Newsletter - September 16, 2024
किसान आत्महत्याओं से घिरे मराठवाड़ा में जलवायु संकट की मार
सितंबर के पहले हफ्ते में हुई अप्रत्याशित बारिश ने मराठवाड़ा के कम से कम 12 लाख हेक्टयर में फसल तबाह हो गई। अन्य कारणों के साथ जलवायु परिवर्तन किसानों को कर्ज़ के गर्त में धकेल रहा है और वो आत्महत्या को मजबूर हो रहे हैं।
महाराष्ट्र में बीड जिले के पिंपलगांव गांव में, अर्चना महादेव लगभग दो एकड़ में फैले अपने कपास के खेतों को देखती है। उसके चेहरे पर आशा और घबराहट के मिलेजुले भाव हैं। फसल की कटाई का समय नजदीक है लेकिन उसे अपनी फसल बचाने से ज्यादा अपने पति की चिंता है। पिछले सात वर्षों में, फसल बर्बाद होने और बढ़ते कर्ज के कारण परिवार के दो सदस्यों ने आत्महत्या कर ली है।
अर्चना कहती हैं, “मुझे अब अपने पति की चिंता हो रही है। शिक्षित होने के बावजूद उनके पास कोई नौकरी नहीं है और यहां खेती करना कठिन होता जा रहा है। किसान संकट में अपनी जान दे रहे हैं।”
कई दशकों से महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र किसानों की आत्महत्या के लिए खबरों में बना हुआ है, लेकिन अब इससे लगे मराठवाड़ा क्षेत्र में भी मामले चिंताजनक रूप से बढ़ रहे हैं, जहां राज्य के कुल आठ जिले हैं। बीड जिले में इस साल के पहले छह महीनों में 100 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है, जिसका मतलब है कि केवल एक जिले में हर हफ्ते चार से अधिक किसान अपनी जान दे रहे हैं।
कार्बनकॉपी ने मराठवाड़ा क्षेत्र का दौरा किया और पाया कि इस बढ़ते कृषि संकट के पीछे कई कारक हैं, जैसे कम भूमि जोत, फसलों का गैर-विविधीकरण, उर्वरकों और कीटनाशकों की बढ़ती कीमत के साथ-साथ अनिश्चित मौसम और जलवायु प्रेरित कारक जो कई बार फसलों को खराब करते हैं। इसने मराठवाड़ा को उस कगार पर धकेल दिया है, जहां न केवल बड़ी संख्या में मौतें हुईं, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में पलायन भी बढ़ गया है।
मराठवाड़ा: किसान आत्महत्याओं का नया केंद्र
करीब चार दशक पहले जब 19 मार्च, 1986 को महाराष्ट्र के यवतमाल जिले से एक किसान परिवार की सामूहिक आत्महत्या की खबर आई और भारत एक कड़वी हकीकत से रूबरू हुआ। आने वाले कई वर्षों तक और आज भी विदर्भ किसान आत्महत्याओं का केंद्र बना हुआ है। लेकिन अब निकटवर्ती मराठवाड़ा भी गहरे कृषि संकट में फंस गया है। 2002 के बाद से, क्षेत्र के आठ जिलों, शम्भाजी नगर, धाराशिव, बीड, जालना, हिंगोली, लातूर, नांदेड़ और परभणी में हर साल 200 से अधिक आत्महत्याएं देखी गई हैं और पिछले 10 वर्षों में यह संख्या तेजी से बढ़ी है।
हिंगोली जिले में खुदकुशी कर चुके किसानों के परिवारों की मदद कर रहे सत्तर वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता जयाजी पाइकराव के अनुसार, वर्षों से किसानों के बीच संकट का मूल कारण नीति निर्माताओं द्वारा “आधुनिक कृषि” के नाम पर पेश किए गए कृषि के अस्थिर और महंगे साधन हैं।
पाइकराव के मुताबिक, “1970 के दशक में हरित क्रांति की शुरुआत के साथ ही किसानों ने पारंपरिक तरीकों को छोड़ दिया और संकर बीजों, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग करना शुरू कर दिया। हमारे तत्कालीन मुख्यमंत्री वसंतराव नाइक कृषि विज्ञानी एमएस स्वामीनाथन की सलाह से आधुनिक कृषि को बढ़ावा देने के लिए बहुत उत्सुक थे। शुरुआत में इससे फसलों की अधिक पैदावार के रूप में अच्छे परिणाम मिले, लेकिन बाद में किसान कई समस्याओं से घिर गए। संकर बीज के लिए अधिक से अधिक पानी, उर्वरक और रसायनों की आवश्यकता होती है और वक्त बीतने के साथ भूमि परिवार के सदस्यों के बीच वितरित होने के कारण बोया जाने वाला क्षेत्र कम हो गया है। इससे उनकी उत्पादन लागत बढ़ती गई।”
पाइकराव के अनुसार, इसका असर सबसे पहले यवतमाल और विदर्भ के अन्य हिस्सों में दिखाई दिया, जहां से 1980 और 1990 के दशक में किसानों की आत्महत्या की खबरें आईं, लेकिन जल्द ही यह समस्या मराठवाड़ा क्षेत्र में भी शुरू हो गई।
उन्होंने कहा, “सरकार ने किसानों को कपास, सोयाबीन और गन्ना जैसी नकदी फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्हें बैंकों के माध्यम से ऋण उपलब्ध कराया गया। लेकिन फसल बर्बाद होती गई, पैसा गैर कृषि कार्यों में लग गया और कर्ज ने किसानों के जीवन को घेर लिया। पिछले 20 वर्षों में इस क्षेत्र में किसानों की आत्महत्या अब हर रोज की खबर है।”
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इस साल के पहले छह महीने में – जनवरी से जून के बीच – मराठवाड़ा के आठ जिलों में 430 आत्महत्या के मामले सामने आए। बीड 101 मामलों के साथ शीर्ष पर था, उसके बाद धाराशिव (उस्मानाबाद) और नांदेड़ हैं जहां 76 और 68 मामले दर्ज किए गए।
तालिका 1 – मराठवाड़ा में ज़िलेवार किसान आत्महत्याओं के आंकड़े [जनवरी- जून 2024]
जिला | मौतों की संख्या | मुआवज़े की योग्यता | अस्वीकृत | जांच के अधीन | मुआवज़ा (लाख रुपए) |
संभाजी नगर (औरंगाबाद) | 64 | 48 | 0 | 16 | 22 |
जालना | 40 | 36 | 3 | 1 | 16 |
परभनी | 31 | 9 | 5 | 17 | 2 |
हिंगोली | 17 | 9 | 1 | 7 | 9 |
नांदेड़ | 68 | 51 | 1 | 16 | 17 |
बीड | 101 | 46 | 5 | 50 | 46 |
लातूर | 33 | 26 | 1 | 6 | 26 |
धाराशिव(ओस्मानाबाद) | 76 | 31 | 4 | 41 | 31 |
कुल (मराठवाड़ा) | 430 | 256 | 20 | 154 | 169 |
हालाँकि, जुलाई तक, आत्महत्या से मरने वाले इन 430 किसानों में से केवल 256 को ही किसान आत्महत्या माना गया। बीस मामले खारिज कर दिए गए और जुलाई तक 154 मामलों की जांच चल रही थी। लेकिन यह संख्या (256) भी बताती है कि मराठवाड़ा में हर हफ्ते 10 किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
संकट के पीछे कई कारण
कर्नाटक और तेलंगाना राज्यों की सीमा से लगा मराठवाड़ा क्षेत्र (जिसे औरंगाबाद डिवीजन भी कहा जाता है) महाराष्ट्र के विदर्भ, नासिक और पुणे डिवीजनों से घिरा हुआ है। यह अजंता पर्वत श्रृंखला की वर्षा छाया पट्टी (रेन शेडो बेल्ट) में स्थित है और सूखे प्रभावित है। इस क्षेत्र में उगाई जाने वाली मुख्य फसलें कपास, गन्ना, सोयाबीन, हल्दी, गेहूं और दालें हैं।
