है।
जलवायु संकट अपने चरम पर
ग्लोबल वार्मिंग खतरनाक गति से बढ़ रही है और धरती एक टिपिंग पॉइंट के करीब पहुंच रही है। पिछले एक दशक में तापमान ने कई रिकॉर्ड तोड़े हैं। अब तक 2024 मानव इतिहास का सबसे गर्म साल रहा है, लेकिन 2025 या रिकॉर्ड तोड़ने की राह पर है। 1980 के दशक के मुकाबले हिमालय के ग्लेशियर दोगुनी गति से पिघल रहे हैं और महासागरों का तापमान चार गुनी रफ्तार से बढ़ रहा है। इससे बाढ़, भूस्खलन, सूखे और चक्रवात जैसी आपदाओं की घटनाएं बढ़ गई हैं जिनसे अर्थव्यवस्था और जान-माल का काफी नुकसान हुआ है।
विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, “सूखे, बाढ़ और भूस्खलन से एशिया में आर्थिक नुकसान तेजी से बढ़ा है।” रिपोर्ट में कहा गया है कि अकेले 2021 में मौसम संबंधी जोखिमों के कारण कुल 3,560 करोड़ डॉलर की क्षति हुई, जिससे लगभग 5 करोड़ लोग प्रभावित हुए। उसी साल एशिया में 100 से अधिक प्राकृतिक घटनाओं में लगभग 4,000 मौतें हुईं।
सीईईडब्ल्यू की एक रिपोर्ट के अनुसार, चावल, गेहूं और मक्के की पैदावार में होने वाला नुकसान 2050 तक 20,800 करोड़ डॉलर और 2100 तक 36,600 करोड़ डॉलर तक पहुंच सकता है। एडीबी की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 2070 तक तटीय बाढ़ लगभग 30 करोड़ भारतीयों को प्रभावित कर सकती है, जिससे जीडीपी 24.7% कम हो सकती है।
ग्लोबल वार्मिंग के इन प्रभावों से निपटने के लिए भारत और दूसरे विकासशील देशों को क्लाइमेट फाइनेंस की तत्काल आवश्यकता है। लेकिन भारत को कितना फाइनेंस चाहिए इसके लिए कई अनुमान लगाए गए हैं।
भारत की फाइनेंस जरूरतों का बढ़ता फासला
भारत सरकार का अनुमान है कि पेरिस समझौते के तहत उसे अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) को पूरा करने के लिए उसे 2030 तक 2.5 लाख करोड़ डॉलर की जरूरत होगी, यानि हर साल 17,000 करोड़ डॉलर। चूंकि भारत ने अपने एनडीसी में संशोधन कर लिया है इसलिए यह राशि भी कम पड़ सकती है। कॉप29 में जारी एक स्वतंत्र विशेषज्ञ रिपोर्ट में कहा गया है कि 2030 तक (चीन को छोड़कर) उभरते बाजारों और विकासशील देशों को क्लाइमेट एक्शन के लिए हर साल 2.3-2.5 लाख करोड़ डॉलर के निवेश की आवश्यकता होगी।
रिपोर्ट में कहा गया है कि “… स्वच्छ ऊर्जा ट्रांज़िशन के लिए लगभग 1.6 लाख करोड़ डॉलर की जरूरत होगी। 25 हज़ार करोड़ डॉलर अडॉप्टेशन और रेसिलिएंस के लिए, 25,000 करोड़ डॉलर लॉस एंड डैमेज के लिए, 30,000 करोड़ डॉलर प्राकृतिक पूंजी और सस्टेनेबल खेती के लिए, जबकि जस्ट ट्रांज़िशन को बढ़ावा देने के लिए 4,000 करोड़ डॉलर की जरूरत होगी।”
कॉप29 में ग्लोबल साउथ के देशों ने 1.3 लाख करोड़ डॉलर के फाइनेंस की मांग की थी, जबकि उन्हें मिले केवल 30,000 करोड़ डॉलर, जो 2035 तक दिए जाएंगे। फाइनेंस में इस बड़ी कमी की भारत सरकार और जलवायु विशेषज्ञों ने कड़ी आलोचना की थी।
