बाढ़ और सूखा: जहां हिमाचल में बाढ़ ने तबाही की हुई है वहीं इस बार यह इतिहास का सबसे सूखा अगस्त रहा।

एल-निनो प्रभाव: इस साल रहा इतिहास का सबसे सूखा अगस्त

हिमाचल और उत्तराखंड में भले ही भारी बारिश और बाढ़ ने तबाही की हो लेकिन देश के अधिकतर राज्यों में अगस्त का महीना सूखा ही रहा। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस साल का अगस्त 1901 के बाद से (जब से मौसम विभाग ने बारिश के आंकड़े रिकॉर्ड करने शुरू किए) अब तक का सबसे शुष्क अगस्त रहेगा। इतिहास में अब तक अगस्त में सबसे कम बारिश 190 मिलीमीटर हुई है लेकिन इस बार मंगलवार सुबह तक यह आंकड़ा 160 मिलीमीटर ही रहा।  सामान्य वर्षों में जुलाई के बाद मॉनसून सीज़न का दूसरा सबसे अधिक बरसात वाला महीना अगस्त ही होता है जिसमें औसतन 255 मिलीमीटर बारिश होती है जो सालाना बरसात का लगभग 22 प्रतिशत बारिश है।

इस साल अगस्त में बरसात औसत से करीब 33 प्रतिशत कम रही है। वैज्ञानिक इसके पीछे एल निनो प्रभाव को वजह  बता रहे हैं हालांकि एल निनो के बावजूद इस बार जुलाई में अनुमान से 13 प्रतिशत अधिक बारिश हुई थी लेकिन अगस्त में इसका स्पष्ट असर दिखा है। जिन राज्यों में अगस्त में सामान्य से बहुत कम बारिश हुई उनमें गुजरात, केरल, राजस्थान, कर्नाटक और तेलंगाना प्रमुख हैं। पश्चिम में महाराष्ट्र और गोवा और उत्तर भारत में पंजाब और हरियाणा में बारिश कम हुई है। इसी दौरान पश्चिमी गड़बड़ी के सक्रिय होने से हिमाचल में बाढ़ आई। हालांकि वहां भी कुल बारिश औसत ही रही लेकिन कुछ दिनों में अत्यधिक बरसात होने से काफी तबाही हो गई।

हिमाचल: मुख्यमंत्री ने अधिकारियों से ऑटोमेटिक वेदर स्टेशनों की संख्या बढ़ाने को कहा 

हिमाचल के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह ने अधिकारियों से कहा है कि वह प्रदेश में अधिक ऑटोमेटिक वेदर स्टेशन लगाने की योजना पर काम करें ताकि मौसम के पूर्वानुमान का रियल टाइम डाटा मिल सके। इस साल भारी बारिश, बाढ़ और भूस्खलन से राज्य में करीब 400 लोगों की जान जा चुकी है और 10,000 करोड़ से अधिक का नुकसान हो चुका है। 

अभी राज्य में शिमला, धर्मशाला और कुफ्री जैसी जगहों को मिलाकर कुल 23 ऐसे स्टेशन हैं। हिमाचल आपदा के बाद पूर्व चेतावनी के दुरुस्त करने के लिए अत्याधुनिक ऑब्जर्वेटरी लगाने पर विचार कर रहा है। 

भारी बारिश और मृदा संतृप्ति के कारण बढ़ी आपदा: वैज्ञानिक

वैज्ञानिकों का कहना है कि पहाड़ों पर अत्यधिक बोझ, अंधाधुंध निर्माण और मृदा संतृप्ति (सॉयल सैचुरेशन) हिमाचल में आई आपदा के पीछे बड़े कारण हो सकते हैं। हिमाचल में जून 24 के बाद से 752 मिलीमीटर से अधिक बारिश हो चुकी है जबकि पूरे मॉनसून में यहां 730 मिलीमीटर बारिश होती है। हिमाचल प्रदेश विज्ञान,  प्रौद्योगिकी और पर्यावरण परिषद के प्रिंसिपल साइंटिफिक ऑफिसर एस एस रंधावा के मुताबिक इस आपदा के पीछे कई कारण हो सकते हैं लेकिन इतना साफ है कि इस भौगोलिक क्षेत्र में सीधे वर्टिकल निर्माण नहीं किए जा सकते। 