इस शुष्क क्षेत्र को विशेष रूप से 2011 के बाद से लगातार सूखे या सामान्य से कम वर्षा का सामना करना पड़ा है। क्योंकि मराठवाड़ा की 80% से अधिक कृषि भूमि बारिश पर निर्भर है, इसने पिछले 15 वर्षों में स्थिति को गंभीर बना दिया है। जल स्तर तेजी से घट रहा है क्योंकि गन्ने जैसी नकदी फसल – जो फसल क्षेत्र के 5% से भी कम में उगाई जाती है – सिंचाई के लिए उपलब्ध पानी का दो-तिहाई उपयोग करती है। इसके परिणामस्वरूप जल स्तर में कमी आई है और जलस्रोत सूखने लगे हैं।
धाराशिव के किसान सुरेश चंद ने कार्बनकॉपी को बताया, ”कई जगहों पर जलस्तर 700 फीट तक गिर गया है. कुछ स्थानों पर किसानों को पानी पाने के लिए 1000 फीट गहरी खुदाई करनी पड़ती है। इससे उत्पादन लागत में भारी वृद्धि होती है। फसल तो छोड़िए, पानी की कमी के कारण हम अपने पशुओं के लिए हरा चारा भी नहीं उगा पाते। यह हमारे लिए पशुपालन को भी असंभव बना देता है।”
भारत में कीटनाशकों का सबसे अधिक उपयोग महाराष्ट्र में होता है। सरकारी वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2021-22 में देश में कुल 63284 टन रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग किया गया और इसमें से महाराष्ट्र की हिस्सेदारी 13175 टन थी – जो राष्ट्रीय खपत का लगभग 21% है। पेस्टिसाइड एक्शन नेटवर्क (पैन) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2014-15 और 2018-19 के बीच महाराष्ट्र में कीटनाशकों का उपयोग 35% से अधिक बढ़ गया है, जबकि 2014-15 और 2017-18 के बीच राष्ट्रीय औसत वृद्धि लगभग 13% थी।
कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों के इस अत्यधिक उपयोग ने किसानों को कर्ज में धकेलने में प्रमुख भूमिका निभाई है। वेबसाइट स्टेटिस्टिका के अनुसार कीटनाशकों का थोक मूल्य सूचकांक 2013 में 107.5 से बढ़कर 2023 में 143.4 हो गया, जो दस वर्षों में 33% की छलांग है।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (टीआईएसएस), तुलजापुर परिसर के शोधकर्ताओं ने मराठवाड़ा में व्यापक रूप से उगाई जाने वाली नकदी फसल सोयाबीन के प्रति एकड़ उत्पादन की लागत की गणना की है और पाया है कि एक एकड़ में उगाई गई फसल के लिए एक किसान को 24613 रुपये खर्च करने पड़ते हैं। सर्वोत्तम गुणवत्ता वाली मिट्टी से 10 से 15 क्विंटल फसल प्राप्त होती है। औसत गुणवत्ता वाली मिट्टी एक सीज़न में 8-9 क्विंटल और निम्न गुणवत्ता वाली मिट्टी 5-6 क्विंटल उपज देती है, जिसमें फसल की बुआई से लेकर कटाई तक लगभग चार महीने लगते हैं।
संस्थान के एक शोधकर्ता ने इस लेखक को बताया, “अगर परिवार के चार सदस्य खेती में लगे हैं, तो 15 क्विंटल की उच्चतम उपज भी उन्हें प्रति एकड़ 75,000 रुपये देगी। खर्च घटाने पर हाथ में सिर्फ 50,000 रुपये की आमदनी आती है. इसका मतलब है कि एक एकड़ फसल के लिए, प्रति व्यक्ति प्रति माह कमाई केवल लगभग 3,100 रुपये बनती है।”
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि उपरोक्त गणना उस स्थिति के लिए है जब मिट्टी सबसे उपजाऊ होती है और फसल उगाने की परिस्थितियाँ अनुकूल होती हैं और फसल को बाजार में अच्छी कीमत मिलती है। किसान नेता और कार्यकर्ता हनुमंत राजगोरे का कहना है कि किसानों को आम तौर पर एक एकड़ से आठ क्विंटल से अधिक सोयाबीन की फसल नहीं मिलती है और जब वे इसे बेचने जाते हैं तो अक्सर उन्हें बाजार में अच्छे दाम नहीं मिलते हैं।
उन्होंने कहा, ”ज्यादातर किसानों के पास 5 एकड़ से ज्यादा जमीन नहीं है. इसलिए सर्वोत्तम उपज परिदृश्य में भी मासिक कमाई (उपर्युक्त गणना के अनुसार) प्रति व्यक्ति 15,500 रुपये से अधिक नहीं है।
मराठवाड़ा के कई जिलों के किसानों ने यह शिकायत की कि उन्हें उनकी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) नहीं मिलता है। किसानों की मांग के अनुसार फसल उगाने के कुल इनपुट और ज़मीन किराए पर 50% अतिरिक्त भुगतान चाहते हैं जो एमएसपी का एमएस स्वामीनाथन फॉर्मूला (सी2+50%) है।
राजगोरे के मुताबिक, ”एमएसपी सरकार की ओर से सिर्फ एक घोषणा है। यह निजी खरीदारों के लिए कानूनी रूप से बाध्यकारी भी नहीं है। इसलिए खुले बाजार में किसानों को उनकी प्रति क्विंटल फसल पर 500-600 रुपये कम मिलते हैं। 10 फीसदी से भी कम किसानों को एमएसपी का लाभ मिलता है. ”
कृषि संकट पर TISS की रिपोर्ट कृषि में कम विविधीकरण को एक कारण बताती है। इसके मुताबिक
जिले में बागवानी के लिए भूमि और जलवायु की उपयुक्तता के बावजूद, बागवानी भूमि वाले किसानों का प्रतिशत केवल 1.8% है। यह कृषि क्षेत्र में कम विविधीकरण और पारंपरिक खेती पर उच्च निर्भरता को दर्शाता है।
लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि सफल विविधीकरण के लिए गारंटीशुदा कीमत के आश्वासन की आवश्यकता होती है। इसके अभाव में किसानों ने उच्च वाणिज्यिक नकदी फसलों को चुना क्योंकि अन्य पारंपरिक फसलों की कीमतें स्थिर हैं। वे जोखिम लेते हैं लेकिन सभी उच्च मूल्य वाली फसलों में उच्च उतार-चढ़ाव भी वैसा ही देखने को मिलता है। जब उपज अधिक होती है तो कीमतें गिर जाती हैं।
कृषि विशेषज्ञ देवेन्द्र शर्मा कहते हैं, ”हमने देखा है कि सोयाबीन जैसी फसल में किसान को एक साल में 8 से 9 हजार रुपये प्रति क्विंटल तक का भुगतान मिला है लेकिन फिर वही फसल उन्हें 4000 रुपये प्रति क्विंटल से भी कम में बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा… यह उतार-चढ़ाव किसान के लिए घातक है। मेरा सवाल यह है कि जब बाजार में हर उत्पाद के लिए न्यूनतम मूल्य तय है, तो किसानों की फसलों के लिए यह क्यों तय नहीं किया गया है, जबकि हम जानते हैं कि उत्पादन की ऊंची लागत के कारण वे पहले से ही संकट में हैं और अप्रत्याशित और चरम मौसम की विकट होती स्थिति से भारी नुकसान झेल रहे हैं।”
सरकारी अधिकारी मानते हैं कि कम भूमि जोत, उत्पादन की उच्च लागत और कम रिटर्न ने क्षेत्र में किसानों की आत्महत्या में भूमिका निभाई है।
हिंगोली जिले के एडिशनल कलेक्टर खुशाल सिंह परदेसी का कहना है कि “समय बीतने के साथ किसान के पास भूमि जोत क्षेत्रफल घटता जा रहा है और खर्च लगातार बढ़ रहा है।” उनके अनुसार रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग और लगातार फसल के कारण “मिट्टी की उपजाऊ क्षमता” कम हो गई है। इसलिए “किसानों की आय और जरूरतों के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है।”