भारत का क्लाइमेट फाइनेंस रोडमैप: चुनौतियां और उपाय
भारत जैसे 140 करोड़ से अधिक की जनसंख्या और उभरती हुई अर्थव्यवस्था वाले देश को बुनियादी शिक्षा, रोज़गार और गरीबी उन्मूलन जैसे कार्यों के लिए बड़े पैमाने पर फंड्स की जरूरत है। संयुक्त राष्ट्र की 2019 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत को 2030 तक सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) को पूरा करने के लिए अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 10 प्रतिशत खर्च करना होगा। यानि प्रति व्यक्ति लगभग 2 डॉलर प्रतिदिन। यदि यह भी मान लिया जाए कि केवल आधी आबादी को सरकारी सहायता की जरूरत होगी, तो भी (140 करोड़ की अनुमानित जनसंख्या के अनुसार) प्रतिदिन 140 करोड़ डॉलर की आवश्यकता होगी। मतलब साल में 50,000 करोड़ डॉलर से अधिक।
जैसा कि आर्थिक सर्वे में संकेत दिया गया है, विशेषज्ञों का मानना है कि चूंकि सरकार ज्यादातर घरेलू फंडिंग पर निर्भर होगी, इसलिए भारत के जलवायु लक्ष्य प्रभावित हो सकते हैं।
क्लाइमेट चेंज एक्सपर्ट और नई दिल्ली-स्थित द एनर्जी रिसर्च इंस्टिट्यूट (टेरी) के प्रतिष्ठित फेलो आर आर रश्मि कहते हैं कि “बाकू में लिया गया निर्णय स्पष्ट रूप से निराशाजनक है”। रश्मि ने कार्बनकॉपी से कहा कि “बाकू सम्मेलन से पहले, कई देशों को उम्मीद थी कि अंतर्राष्ट्रीय फाइनेंस से जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने में सहयता मिलेगी। लेकिन अब बिल्कुल साफ है कि ऐसा नहीं होगा।”
“हम पहले ही तापमान के बैरियर को पार कर चुके हैं, और निश्चित रूप से वैश्विक लक्ष्यों को पाने में नाकाम रहेंगे। कई अन्य कारणों के अलावा फाइनेंस की कमी भी इसकी मुख्य वजह है। दूसरा बड़ा कारण है विकसित देशों द्वारा पर्याप्त प्रयासों का अभाव, जो फाइनेंस को लेकर उनके वादों में दिखाई देता है,” रश्मि ने कहा।
वैकल्पिक वित्तीय व्यवस्था के लाभ
पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने फरवरी 2025 में संसद में कहा था कि भारत को अबतक 116 करोड़ डॉलर का फाइनेंस मिल चुका है, जो उसकी जरूरत (17,000 करोड़ डॉलर) का एक प्रतिशत भी नहीं है। उन्होंने कहा कि ज्यादातर क्लाइमेट एक्शन की फंडिंग के लिए भारत घरेलू स्रोतों पर निर्भर है।
पिछले साल क्लाइमेट पॉलिसी इनिशिएटिव (सीपीआई) की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत ने चुनौतियों के बावजूद, ग्रीन फाइनेंस जुटाने में अच्छी प्रगति की है। 2019-20 के दौरान भारत ने 4,400 करोड़ डॉलर जुटाए — जो 2017-18 की तुलना में 150% अधिक था। लेकिन यह भी काफी नहीं। मौजूदा निवेश भारत के जलवायु लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक राशि का लगभग 25% ही हैं। क्लाइमेट संबंधी विदेशी निवेश 2020 में बढ़कर 120 करोड़ डॉलर हो गया, लेकिन उस साल के कुल एफडीआई का सिर्फ 3% था।