उन्होंने यह भी कहा कि हर दो किलोमीटर में निर्माण के बाद एक किलोमीटर की हरियाली वाले मानक लागू होने चाहिए।  शिमला ज़िले में करीब 100 से अधिक भवन क्षतिग्रस्त हुए हैं और आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 46 लोगों की मौत हो चुकी है। सरकारी और निजी संपत्ति का 1,200 करोड़ से अधिक का नुकसान इस जिले में ही हुआ है।  

छोटी एंटीबायोटिक निर्माता कंपनियों के सामने बड़ी चुनौती: सीएसई  

प्रतिजैविकी दवाओं (एंटीबायोटिक्स) का बेअसर होना अब मानव स्वास्थ्य के लिये बड़ी चुनौती बन रहा है। इसकी एक बड़ी वजह है मानव द्वारा उपयोग के अलावा फसलों और पशुआहार के लिए एंटिबायोटिक्स का अंधाधुंध इस्तेमाल। इस कारण यह दवाएं अब प्रभावी नहीं हो रही। दूसरी ओर नए एंटीबायोटिक्स की खोज की दिशा में जितनी रिसर्च की ज़रूरत है वह नहीं हो पा रही है। प्रभावी एंटीबायोटिक दवाओं की कमी के कारण 2019 में 50 लाख लोगों की जान गई।  

दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरेंमेंट की निदेशक सुनीता नारायण के मुताबिक बड़ी फार्मा कंपनियां एंटीबायोटिक दवाओं में निवेश नहीं कर रहीं और छोटी और मध्यम दर्जे की कंपनियों ने यह ज़िम्मेदारी ली है लेकिन उन्हें सहयोग की ज़रूरत है। नारायण के मुताबिक रिसर्च के लिए धन के अलाना इन दवाओं के ज़रूरतमंदों तक पहुंचने की भी आवश्यकता है। मेडिकल जर्नल लैंसेट के मुताबिक एंटीबायोटिक प्रतिरोध के कारण जितने लोग मर रहे हैं दुनिया में उतने लोगों की मौत मलेरिया या एड्स से नहीं हो रही। 

पिछले 30 साल में  60% प्रजातियां में पक्षियों की संख्या घटी: रिपोर्ट

भारत में पिछले 30 वर्षों में जिन 338 प्रजातियों के पक्षियों की संख्या में बदलावों का अध्ययन किया गया, उनमें 60 प्रतिशत प्रजातियों की संख्या में गिरावट देखी गई। देशभर में 30 हजार बर्ड वॉचर्स से मिले आंकड़ों पर आधारित एक नई रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है। इसके अलावा, ‘स्टेट ऑफ इंडियाज बर्ड’ नामक इस रिपोर्ट के अनुसार, पिछले सात वर्षों में 359 प्रजातियों में हुए परिवर्तनों का मूल्यांकन किया गया। इसमें पाया गया कि 40 प्रतिशत (142) प्रजातियों में पक्षियों की संख्या कम हुई है।

मूल्यांकन की गई कुल 942 प्रजातियों में से 338 प्रजातियों को दीर्घकालिक रुझान के तहत रखा गया। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस), वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) और जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जेडएसआई) समेत 13 सरकारी व गैर-सरकारी संस्थानों के एक समूह द्वारा प्रकाशित की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि इनमें से 204 प्रजातियों की संख्या में गिरावट आई, 98 स्थिर रहीं और 36 में वृद्धि देखी गई।

पक्षियों का जैव विविधता में बड़ा महत्व है। वह कीड़ों की संख्या को नियंत्रित रखते हैं। परागण की क्रिया में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। कई प्रजातियों के बीज उनके पाचन तंत्र से निकल कर ही भूमि पर पुन: अंकुरित होते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि नॉर्दर्न शॉवेलर, नॉर्दर्न पिंटेल, कॉमन टील, टफ्टेड डक, ग्रेटर फ्लेमिंगो, सारस क्रेन, इंडियन कौरसर और अंडमान सर्पेंट ईगल समेत 178 प्रजातियों के वजूद को बड़ा खतरा है और इनकी पहचान उच्च वरीयता संरक्षण के लिये की गई है। 

इनमें इंडियन रोलर, कॉमन टील, नॉर्दर्न शॉवेलर और कॉमन सैंडपाइपर समेत 14 प्रजातियों की संख्या में 30 प्रतिशत या उससे अधिक की गिरावट आई है और उनका आईयूसीएन रेड लिस्ट के लिये मूल्यांकन की अनुशंसा की गई है।

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