उन्होंने कहा, “किसानों की मदद के लिए सरकार उर्वरकों पर सब्सिडी देती है। महाराष्ट्र में प्रमुख फसल सोयाबीन है और सरकार ने इसके लिए एक निश्चित एमएसपी तय किया है। कपास के लिए भी हम कीमत नियंत्रित कर रहे हैं। अन्य फसलों के लिए राज्य हमारे राज्य विपणन संघों की मदद से NAFED का समर्थन कर रहा है, जिससे किसानों को अच्छी कीमत पाने में मदद मिलती है।”
लेकिन बहुत से सरकारी अधिकारी किसान आत्महत्याओं के लिए “बदली हुई जीवनशैली” और “पारंपरिक रीति-रिवाजों” को भी जिम्मेदार मानते हैं।
खुशाल सिंह कहते हैं, “समय बदल गया है। अब किसानों को परिवहन के लिए मोटरसाइकिल और संचार के लिए मोबाइल फोन जैसी चीजों की भी आवश्यकता है जो पहले नहीं थी। आज से 10-15 साल पहले ऐसा नहीं था कि किसान विवाह जैसे भव्य समारोहों या भव्य धार्मिक रीति-रिवाजों या त्योहारों के लिए ऋण लें लेकिन अब तो किसान अक्सर अपनी बेटी की शादी के लिए अपनी जमीन तक बेच देते हैं। ये चीजें किसान आत्महत्या के पचास प्रतिशत के लिए जिम्मेदार हैं। ”
किसानों के अधिकारों के लिए लड़ रहे संगठन इस दावे का पुरजोर खंडन करते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता सीमा कुलकर्णी, जो महिला किसानों के अधिकारों के लिए महिला किसान अधिकार मंच (MAKAAM) फोरम की राष्ट्रीय टीम की सदस्य हैं, कहती हैं, “हमारे सभी सर्वेक्षण और जमीनी स्तर पर टिप्पणियों से पता चलता है कि गरीबी और असमानता केवल ग्रामीण इलाकों में गहरी हुई है। विदर्भ और मराठवाड़ा ऐसे क्षेत्र हैं जहां कृषि संकट बढ़ रहा है। आत्महत्याएं बढ़ रही हैं और पलायन भी बढ़ रहा है। किसानों को उनकी खेती का दाम नहीं मिल रहा है।”
जलवायु परिवर्तन, संकट का एक बड़ा कारण
इस कृषि संकट में जलवायु परिवर्तन का अहम रोल है। चूँकि तापमान और आर्द्रता में उच्च उतार-चढ़ाव और अचानक या बहुत देरी से होने वाली बारिश फसलों को बर्बाद कर रही है, इससे किसानों का वित्तीय संकट बढ़ रहा है। सितंबर के पहले सप्ताह में भारी बारिश के कारण मराठवाड़ा में कम से कम 10 लोगों की मौत हो गई और लगभग 12 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खड़ी फसलें नष्ट हो गईं. मराठवाड़ा के आठ जिलों के कुछ क्षेत्रों में 24 घंटों में 130 मिमी से अधिक वर्षा हुई, जो इस “शुष्क क्षेत्र” के लिए नई चुनौती है। इससे मराठवाड़ा के 883 जिलों के 14 लाख से अधिक किसान प्रभावित हुए।
महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में काम कर रहे सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के कार्यकारी निदेशक डॉ रामंजनेयुलु जी.वी. का कहना है कि वर्षा, आर्द्रता और तापमान के ग्राफ में असामान्यता तेजी से बढ़ रही है और सफल कृषि के लिए एक बहुत विस्तृत और सूक्ष्म अनुसंधान की आवश्यकता है।
रामनजनेयुलु ने कहा, “दुर्भाग्य से सरकार केवल एक निश्चित अवधि में कुल वर्षा को देख रही है। वर्षा के वितरण को नहीं देखा जाता है। बारिश के दिनों की संख्या कम हो रही है और किसी विशेष दिन पर बारिश बढ़ रही है। लेकिन बरसात के दो दिनों के बीच का अंतराल काफी लंबा होता है। इसलिए (वर्षा के अभाव में) कोई भी फसल लगभग दस दिनों तक जीवित रह सकती है, लेकिन उससे अधिक नहीं।”
सरकार फसलों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को स्वीकार करती है और कहती है कि नुकसान से बचने के लिए किसानों को वैज्ञानिक जानकारी प्रदान की जाती है। कृषि विज्ञान केंद्र, हिंगोली के वरिष्ठ वैज्ञानिक और प्रमुख डॉ. पीपी शेल्के ने हमें बताया, “हम किसानों को विज्ञान पर आधारित सहायता प्रदान करते हैं। हम किसानों के समूह बनाते हैं और उन्हें बताते हैं कि क्या उगाना है और कब उगाना है ताकि वे जलवायु परिवर्तन से प्रेरित अप्रत्याशित कारकों का मुकाबला कर सकें, लेकिन टेक्नोलॉजी की भी एक सीमा होती है। यदि किसी फसल के लिए बारिश में एक विशेष अवधि, मान लीजिए दस दिन से अधिक की देरी होती है, तो कोई कुछ नहीं कर सकता।”
ऐसे हालात में रामांजनेयुलु काश्तकारों को बैंक ऋण की अनुपलब्धता जैसी समस्याओं की ओर इशारा करते हैं। नियमों के मुताबिक केवल भूमि स्वामी किसानों को ही ऋण सुविधा मिलती है, लेकिन हकीकत में ज़मीन पर खेती करने वाले बटाईदार हैं।
रामंजनेयुलु कहते हैं, “महाराष्ट्र कागज़ पर किरायेदारी को स्वीकार नहीं करता है लेकिन व्यवहार में किरायेदारी बहुत अधिक है। भूमि मालिकों के पास जमीन होती है लेकिन किरायेदार किसान जमीन पर खेती करते हैं और कोई लिखित किरायेदारी समझौता नहीं होता है और इन लोगों (किरायेदारों) को बैंकों से ऋण नहीं मिलता है। इसलिए इन लोगों को बैंकों से रियायती दरों पर ऋण नहीं मिलता है। वे निजी ऋणदाताओं के पास जाते हैं और कर्ज में फंस जाते हैं क्योंकि ब्याज दरें बहुत अधिक होती हैं।”
लेकिन आत्महत्या करने वाला किसान मुआवजे का पात्र नहीं होता अगर उसने निजी साहूकार से कर्ज लिया हो। एक अन्य समस्या फसल बीमा नियम है। बीमा कवरेज को परिभाषित करने के लिए एक प्रशासनिक ब्लॉक या सर्कल (जिसमें कई गांव होते हैं) को एक इकाई माना जाता है।
डॉ रामांजनेयुलु कहते हैं कि मौसम और जलवायु की बढ़ती अनिश्चितताओं के साथ यह किसानों के लिए बेहतर होगा कि मुआवज़े के लिए निर्णय लेने वाली इकाई छोटी है। उन्होंने बताया, “जब तक किसी ब्लॉक में 50% फसल नष्ट नहीं हो जाती, उस ब्लॉक के एक गांव का किसान मुआवजे का पात्र नहीं है।”
अखिल भारतीय किसान सभा, महाराष्ट्र के सचिव अजीत नवले कहते हैं, ”हम लगातार मांग कर रहे हैं कि फसल बीमा की इकाई गांव होनी चाहिए. यहां तक कि एक गांव में भी दो अलग-अलग स्थानों पर जलवायु की स्थिति अलग-अलग होती है। 20 या 30 गाँवों वाली एक बड़ी इकाई क्षति का आकलन करते समय कैसे न्याय कर सकती है? लेकिन जब भी हम छोटी इकाई की मांग उठाते हैं, तो सरकार कहती है कि कंपनियों के लिए इस (गांव) स्तर पर कर्मचारियों को नियुक्त करना व्यवहार्य नहीं है। सरकार उन कंपनियों को लेकर चिंतित क्यों है जो प्रीमियम से इतना मुनाफ़ा कमाती हैं?”