कॉप29 सम्मलेन में एक नई जलवायु फंडिंग प्रणाली पर आम सहमति बनी, जिसे न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल (एनसीक्यूजी) कहा जाता है। एनसीक्यूजी ने 2015 में पेरिस सम्मलेन में अमीर देशों द्वारा किए गए 10,000 करोड़ डॉलर के वादे की जगह ली है। नया लक्ष्य 30,000 करोड़ डॉलर का है, लेकिन यह अभी भी बहुत कम है, क्योंकि विकासशील देशों को क्लाइमेट एक्शन के लिए हर साल लाखो-करोड़ों डॉलर की जरूरत है।
यह भी आशंका जताई जा रही है कि एक बड़ी अर्थव्यवस्था होने के कारण भारत को एनसीक्यूजी के तहत कोई अनुदान नहीं मिलेगा, और अल्पविकसित देशों (एलडीसी) और लघुद्वीपीय विकासशील देशों (सिड्स) की जरूरतों को वरीयता दी जाएगी। भारत का ज्यादातर क्लाइमेट फाइनेंस संभवतः देश के भीतर से, या अंतर्राष्ट्रीय विकास बैंकों और भागीदार देशों द्वारा कर्ज के माध्यम से आएगा।
वाशिंगटन डीसी में इंटर-अमेरिकन डेवलपमेंट बैंक के अध्यक्ष के विशेष क्लाइमेट सलाहकार अविनाश डी परसौद कहते हैं कि “भारत पहले से ही अपने ग्रीन ट्रांज़िशन की फंडिंग घरेलू स्रोतों से कर रहा है, लेकिन इसका मतलब है कि बदलाव धीमी गति से होगा। क्योंकि इसके लिए जिस मात्रा में और जिस गति से फाइनेंस चाहिए, उसके लिए चीन को छोड़कर किसी भी विकासशील देश के पास घरेलू फंडिंग के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं।”
कर्ज की अधिक लागत विकासशील देशों के लिए एक बड़ी चुनौती है। फाइनेंस के लिए भारत को लंबी अवधि के कम ब्याज वाले लोन, अधिक इक्विटी निवेश और ज्यादा तेजी से टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की जरूरत है।
सीपीआई रिपोर्ट के अनुसार, फाइनेंस की कमी को पूरा करने के लिए भारत को तेजी से बढ़ते ग्लोबल ग्रीन फाइनेंस मार्केट का रुख करने की आवश्यकता है, जिसमें सॉवरेन वेल्थ फंड, पेंशन फंड, प्राइवेट इक्विटी और इंफ्रास्ट्रक्चर फंड आदि शामिल हैं। ऐसा करने के लिए भारत को स्वच्छ ऊर्जा और जलवायु परियोजनाओं में निवेश को कठिन बनाने वाली बाधाओं को दूर करना होगा। भारत को सस्टेनेबल फाइनेंस के लिए एक मजबूत व्यवस्था बनानी होगी और फंडिंग के विभिन्न स्रोतों की तलाश करनी होगी।
परसौद कहते हैं कि भारत को घरेलू निवेश के साथ-साथ विदेशी निवेश की भी जरूरत है। “ऐसा करने का एक तरीका है कि स्थानीय निवेशक शुरुआती जोखिम उठा कर किसी परियोजना को फंड करें और फिर उसे अधिक लागत पर विदेशी निवेशकों को बेच दें, जिससे प्राप्त मुनाफे से वह अगली परियोजना में निवेश कर सकते हैं।”
सस्टेनेबल फाइनेंस विशेषज्ञ लाबण्या प्रकाश जेना का कहना है कि भारत ने बड़े पैमाने पर घरेलू बाजार से पूंजी जुटाई है, हालांकि क्लाइमेट मिटिगेशन में विदेशी निवेश भी बढ़ रहा है। “कमर्शियल बैंक और एनबीएफसी अक्षय ऊर्जा और स्वच्छ परिवहन के लिए पूंजी आवंटित करते रहेंगे। जरूरी है कि भारत अन्य स्रोतों जैसे पेंशन फंड, बीमा कंपनियों और म्यूचुअल फंड से पूंजी जुटाए। इन स्रोतों का अभीतक उपयोग नहीं किया गया है,” उन्होंने कहा।