पिछले कुछ वर्षों में, रासायनिक उर्वरकों की खपत का ग्राफ लगातार ऊपर गया है और इसने पर्यावरण को ख़राब करने और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की समस्या को बढ़ाया है। फर्टिलाइजर इंडिया के अनुसार, यूरिया की बिक्री, जो (नाइट्रस ऑक्साइड) N2O के उच्च उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है – CO2 से 300 गुना अधिक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस – महाराष्ट्र में आठ वर्षों में 12.5% से अधिक बढ़ गई है – 2.29 मिलियन टन से 2012-13 में 2023 में 2.58 मिलियन टन – एक दशक में 12.5% से अधिक की वृद्धि। विश्व स्तर पर वायुमंडल में 70% से अधिक नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन के लिए कृषि क्षेत्र जिम्मेदार है।
डॉ रामांजनेयुलु ने कहा, “रासायनिक उर्वरक का उपयोग जलवायु और मिट्टी के स्वास्थ्य के लिए एक समस्या है। आपके द्वारा उपयोग किए जाने वाले प्रत्येक 100 किलोग्राम यूरिया से 1.2 किलोग्राम नाइट्रस ऑक्साइड निकलता है। इसका मतलब है लगभग 350 या 400 किलोग्राम CO2 के बराबर उत्सर्जन। इसलिए आप खेतों में जितना अधिक यूरिया का उपयोग करेंगे, उतना अधिक GHG उत्सर्जन होगा और जलवायु परिवर्तन की समस्या बढ़ेगी। दूसरा, यूरिया के बढ़ते उपयोग से मिट्टी की जल धारण क्षमता कम हो जाती है। पहले मिट्टी की जल धारण क्षमता अधिक होती थी इसलिए यदि 10 दिनों तक बारिश न हो तो फसल बच जाती थी, लेकिन अब यूरिया के अत्यधिक उपयोग के कारण मिट्टी के छिद्र ढक जाते हैं और पानी का रिसाव नहीं होता है। इसलिए बारिश में सिर्फ पांच दिन की देरी से फसल बर्बाद हो सकती है क्योंकि मिट्टी में नमी नहीं है”।
धाराशिव: भारत के सबसे पिछड़े ज़िलों में एक
धाराशिव (पुराना नाम उस्मानाबाद), भारत के सबसे पिछड़े जिलों में से एक है। यह नीति आयोग की देश के आकांक्षी जिलों की सूची में शामिल है। कोई उद्योग और कृषि विफल न होने के कारण, धाराशिव में रोजगार के लिए बड़ा पलायन होता है।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस (टीआईएसएस), ओस्मानाबाद परिसर के (जिला प्रशासन द्वारा कराए गए) एक सर्वेक्षण के अनुसार, धाराशिव जिले में 70% से अधिक किसानों के पास अल्प या सीमांत भूमि है, यानी प्रति किसान 5 एकड़ या उससे कम भूमि है। और केवल 2.65% किसानों के पास 10 एकड़ से अधिक भूमि है।
यहां 80% से अधिक कृषि भूमि सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर है और खेती में लगे अधिकांश परिवारों के पास कमाई का कोई अन्य ठोस साधन नहीं है। TISS सर्वेक्षण के अनुसार, लगभग 53% किसानों के पास कृषि के अलावा आय का कोई अन्य स्रोत नहीं है और 80% से अधिक परिवार अपनी आय का 20% या उससे कम अन्य स्रोतों से कमाते हैं। ऐसी स्थितियों में जलवायु और मौसम एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
TISS की रिपोर्ट कहती है:
जिले के किसानों की अर्थव्यवस्था के अन्य स्रोत नहीं हैं, वे अपनी आय के लिए मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर हैं। बारिश या मौसम की स्थिति में कोई भी उतार-चढ़ाव उनकी घरेलू अर्थव्यवस्था को तबाह कर देता है और उन्हें संकट की स्थिति में डाल देता है। ऐसे हालात कभी-कभी आत्महत्या को विवश करते हैं।
आंकड़ों से पता चलता है कि 2011 और 2017 के बीच धाराशिव जिले में कुल 567 किसानों ने आत्महत्या की और चिंताजनक रूप से यह संख्या 2011 में 25 आत्महत्याओं से छह गुना से अधिक बढ़कर 2015 में 164 हो गई।
धाराशिव में किसान आत्महत्याएं (2011-2017)
वर्ष | 2001 | 2012 | 2013 | 2014 | 2015 | 2016 | 2017 |
आत्महत्याओं की संख्या | 25 | 22 | 28 | 71 | 164 | 161 | 126 |
महिला किसान लिख रही हैं उम्मीद की इबारत
जब पति आत्महत्या कर लेते हैं तो विधवा पत्नियाँ असहाय और असुरक्षित रह जाती हैं। कोई वित्तीय या सामाजिक सुरक्षा न होने के कारण उनके पास भरण-पोषण का कोई रास्ता नहीं होता।
पाइकराव के मुताबिक, “अक्सर (मृत किसान का) परिवार इन महिलाओं को उनके पास जो भी संपत्ति होती है, उसमें कोई हिस्सा नहीं देता है। बाहरी लोगों, साहूकारों और यहां तक कि उनके करीबी रिश्तेदारों द्वारा भी उनका शोषण किया जाता है।”
बीड जिले के अहिरवाहे गांव में चौंतीस वर्षीय अनीता जलिंदर माने को परिवार से तब निकाल दिया गया जब उनके पति ने कुछ साल पहले आत्महत्या कर ली थी। आज वह कुछ स्वयंसेवी समूहों की मदद से संघर्ष कर रही है।
जैविक खेती और सामुदायिक सहयोग से ग्रामीण महिलाओं के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता मीनाक्षी टोकले कहती हैं, “परिवार के भीतर बेहतर तालमेल से मदद मिल सकती है। महिलाएं आम तौर पर जानती हैं कि किसी विशेष मौसम में क्या बोना है और अगली फसल के लिए किस फसल का बीज बचा कर रखना चाहिए। हम अधिक टिकाऊ खेती के लिए सक्रिय महिलाओं की भागीदारी को प्रोत्साहित कर रहे हैं।”
लेकिन कई जगहों पर इन संकटग्रस्त महिलाओं ने खुद को संभाला और उम्मीद जगाई है। उन्होंने रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बिना ही घर में उगाए गए चारे और जैविक खाद के साथ खेती के कम लागत वाले टिकाऊ तरीकों को अपनाया है। सामुदायिक सहयोग से उन्होंने अपनी फसलों की योजना बनाई है और उनमें विविधता लाई हैं और उन्हें अच्छे दामों पर बेचती हैं। पाइकराव ने हमें हिंगोली जिले की कई ऐसी महिलाओं से मिलवाया, जो बदलाव की कहानी लिखने के लिए एक साथ आई हैं।
टेम्भुरनी गांव में चालीस वर्षीय कलावती सवंडकर 21 महिलाओं के एक समूह का नेतृत्व कर रही हैं। ये महिलायें सब्जियों और दालों के अलावा सोयाबीन, कपास, हल्दी, धान उगाती हैं।
कलावती ने कहा, “हम कर्ज में डूब गए थे लेकिन अब इस संकट से लड़ने का रास्ता निकाल लिया है। हम सामुदायिक नेटवर्क की मदद से कम लागत पर फसल उगाते हैं और अपनी फसलों के अच्छे दाम पाते हैं। इससे यहां मिट्टी और पानी की सेहत भी ठीक रहती है।”
कुलकर्णी बताती हैं कि सामूहिक प्रयास से “महिलाएं अब अपने खेतों को भोजन, नकदी फसलों, कीट प्रबंधन फसलों के विविध मिश्रण के साथ डिजाइन कर रही हैं – मूल रूप से एक ऐसा खेत जो एक दूसरे की ताकत से चलता है।”
उन्होंने कहा, “महिलायें रसायनों से भरपूर और सिर्फ वाणिज्यिक फसलों वाली कॉर्पोरेट नियंत्रित खेती को ना कहते हुए पारिस्थितिक रूप से सुदृढ़ आत्मनिर्भर कृषि की ओर बढ़ रही हैं। यह बदलाव महिला किसानों के साथ कई दौर के संवाद के कारण संभव हुआ, जिन्होंने कृषि के वर्तमान मॉडल, जाति, पितृसत्ता और वर्ग जैसे भेदभाव की सामाजिक संरचनाओं को ललकारा है।”
उत्तराखंड: बागेश्वर के गांवों में दिखीं दरारें, स्थानीय लोगों ने खड़िया खनन को बताया वजह
उत्तराखंड के कुमाऊं में स्थित बागेश्वर ज़िले में घरों की दीवारों में वैसी ही दरारें देखी गईं हैं जैसी 2022-23 में जोशीमठ में दिखी थीं। बागेश्वर के दो दर्जन से अधिक गांवों में लोगों ने ऐसी शिकायत की है। लोगों ने इस भूधंसाव के लिए भारी मशीनों द्वारा पिछले कई दशकों से हो रहे अंधाधुंध खड़िया खनन को ज़िम्मेदार बताया है । लोगों ने प्रशासन द्वारा होने वाले जनता दरबार में यह चिन्ता जताई। हालांकि कुछ भूविज्ञानियों और राजस्व अधिकारियों के साथ 3 सितंबर को कुछ प्रभावित गांवों का दौरा करने के बाद ज़िले की माइनिंग अधिकारी जिज्ञासा बिष्ट ने कहा कि जो साल पहले खनन रोके जाने के बाद भी कांडा गांव के आठ घरों की दीवारों और छतों पर दरारें दिख रही हैं।
बिष्ट ने कहा कि ले में जिन इलाकों में अभी भी खनन चल रहा है, उनसे सटे 25 से अधिक गांवों के घरों में भी दरारें आ गई हैं। उनके मुताबिक ये ज्यादातर ऐसे गांव हैं जिनके निवासियों ने खनन कार्य करने के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र दिया था। स्थानीय लोगों का कहना है कि जिले के कुल 402 गांवों में से 100 से अधिक गांवों के धीरे-धीरे ढहने का खतरा है। इस ज़िले में खनन से गंभीर हो रही स्थिति पर पहले भी मीडिया में विस्तृत रिपोर्टिंग हुई पर सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। उत्तराखंड के चमोली ज़िले में स्थिति जोशीमठ, जिसे हाल ही में ज्योतिर्मठ नाम दिया गया है, में 2023 की शुरुआत में लगभग 1,000 लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा, जब भूमि धंसने के कारण दीवारों और फर्श पर बड़ी दरारें दिखाई दीं।
भारत के 85 प्रतिशत से अधिक ज़िलों पर एक्स्ट्रीम क्लाइमेट घटनाओं का ख़तरा: अध्ययन
एक नए अध्ययन के अनुसार, भारत में 85 प्रतिशत से अधिक जिलों पर बाढ़, सूखे और चक्रवात जैसी चरम जलवायु घटनाओं का ख़तरा है। आईपीई ग्लोबल और ईएसआरआई इंडिया के अध्ययन में यह भी पाया गया कि 45 प्रतिशत जिले “स्वैपिंग” प्रवृत्ति का अनुभव कर रहे थे, जहां पारंपरिक रूप से जिन इलाकों में बाढ़ का खतरा रहता था वहां सूखा पड़ रहा है और इसका उल्टा भी हो रहा है। इस अध्ययन में 1973 से लेकर 2023 के बीच पिछले 50 साल में एक्सट्रीम क्लाइमेट घटनाओं का देखा गया।
पिछले एक दशक में ही चरम जलवायु घटनाओं में पांच गुने की वृद्धि देखी गई जिसमें बाढ़ की घटनाओं में चार गुना बढ़त थी। पूर्वी भारत के ज़िलों में बाढ़ का खतरा सबसे अधिक है जिसके बाद उत्तर-पूर्व और दक्षिण के हिस्से आते हैं। अध्ययन से यह भी पता चलता है कि सूखे की घटनाओं में दो गुना वृद्धि हुई है, विशेष रूप से कृषि और मौसम संबंधी सूखे में, और चक्रवात की घटनाओं में चार गुना वृद्धि हुई है। इसमें पाया गया कि बिहार, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, गुजरात, राजस्थान, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और असम के 60 प्रतिशत से अधिक जिले एक से अधिक चरम जलवायु घटनाओं का अनुभव कर रहे थे।
साल के अंत तक ला निना स्थितियां बन जायेंगी: डब्लूएमओ
विश्व मौसम विज्ञान संगठन के ताज़ा अपडेट के मुताबिक इस बात की 60 प्रतिशत संभावना है कि इस साल के अंत तक ला निना स्थितियां पैदा हो जायेंगी जिस कारण उत्तर भारत के कई हिस्सों में सामान्य से अधिक ठंड के हालात होंगे। लंबी अवधि के पूर्वानुमान के मुताबिक इस बात की 55% संभावना है कि सितंबर-अक्टूबर तक मौजूदा न्यूट्रल हालात ( न तो अल निनो और न ही ला निना ) से ला निना की स्थितियां बन जायेंगी।
डब्ल्यूएमओ के मुताबिक, “अक्टूबर 2024 से फरवरी 2025 तक यह संभावना 60 प्रतिशत तक बढ़ जाती है और इस दौरान फिर से अल नीनो के बनने की संभावना नगण्य है।”
ला नीना का अभिप्राय मध्य और पूर्वी भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर में समुद्र की सतह के तापमान के बड़े पैमाने पर ठंडा होने से है, जिससे उष्णकटिबंधीय वायुमंडलीय परिसंचरण, जैसे हवाओं, दबाव और वर्षा में परिवर्तन जैसी मौसमी बदलाव देखे जाते हैं। यह आम तौर पर भारत में मानसून के मौसम के दौरान तीव्र और लंबे समय तक बारिश और विशेष रूप से उत्तरी क्षेत्रों में सामान्य से अधिक ठंडी सर्दियों से जुड़ा होता है। हालांकि भारतीय मौसम विभाग ने अभी इस बात की पुष्टि नहीं की है कि ला निना स्थितियों के कारण सर्दियों में सामान्य से अधिक ठंड होगी।
अंधाधुंध शहरी निर्माण से गुजरात में बाढ़: आईआईटी गांधीनगर का अध्ययन
एक ताज़ा विश्लेषण से पता चलता है कि गुजरात में आई बाढ़ के पीछे चरम मौसमी घटना थी और अत्यधिक शहरी विकास के कारण हालात और अधिक खराब हो गए। आईआईटी गुवाहाटी के शोधकर्ताओं ने ताज़ा अध्ययन में कहा है कि शहर में अंधाधुंध निर्माण, ढलान में बदलाव और जल निकासी में नियमों का पर्याप्त पालन न होने से हालात बिगड़े। पिछले महीने 20 अगस्त से 29 अगस्त के बीच में भारी बारिश के कारण गुजरात के कुछ हिस्सों में बाढ़ आ गई। इस दौरान राज्य के 33 में से 15 ज़िलों में 3 दिनों के भीतर इतनी बारिश हुई जो 10 साल का रिकॉर्ड टूट गया। जामनगर, द्वारका, मोरबी और राजकोट में 50 साल का रिकॉर्ड टूट गया।
रहस्यमयी सुनामी: ग्रीनलैंड ग्लेशियर का बड़ा हिस्सा ढहा, 9 दिनों तक ‘धरती हिली’
ग्रीनलैंड में खड़ी चट्टानों के बीच समुद्री मार्ग में भूस्खलन के कारण भूकंपीय घटना हुई जिसने नौ दिनों तक “पृथ्वी को हिलाकर रख दिया”। बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, उपग्रह छवि में एक समुद्री मार्ग में धूल का बादल दिखाई दे रहा है। घटना से पहले और बाद की तस्वीरों की तुलना करने से पता चला कि एक पहाड़ ढह गया था और ग्लेशियर का एक हिस्सा पानी में बह गया था। रिपोर्ट के मुताबिक शोधकर्ता यह पता लगाने में कामयाब रहे कि 25 मिलियन क्यूबिक मीटर चट्टान – यानी 25 एम्पायर स्टेट बिल्डिंग के बराबर मात्रा मलबा – पानी में गिरा, जिससे 200 मीटर ऊंची “मेगा-सुनामी” पैदा हुई।
बीबीसी की रिपोर्ट के अनुसार, भूस्खलन के कारण 200 मीटर की लहर उठी जो एक संकरे समुद्री मार्ग में “फंस” गई, और उसके आगे-पीछे होते रहने से भारी कंपन पैदा हुए जिसे दुनिया भर के सेंसरों ने पकड़ लिया। समाचार वेबसाइट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन के कारण ग्रीनलैंड के पहाड़ों को सहारा देने वाले ग्लेशियर पिघलने के कारण इस तरह के भूस्खलन अक्सर हो रहे हैं। डॉ. क्रिस्टियन स्वेनविग ने बीबीसी न्यूज़ को बताया: “हम विशेष रूप से ग्रीनलैंड में विशाल, सुनामी पैदा करने वाले भूस्खलन में वृद्धि देख रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन के कारण ध्रुवों की ओर जा रही हैं मछलियां, मत्स्य कारोबार पर असर
एक नए शोध में पाया गया कि जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र में मछली भंडार का पुनर्वितरण हो रहा है जो ध्रुवों की ओर अधिक खिसक रहा है। इससे वैश्विक मत्स्य उद्योग पर असर पड़ेगा। अध्ययन में कहा गया है कि दुनिया भर में मछली पकड़ने के बेड़ों को वर्ष 2100 तक ध्रुवों पर जाना होगा क्योंकि जिन प्रजातियों का वो पीछा करते हैं करते हैं वो समुद्र के गर्म होने के कारण उच्च अक्षांशों की ओर जा रहे हैं। शोधकर्ताओं ने यह देखने के लिए 82 देशों में औद्योगिक मत्स्य पालन और 13 सामान्य प्रकार के मछली पकड़ने के गियर का मॉडल तैयार किया कि व्यक्तिगत मत्स्य पालन पर जलवायु परिवर्तन का क्या असर पड़ेगा। उन्होंने पाया कि ध्रुवीय मछुआरे आर्कटिक में आगे बढ़ेंगे, जबकि उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में मछली पकड़ने वालों का “उष्णकटिबंधीय और ध्रुवीय दोनों तरफ” विस्तार होगा।