एमबीडी की भूमिका
निम्न और माध्यम आय समूह के देशों को क्लाइमेट फाइनेंस मुहैया कराने में मल्टी-लैटरल डेवलपमेंट बैंकों (एमडीबी) की महत्वपूर्ण भूमिका है। कॉप29 में इन बैंकों ने एक संयुक्त बयान जारी किया जिसमें कहा गया था कि “2030 तक, निम्न और मध्यम आय वाले देशों को दी जाने वाली वार्षिक सामूहिक फंडिंग 12,000 करोड़ डॉलर तक पहुंच जाएगी।”
इस बयान में कहा गया कि मल्टीलेटरल डेवलपमेंट बैंकों ने “2019 में 2025 के लिए जो महत्वाकांक्षी क्लाइमेट फाइनेंस अनुमान निर्धारित किए थे उनसे कहीं अधिक प्राप्त कर लिया है। पिछले एक साल में प्रत्यक्ष क्लाइमेट फाइनेंस में 25% की वृद्धि हुई है और क्लाइमेट एक्शन के जुटाई गई फंडिंग दोगुनी हो गई है।
एनसीक्यूजी के अनुच्छेद 8सी में अब आधिकारिक तौर पर एमडीबी से मिली फंडिंग को फाइनेंस की श्रेणी में रखा गया है।
रश्मि के अनुसार अब विकसित देशों का यह कर्तव्य है कि रियायती दरों पर फंडिंग सुनिश्चित करें, ताकि भारत जैसे देशों को लंबी अवधि के कर्ज के लिए अधिक लागत न देनी पड़े। उन्होंने कहा कि फाइनेंस को रियायती दरों पर होना अनिवार्य है, इसलिए विकसित देशों को एमडीबी के माध्यम से यह सुनिश्चित करने के लिए एक व्यवस्था बनानी होगी। इसके तहत मुद्रा विनिमय दरों के उतर-चढ़ाव के समाधान के तौर पर सरकार की गारंटी, पार्शियल क्रेडिट गारंटी, या स्पेशल फंडिंग की सहायता ली जा सकती है।
संयुक्त राष्ट्र की वेबसाइट में 40 से अधिक बहुपक्षीय वित्तीय संस्थान और द्विपक्षीय विकास निगम और एजेंसियां सूचीबद्ध हैं, जिनमें एशियन डेवलपमेंट बैंक, यूरोपीयन इंवेस्टमेंट बैंक और विश्व बैंक शामिल हैं। द्विपक्षीय एजेंसियां ज्यादातर अमेरिका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में स्थित हैं।
“एमडीबी क्रेडिट गारंटी जैसे समर्थन की पेशकश करके जलवायु परियोजनाओं में निवेश के जोखिम को कम कर सकते हैं। यह सुरक्षित निवेश पसंद करने वाले बड़े निवेशकों को आकर्षित करने में मदद करता है। लेकिन यह जरूरी है कि यह गारंटी सस्ती हो, मसलन इसपर शुल्क को कम किया जा सकता है, ताकि जलवायु परियोजनाएं वास्तव में इसका उपयोग कर सकें,” जेना ने कहा।
लेकिन इसमें कुछ समस्याएं भी हैं। जैसा कि वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआई) के इस लेख में कहा गया है, “एमडीबी को अपने क्लाइमेट फाइनेंस की गुणवत्ता में सुधार करने और देशों की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त रियायती दरें सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।” लेख में यह भी रेखांकित किया गया है कि जीवाश्म ईंधन को फंडिंग लगातार जारी है, जो क्लाइमेट एक्शन के लिए हानिकारक है। साथ ही सबसे कमजोर देशों को दिए जाने वाले फाइनेंस में कमी आ रही है।
अनुकूलन (अडॉप्टेशन) बनाम शमन (मिटिगेशन): फंडिंग में असमानता
भारत की मिटिगेशन योजनाएं महत्वकांक्षी हैं, जिसका लक्ष्य 2070 तक नेट जीरो उत्सर्जन तक पहुंचने का है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील देशों में से एक होने के नाते, भारत को अडॉप्टेशन पर काम करने की जरूरत है। ताकि यह हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) से निपट सके और एक क्लाइमेट-रेसिलिएंट इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण कर सके। अत्यधिक गर्मी, लंबी अवधि का सूखा, पानी की कमी, अचानक बाढ़, और लगातार चक्रवात जैसी घटनाएं इंफ्रास्ट्रक्चर को नुकसान पहुंचा सकती हैं, फसल की पैदावार में बाधक होती हैं और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती हैं।
ऐसी स्थिति में यह सवाल लाज़िमी है कि क्या अनुकूलन और शमन, दोनों परियोजनाओं के लिए समान रूप से फाइनेंस उपलब्ध है? हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि नियमानुसार दोनों के बीच फाइनेंस समान रूप से विभाजित किया जाना चाहिए, लेकिन अनुकूलन को फंडिंग अपेक्षाकृत आसानी से मिल जाती है, जबकि शमन के लिए फंडिंग प्राप्त करना मुश्किल है।
“क्लाइमेट अडॉप्टेशन को जनहित में किया गया कार्य माना जाता है, इसलिए प्राइवेट कैपिटल को आकर्षित करना मुश्किल होता है। इसका मतलब है कि अडॉप्टेशन परियोजनाओं को सार्वजनिक पूंजी पर निर्भर रहना होगा। भारत जैसे विकासशील देशों के लिए यह बड़ी चुनौती है, जहां सरकारों के पास वित्तीय साधन सीमित हैं,” जेना ने कहा।
आर्थिक सर्वे में भी कहा गया है कि भारत को उत्सर्जन शमन की बजाय अनुकूलन पर कहीं अधिक ध्यान देने की जरूरत है। इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “भारत जैसे संवेदनशील विकासशील देशों को तत्काल आधर पर जलवायु अनुकूलन करने की आवश्यकता है क्योंकि इसका जीवन आजीविका और अर्थव्यवस्था पर सीध प्रभाव पड़ता है।”
हालांकि आर्थिक सर्वे में अनुकूलन को वरीयता देने की बात कही गई है। लेकिन जमीन पर वास्तविकता कुछ और ही है। नेशनल अडॉप्टेशन फंड फॉर क्लाइमेट चेंज (एनएएफसीसी) को अनुकूलन कार्यों की फंडिंग के लिए बनाया गया था, लेकिन 2022 में इसे एक नियमित योजना से एक गैर-स्कीम में बदल दिया गया। डाउन टू अर्थ के एक विश्लेषण के अनुसार, 2022-23 से इसे कोई बजट नहीं मिला है। नेशनल कोस्टल मिशन की फंडिंग में भी कटौती की गई है, और ओ-स्मार्ट (ओशन सर्विसेज, मॉडलिंग, एप्लीकेशन, रिसोर्सेज एंड टेक्नोलॉजी) प्रोग्राम को पिछले दो वर्षों से कोई पैसा नहीं मिला है।
हालांकि, सरकार ने नेशनल मिशन फॉर ए ग्रीन इंडिया (एनएमजीआई) के लिए बजट को 2024-25 में 160 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 2025-26 में 220 करोड़ रुपए कर दिया है। सरकार ने 2024 में (देश को किसी भी मौसम के लिए ‘तैयार’ रहने और जलवायु आपदाओं से निपटने में सक्षम बनाने के लिए) ‘मिशन मौसम‘ जैसी कुछ महत्वाकांक्षी परियोजनाएं भी शुरू की हैं। इसके लिए आगामी दो सालों में 2,000 करोड़ रुपए का बजट परिव्यय रखा गया है।