बाकू वार्ता में नए क्लाइमेट फाइनेंस लक्ष्य पर नहीं बन पाई सहमति
बाकू में गुरुवार को समाप्त हुई जलवायु वार्ता में नए क्लाइमेट फाइनेंस लक्ष्य पर कोई सहमति नहीं बन पाई। नवंबर में होने वाली कॉप29 से पहले यह वार्ताओं का आखिरी दौर था। इससे पहले बॉन में हुई बैठक भी बेनतीजा रही थी। क्लाइमेट फाइनेंस कौन देगा इसे लेकर विवाद बना हुआ है। और वार्ताओं के ताज़ा दौर के बाद कॉप29 के दौरान सालाना 100 बिलियन डॉलर के लक्ष्य को संशोधित करना अब मुश्किल दिख रहा है।
विकसित देश चाहते हैं कि एशिया की अधिक उत्सर्जन करने वाली उभरती अर्थव्यवस्थाओं जैसे चीन और अमीर खाड़ी देश भी क्लाइमेट फाइनेंस में योगदान करें। जबकि विकासशील देश यथास्थिति बनाए रखना चाहते हैं, यानि 1992 में यूएन क्लाइमेट संधि अपनाने के समय जिन देशों को औद्योगिक घोषित किया गया था वही क्लाइमेट फाइनेंस दें।
इससे पहले स्विट्ज़रलैंड और कनाडा डोनर्स की संख्या में विस्तार करने के जो प्रस्ताव लेकर आए थे उसे विकासशील देशों ने खारिज कर दिया। विकासशील देशों के जी77 समूह की ओर से बोलते हुए भारत ने साफ कर दिया कि क्लाइमेट फाइनेंस देना विकसित देशों का लक्ष्य होना चाहिए और इस व्यवस्था में बदलाव की जरूरत नहीं है।
भारत ने कई अमीर देशों की तुलना में अधिक क्लाइमेट फाइनेंस दिया: रिपोर्ट
एक नए विश्लेषण के अनुसार भारत ने 2022 में बहुपक्षीय विकास बैंकों के माध्यम से 1.28 बिलियन डॉलर का क्लाइमेट फाइनेंस प्रदान किया। यह कई विकसित देशों के योगदान से भी अधिक था।
यह विश्लेषण यूके स्थित थिंक टैंक ओडीआई और ज़ूरिक क्लाइमेट रेजिलिएंस एलायंस ने किया है।
उक्त रिपोर्ट से पता चलता है कि केवल 12 विकसित देशों ने 2022 में अंतर्राष्ट्रीय क्लाइमेट फाइनेंस में उनका उचित हिस्सा प्रदान किया। ये देश हैं — नॉर्वे, फ्रांस, लक्ज़मबर्ग, जर्मनी, स्वीडन, डेनमार्क, स्विट्जरलैंड, जापान, नीदरलैंड, ऑस्ट्रिया, बेल्जियम और फिनलैंड।
शोधकर्ताओं ने पाया कि अमेरिका अपना उचित योगदान देने में विफल रहा और क्लाइमेट फाइनेंस में बड़े अंतर का कारण मुख्य रूप से यही है। ऑस्ट्रेलिया, स्पेन, कनाडा और यूनाइटेड किंगडम ने भी इस संबंध में अपेक्षाकृत खराब प्रदर्शन किया।
भारत ने 2022 में अन्य विकासशील देशों को 1.287 बिलियन डॉलर दिए, जो कि ग्रीस (0.23 बिलियन डॉलर), पुर्तगाल (0.23 बिलियन डॉलर), आयरलैंड (0.3 बिलियन डॉलर) और न्यूज़ीलैंड (0.27 बिलियन डॉलर) जैसे कुछ विकसित देशों के योगदान से कहीं अधिक है। जबकि चीन ने 2.52 बिलियन डॉलर प्रदान किए, ब्राजील ने 1.135 बिलियन डॉलर, दक्षिण कोरिया ने 1.13 बिलियन डॉलर और अर्जेंटीना ने 1.01 बिलियन डॉलर दिए।
केंद्र ने की राज्यों को खदानों पर टैक्स लगाने का अधिकार देने के फैसले की समीक्षा की मांग
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर 25 जुलाई के फैसले की समीक्षा का अनुरोध किया है जिसमें कोर्ट ने राज्यों को अपनी भूमि से खनिजों के निष्कर्षण पर रॉयल्टी वसूलने और खनन की गई भूमि पर कर लगाने की अनुमति दी थी। केंद्र ने उस फैसले की समीक्षा की भी मांग की है जिसमें राज्यों को 1 अप्रैल, 2005 के बाद से बकाया कर एकत्र करने की अनुमति दी गई थी।
जुलाई 25 को सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच ने बहुमत से फैसला देकर 1989 में इंडिया सीमेंट लिमिटेड बनाम तमिलनाडु मामले में सात जजों के फैसले को खारिज कर दिया था। इस फैसले में कहा गया था कि रॉयल्टी एक टैक्स है जिसे राज्य नहीं लगा सकते क्योंकि यह संविधान की संघ सूची के अंतर्गत आता है।
कोर्ट ने 25 जुलाई के फैसले में यह भी कहा था कि संविधान की राज्य सूची में ‘भूमि’ की परिभाषा के अंतर्गत खनिज-युक्त भूमि सहित हर प्रकार की भूमि शामिल है। केंद्र ने इस व्याख्या का विरोध किया है और कहा है कि यदि ऐसी व्याख्या अपनाई जाती है, तो ‘खनिजों पर संपूर्ण संवैधानिक संघीय व्यवस्था ध्वस्त हो जाएगी’।
पर्यावरणीय क्षति के अपराधीकरण के समर्थन में 80% भारतीय: सर्वे
पांच में से लगभग चार भारतीय चाहते हैं कि सरकारी अधिकारियों या बड़े व्यवसायों द्वारा प्रकृति और जलवायु को गंभीर नुकसान पहुंचाने वाले कार्यों को आपराधिक बनाया जाए। इप्सोस यूके द्वारा आयोजित और अर्थ4ऑल और ग्लोबल कॉमन्स अलायंस (जीसीए) द्वारा कमीशन किए गए ग्लोबल कॉमन्स सर्वे 2024 में यह बात सामने आई है। इससे यह भी पता चला कि पांच में से लगभग तीन (61 प्रतिशत) भारतीयों का मानना है कि सरकार जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय क्षति से निपटने के लिए पर्याप्त प्रयास कर रही है।
सर्वे में हिस्सा लेने वाले 90 प्रतिशत आज प्रकृति की स्थिति को लेकर चिंतित हैं। 73 प्रतिशत को लगता है कि पृथ्वी महत्वपूर्ण पर्यावरणीय “टिपिंग पॉइंट” के करीब पहुंच रही है, जहां वर्षावन या ग्लेशियर जैसी जलवायु या प्राकृतिक प्रणालियां अचानक बदल सकती हैं या भविष्य में उन्हें बनाए रखना कठिन हो सकता है।
जबकि 54 फीसदी का मानना है कि पर्यावरणीय खतरों के बारे में कई दावे बढ़ा-चढ़ाकर किए गए हैं। लगभग पांच में से चार भारतीयों का मानना है कि मानव स्वास्थ्य और कल्याण प्रकृति के स्वास्थ्य और कल्याण से निकटता से जुड़ा हुआ है।
एक नए अध्ययन के अनुसार, भारत दुनिया का सबसे बड़ा प्लास्टिक प्रदूषक है। नेचर पत्रिका में प्रकाशित इस शोध के अनुसार भारत में सालाना लगभग 5.8 मिलियन टन (एमटी) प्लास्टिक जलाया जाता है, और अतिरिक्त 3.5 मिलियन टन प्लास्टिक मलबे के रूप में पर्यावरण (भूमि, वायु, जल) में छोड़ दिया जाता है। इस हिसाब से भारत का कुल प्लास्टिक उत्सर्जन 9.3 मिलियन टन है, जो वैश्विक प्लास्टिक उत्सर्जन का लगभग पांचवां हिस्सा है।
इस सूची में क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर मौजूद नाइजीरिया (3.5 मिलियन टन) और इंडोनेशिया (3.4 मिलियन टन) की तुलना में भी यह आंकड़ा काफी अधिक है। इससे पूर्व के अध्ययन में पहले स्थान पर चीन था जबकि इस पेपर में वह 2.8 एमटी के उत्सर्जन के साथ चौथे स्थान पर है।
पेपर के अनुसार भारत में प्लास्टिक प्रदूषण के सरकारी आंकड़े पूरी तस्वीर पेश नहीं करते क्योंकि आधिकारिक अपशिष्ट उत्पादन दर (लगभग 0.12 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति दिन) का आकलन शायद कम है। वहीं अपशिष्ट संग्रहण का अनुमान संभावित रूप से अधिक है। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि आधिकारिक आंकड़ों में ग्रामीण क्षेत्र शामिल नहीं हैं। साथ ही खुले में कचरा जलाने या अनौपचारिक क्षेत्रों द्वारा रीसाइक्लिंग भी इनमें शामिल नहीं है।
नमक, चीनी के भारतीय ब्रांडों में मिला माइक्रोप्लास्टिक, एनजीटी ने मांगा जवाब
नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल ने देश के सभी नमक और चीनी ब्रांडों में माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी के मामले में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर), भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) और अन्य संस्थाओं से जवाब मांगा है।
ट्राइब्यूनल ने समाचार एजेंसी पीटीआई में छपी एक रिपोर्ट का स्वत: संज्ञान लेकर यह सुनवाई की, जिसमें कहा गया था कि सभी भारतीय नमक और चीनी ब्रांड, चाहे बड़े हों या छोटे, पैक्ड हों या अनपैक्ड, उनमें माइक्रोप्लास्टिक होते हैं।
इस रिपोर्ट में टॉक्सिक्स लिंक नामक रिसर्च संस्था के शोध के हवाले से बताया गया है कि नमक और चीनी के सभी नमूनों में फाइबर, छर्रों, फिल्मों और टुकड़ों सहित विभिन्न रूपों में माइक्रोप्लास्टिक्स पाया गया।
ट्राइब्यूनल ने एफएसएसएआई के सीईओ, आईसीएमआर और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टॉक्सिकोलॉजी रिसर्च के सचिव और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य सचिव को नोटिस जारी कर कहा है कि अगली सुनवाई (दिसंबर 3, 2024) से कम से कम एक हफ्ते पहले वह अपने जवाब एनजीटी को सौंपें।
पांच साल बाद भी प्रदूषण कम करने में क्यों विफल है एनसीएपी
नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम, या राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम के पांच साल पूरे हो चुके हैं। 2019 में यह कार्यक्रम महत्वकांक्षी लक्ष्यों के साथ शुरू हुआ था, जिसका उद्देश्य था देश के सबसे प्रदूषित कुछ शहरों में प्रदूषण की सांद्रता को कम करना, वायु प्रदूषण की बेहतर निगरानी और पूर्वानुमान, और प्रदूषण के स्रोतों का अलग-अलग अध्ययन करना। लेकिन पांच साल बाद न केवल शहरों में प्रदूषण कम करने के लक्ष्य अधूरे हैं, बल्कि वायु प्रदूषण कम करने के अधिकांश उपायों में साल भर जहरीले उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार प्रमुख प्रदूषकों को नजरअंदाज किया गया है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की एक नई रिपोर्ट से पता चला है कि कार्यक्रम के तहत ज्यादातर फंडिंग का प्रयोग धूल प्रबंधन जैसे कार्यों पर किया गया है, जिसमें पक्की सड़कें बनाना, गड्ढों को ढकना, और मैकेनिकल स्वीपर और पानी छिड़कने वाली मशीन का उपयोग आदि शामिल है। जबकि उद्योगों से होनेवाले विषाक्त उत्सर्जन को नियंत्रित करने पर खर्च एक प्रतिशत से भी कम किया गया, और 10,566.47 करोड़ रुपए की फंडिंग में से लगभग 40% धनराशि का कोई उपयोग नहीं किया गया है।
वर्तमान में एनसीएपी के तहत आनेवाले 131 शहरों का चयन इसलिए किया गया था क्योंकि वे 2011-2015 के बीच लगातार पांच वर्षों तक राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानकों को पूरा नहीं करते थे। पांच साल बाद भी अधिकांश शहर 2017 के स्तर की तुलना में वायु प्रदूषण को 20-30% तक कम करने के एनसीएपी के लक्ष्य को पूरा करने में विफल रहे हैं। एक हालिया अध्ययन ने पाया है कि वास्तव में 2014 से 2021 के बीच वायु प्रदूषण को कम करने में अधिकांश योगदान तेज़ हवाओं और अन्य मौसम संबंधी कारकों ने किया है।
रात में होनेवाले प्रकाश प्रदूषण से बढ़ता है अल्जाइमर का खतरा: शोध
अमेरिका में शोधकर्ताओं ने रात में होनेवाले प्रकाश प्रदूषण और अल्जाइमर रोग के बीच एक संबंध पाया है। शिकागो के रश यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के शोधकर्ताओं का कहना है कि ‘रात में कृत्रिम रोशनी का संपर्क एक पर्यावरणीय कारक है जो अल्जाइमर को प्रभावित कर सकता है’। यह अध्ययन फ्रंटियर्स इन न्यूरोसाइंस में प्रकाशित हुआ है।
अबतक हुए रिसर्च में ऐसे कई कारण बताए गए हैं जो अल्जाइमर के जोखिम को बढ़ाते हैं, जैसे आनुवंशिकी, कुछ अन्य बीमारियां, जीवनशैली और पर्यावरण से होनेवाला तनाव आदि। अब इस नए अध्ययन ने प्रकाश प्रदूषण के रूप में एक नए पर्यावरणीय कारक का पता लगाया है जिस पर पहले विचार नहीं किया गया था।
सोलर उपायों को तरजीह देते हैं भारत के अधिकांश युवा: सर्वे
स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों के बारे में जागरूकता का पता लगाने के लिए किए गए एक हालिया सर्वे में पता चला है कि जेन ज़ी (18-22 वर्ष) के लगभग 50 प्रतिशत भारतीय सोलर उपायों को वरीयता देते हैं, जबकि मिलेनियल (यानि 23-38 वर्ष के) लोगों में यह संख्या 46 प्रतिशत है।
इन युवाओं का मानना है कि सौर ऊर्जा पर्यावरण के अनुकूल है और सस्टेनेबल है। सर्वे में भाग लेने वाले 85% लोगों का मानना है कि उनके शहर का मौसम रूफटॉप सोलर इंस्टालेशन के लिए उपयुक्त है, जबकि 82 प्रतिशत मानते हैं कि भारत का सनी क्लाइमेट सौर ऊर्जा के अनुकूल है।
यह रिपोर्ट पांच महानगरों — बेंगलुरु, दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता, मुंबई — और 8 गैर-महानगरों — अहमदाबाद, चंडीगढ़, गुरुग्राम, गुवाहाटी, जयपुर, कोच्चि, लखनऊ, पटना — में चार आयु समूहों के बीच 4,318 उत्तरदाताओं के सर्वेक्षण पर आधारित है।
हालांकि चारों आयु वर्गों में से सबसे अधिक (28 प्रतिशत) बेबी बूमर (55-76 वर्ष के लोग) मानते हैं कि सौर ऊर्जा उनकी पहुंच से बाहर है। जबकि मिलेनियल्स में ऐसा मानने वालों की संख्या सबसे काम — 21 प्रतिशत — है। जेन एक्स (39-54 वर्ष) और जेन ज़ी में ऐसा मानने वालों की संख्या क्रमशः 23 और 25 प्रतिशत है।
अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं की फंडिंग के लिए बैंकों, कंपनियों से ‘शपथ पत्र’ लेगी केंद्र सरकार
भारत में 2030 तक 500 गीगावॉट गैर-जीवाश्म ईंधन क्षमता स्थापित करने के लिए 30 लाख करोड़ रुपए की फंडिंग की जरूरत को पूरा करने के लिए, नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय वित्तीय संस्थानों, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बैंकों के साथ बातचीत कर रहा है, और उनसे आग्रह कर रहा है कि वह नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं के लिए लोन मुहैया कराएं।
नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कहा है कि इस हफ्ते गांधीनगर में होने वाली री-इन्वेस्ट समिट में सभी प्रमुख बैंक और वित्तीय संस्थान नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र को कर्ज या फंडिंग प्रदान करने की योजनाओं के बारे में “शपथ पत्र” देंगे।
जोशी ने कहा, “हम निजी कंपनियों से भी इसी तरह की प्रतिबद्धता की उम्मीद करते हैं। हमने उनसे शपथ पत्र मांगा है कि वे कितना और कहां निवेश कर सकते हैं।”
भारत में सोलर मॉड्यूल और सेल के आयात में भारी गिरावट
साल 2024 की दूसरी तिमाही (Q2) में भारत ने 774.9 मिलियन डॉलर (लगभग 6460 करोड़ रुपए) से अधिक मूल्य के सोलर सेल और मॉड्यूल का आयात किया, जो पिछले साल की इसी अवधि में हुए आयात के मुकाबले 16.4 प्रतिशत कम है। वाणिज्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार, दूसरी तिमाही में हुए आयात में सोलर मॉड्यूल का हिस्सा 55 प्रतिशत और सोलर सेल का 45 प्रतिशत था।