चूंकि विकासशील और अल्पविकसित देशों (एलडीसी) पर चरम मौसम की घटनाओं का जोखिम अधिक है, इसलिए इन्हें हानि और क्षति (लॉस एंड डैमेज) के लिए भी फाइनेंस की जरूरत है, जो मिलना और भी कठिन है।
जेना कहते हैं कि लॉस एंड डैमेज फंड से सहायता जलवायु आपदा के बाद मिलती है। चूंकि यह ‘पोस्ट-इवेंट फंड’ है, यह आमतौर पर सरकारी वित्तपोषण से ही आ सकता है, जब तक कि क्षतिग्रस्त संपत्ति का पहले से ही बीमा न किया गया हो।
परसौद कहते हैं कि सरकारी समर्थन के साथ, निजी निवेशक उत्सर्जन को कम (शमन) करने वाले जलवायु उपायों को फंड करने में मदद कर सकते हैं, और सार्वजनिक फंड बेहतर स्वास्थ्य प्रणालियों या मजबूत इंफ्रास्ट्रक्चर जैसी अनुकूलन परियोजनाओं की फंडिंग कर सकते हैं, जिससे लंबे समय में पैसे बचते हैं।
लेकिन लॉस एंड डैमेज फंडिंग से बचत या आय उत्पन्न नहीं होती है, इसलिए यह अनुदान के रूप में मिलना चाहिए, न कि ऋण या निजी धन द्वारा।
“अच्छे से अच्छे समय में भी अनुदान सीमित होते हैं, इसलिए नए स्रोत तलाशने की जरूरत है। जैसे शिपिंग में उत्सर्जन पर टैक्स और परिवहन और प्रदूषणकारी उद्योगों की सब्सिडी में कटौती,” उन्होंने कहा।
ट्रंप का बहाना
जलवायु संकट को हौव्वा बताने वाले डोनाल्ड ट्रंप एक बार फिर अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए हैं, और आशंकाएं प्रबल हो गई हैं कि वैश्विक स्तर पर फाइनेंस की प्रतिबद्धताएं और कम हो जाएंगी। क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क साउथ एशिया के कोआर्डिनेटर नकुल शर्मा कहते हैं कि ट्रंप की नीतियों से भारत की क्लाइमेट रणनीति अंतर्मुखी हो जाएगी और महत्वाकांक्षी अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं की जगह खेती, एनर्जी डायवर्सिफिकेशन और शहरों को रेसिलिएंट बनाने पर अधिक ध्यान दिया जाएगा।
शर्मा ने कहा, “उचित और मजबूत फाइनेंस के बिना भारत को अपनी रणनीति बदलनी होगी। नवीकरणीय ऊर्जा जैसे क्षेत्रों पर मुख्य रूप से ध्यान केंद्रित करने के बजाय, भारत अब कृषि, नए ऊर्जा स्रोतों और शहरों को अधिक रेसिलिएंट बनाने को अधिक महत्व देगा। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत पहले वैश्विक जलवायु लक्ष्यों के समर्थन में अपने उचित हिस्से से अधिक की प्रतिबद्धता कर चुका है, लेकिन अब उसे अपनी प्राथमिकताओं पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।”
भारत के लिए यह मौका है जब वह क्लाइमेट फाइनेंस में सुधारों का नेतृत्व कर विकासशील देशों के लिए एक मिसाल कायम कर सकता है। चुनौती बड़ी है, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि अच्छी योजना और स्मार्ट नीतियों की मदद से भारत सतत विकास के एक मजबूत मॉडल का निर्माण कर सकता है।
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