पिछली तिमाही (Q1) के मुकाबले, सोलर मॉड्यूल और सेल का आयात में 61.4 प्रतिशत की गिरावट आई है। पहली तिमाही में 2 बिलियन डॉलर (लगभग 16,690 करोड़ रुपए) का आयात हुआ था। सोलर मॉड्यूल आयात में 73.2 प्रतिशत की भारी गिरावट देखी गई, जबकि सोलर सेल के आयात में 17% की गिरावट आई।
आयात में यह कमी मुख्य रूप से 1 अप्रैल, 2024 को मॉडल और निर्माताओं की स्वीकृत सूची (एएलएमएम) आदेश को फिर से लागू करने के कारण हुई, जिसने डेवलपर्स को घरेलू स्तर पर एएलएमएम-अधिकृत मॉड्यूल प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया।
अडानी समूह ने जीती महाराष्ट्र को सौर ऊर्जा सप्लाई करने की बोली
अडानी समूह ने लंबी अवधि के लिए महाराष्ट्र को 6,600 मेगावाट नवीकरणीय और थर्मल बिजली की आपूर्ति करने की बोली जीत ली है। कंपनी ने 4.08 रुपए प्रति यूनिट की बोली लगाकर जेएसडब्ल्यू एनर्जी और टोरेंट पावर को पीछे छोड़ दिया।
अडानी पावर नई 1,600 मेगावाट अल्ट्रा-सुपरक्रिटिकल क्षमता से 1,496 मेगावाट (शुद्ध) थर्मल बिजली की आपूर्ति करेगी, और इसकी सहयोगी कंपनी अडानी ग्रीन एनर्जी लिमिटेड कच्छ के खावड़ा नवीकरणीय ऊर्जा पार्क से 5 गीगावॉट (5,000 मेगावाट) सौर ऊर्जा की आपूर्ति करेगी।
शर्तों के अनुसार, अडानी ग्रीन एनर्जी पूरी अवधि के दौरान 2.70 रुपए प्रति यूनिट की निश्चित लागत पर सौर ऊर्जा की आपूर्ति करेगी, जबकि थर्मल बिजली की लागत कोयले की कीमतों के आधार पर तय की जाएंगी।
सरकार ने ईवी को बढ़ावा देने के लिए शुरू कीं दो योजनाएं
केंद्र सरकार ने इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए दो प्रमुख योजनाओं को मंजूरी दी है। यह दो योजनाएं हैं: पीएम इलेक्ट्रिक ड्राइव रिवोल्यूशन इन इनोवेटिव व्हीकल एनहांसमेंट (पीएम ई-ड्राइव) योजना, और पीएम-ईबस सेवा-भुगतान सुरक्षा तंत्र (पीएसएम) योजना।
पीएम ई-ड्राइव योजना में दो साल के लिए 10,900 करोड़ रुपए का बजट रखा गया है, जबकि पीएसएम के लिए 3,435 करोड़ रुपए का बजट रखा गया है।
पीएम ई-ड्राइव योजना के तहत, इलेक्ट्रिक दोपहिया और तिपहिया वाहन, ई-एम्बुलेंस, ई-ट्रक और अन्य उभरते इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए 3,679 करोड़ रुपए की सब्सिडी/डिमांड इंसेंटिव प्रदान किया गया है। यह योजना 24.79 लाख दोपहिया, 3.16 लाख तिपहिया और 14,028 ई-बसों को समर्थन देगी।
भारी उद्योग मंत्रालय (एमएचआई) योजना के तहत डिमांड इंसेंटिव का लाभ उठाने के लिए ईवी खरीदारों के लिए ई-वाउचर लेकर आएगा। योजना पोर्टल ईवी की खरीद के समय खरीदार के लिए आधार-प्रमाणित ई-वाउचर जारी करेगा।
इसके अलावा, पीएम ई-ड्राइव योजना में ई-एम्बुलेंस के लिए भी 500 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं।
इलेक्ट्रिक कारों पर सब्सिडी न मिलने से और प्रभावित हो सकती है बिक्री
केंद्र की नई पीएम ई-ड्राइव योजना के तहत इलेक्ट्रिक दोपहिया और तिपहिया वाहनों, बसों, ट्रकों और यहां तक कि ई-एम्बुलेंस के लिए भी वित्तीय प्रोत्साहन दिया गया है। लेकिन पिछली फेम-2 योजना के विपरीत, नई सब्सिडी योजना से इलेक्ट्रिक कारों को बाहर रखा गया है।
फेम-2 योजना के पूरा होने के बाद इलेक्ट्रिक कारों की बिक्री में उल्लेखनीय गिरावट देखी गई है। यही कारण है कि इस साल अप्रैल में शुरू की गई इलेक्ट्रॉनिक मोबिलिटी प्रमोशन स्कीम (ईएमपीएस) में इलेक्ट्रिक कारों को शामिल न किए जाने के बावजूद, इंडस्ट्री को उम्मीद थी कि अंतिम योजना में चार पहिया वाहनों की खरीद पर भी कुछ सब्सिडी दी जाएगी।
टाटा मोटर्स ने 3 लाख रुपए तक घटाए ईवी के दाम
टाटा मोटर्स ने अपने इलेक्ट्रिक वाहनों की कीमतों में 3 लाख रुपए तक की कटौती की है। कंपनी ने कहा कि उसने नेक्सॉन ईवी की कीमत 3 लाख रुपए, पंच ईवी की कीमत 1.2 लाख रुपए और टियागो ईवी की कीमत 40,000 रुपए तक कम कर दी है।
कंपनी का कहना है उसका उद्देश्य ईवी को “मुख्यधारा में लाकर आम खरीदारों की ईवी तक पहुंच बढ़ाना है”।
टाटा मोटर्स ने पहले ही अपने आईसीई मॉडल जैसे टियागो, नेक्सॉन, हैरियर और सफारी की कीमतों में 65,000 से 1.8 लाख रुपए तक की कटौती की घोषणा की है।
विरोध के बाद यूएन सम्मेलन के मसौदे में किया गया जीवाश्म ईंधन ट्रांज़िशन का ज़िक्र
इस महीने न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान होने वाली ‘समिट ऑफ़ द फ्यूचर’ के मसौदे में जीवाश्म ईंधन से ‘ट्रांज़िशन अवे’, यानि दूर जाने की प्रतिबद्धता को फिर से शामिल कर लिया गया है। इसके पहले जारी किए गए मसौदे में जीवाश्म ईंधन का कोई ज़िक्र नहीं था जिसके बाद करीब 80 नोबेल पुरस्कार विजेताओं और कई देशों के नेताओं ने इसकी आलोचना की थी।
ताजा ड्राफ्ट में कहा गया है कि “ऊर्जा प्रणालियों में उचित, व्यवस्थित और न्यायसंगत तरीके से बदलाव करके जीवाश्म ईंधन से दूर जाने का निर्णय लिया गया है, ताकि विज्ञान के अनुसार चलकर 2050 तक नेट जीरो हासिल किया जा सके”। मसौदे पर सम्मलेन में चर्चा की जाएगी।
ताजा मसौदे की भाषा पिछले साल दुबई में कॉप28 में हुए ‘ट्रांज़िशन अवे’ के समझौते की ही तरह है। लेकिन कॉप28 के प्रस्ताव में “इस महत्वपूर्ण दशक में कार्रवाई में तेजी लाने” का आह्वान भी किया गया है जो उक्त मसौदे से गायब है।
जीवाश्म ईंधन से ‘दूर जाने’ की प्रतिज्ञा जी20 देशों की विज्ञप्ति के मसौदे से नदारद
क्लाइमेट पर जी20 विज्ञप्ति के नवीनतम ड्राफ्ट में सदस्य देशों ने अपने संकल्पों से ‘जीवाश्म ईंधन से दूर जाने’ की स्पष्ट प्रतिज्ञा को शामिल नहीं किया है। गार्डियन की रिपोर्ट के अनुसार, सदस्यों ने जी20 जलवायु विज्ञप्ति के प्रारंभिक मसौदे में ‘ट्रांज़िशन अवे’ की प्रतिबद्धता को दोहराया था, जिस पर वर्तमान में चर्चा हो रही है।
पिछले साल दुबई में कॉप28 जलवायु शिखर सम्मेलन के दौरान जारी किए गए प्रस्ताव में ‘ट्रांज़िशन अवे’ की प्रतिज्ञा सबसे महत्वपूर्ण थी, क्योंकि पहली बार ‘जीवाश्म ईंधन’ का लिखित रूप से प्रयोग किया गया था। हालांकि, सदस्य देशों ने संकल्पों के सबसे हालिया मसौदे से इस विशिष्ट प्रतिज्ञा को बाहर रखा है।
इसके बजाय, ‘ट्रांज़िशन अवे’ की प्रतिज्ञा का ज़िक्र अप्रत्यक्ष रूप से कॉप28 के निष्कर्ष में ‘निर्धारित लक्ष्यों’ का हवाला देकर गया है। पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि जी20 विज्ञप्ति से इस प्रतिज्ञा को हटाना एक बड़ा कदम होगा।
भारत का कोयला उत्पादन 6.48% बढ़ा
वित्तीय वर्ष 2024-25 के पहले पांच महीनों में भारत के कोयला उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। कोयला मंत्रालय के अनुसार, अगस्त 2024 तक उत्पादन 6.48% बढ़कर 384.08 मिलियन टन (एमटी) तक पहुंच गया। पिछले वित्तीय वर्ष में इसी अवधि में उत्पादित 360.71 मीट्रिक टन की तुलना में यह एक बड़ी वृद्धि है।
इसमें देश की सबसे बड़े कोयला उत्पादक कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल) ने 290.39 मीट्रिक टन का योगदान दिया, जो अप्रैल-अगस्त 2023 के बीच उत्पादित 281.46 मीट्रिक टन से 3.17% अधिक है। इसी अवधि में कैप्टिव और अन्य कोयले के उत्पादन में 30.56% की भारी वृद्धि हुई, जो पिछले साल 52.84 मीट्रिक टन से बढ़कर 68.99 मीट्रिक टन हो गया।