साल 1988 की राष्ट्रीय वन नीति में भारतीय हिमालय के दो तिहाई हिस्से को पेड़ों और जंगलों से ढक देने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया गया था। लेकिन एक नए शोध में पता चला है कि हिमालयी राज्य हिमाचल प्रदेश में इस लक्ष्य का आधा से भी कम ही प्राप्त किया जा सकता है। शोध के अनुसार अन्य पर्वतीय राज्यों में भी स्थिति ऐसी ही है।
अध्ययन में वनों के संरक्षण के साथ सतत विकास जैसी सामाजिक आवश्यकताओं के संतुलन पर जोर दिया गया है। पूरे देश की तरह हिमाचल प्रदेश में भी “कई लोगों की आजीविका अभी भी सीधे कृषि पर निर्भर है, और पशुधन से जीविकोपार्जन करने वाले भी प्रमुख हैं,” भारतीय वन सेवा अधिकारी और इस अध्ययन के मुख्य लेखक पुष्पेंद्र राणा ने कहा।
यह अध्ययन जर्नल ऑफ़ क्लीनर प्रोडक्शन में प्रकाशित हुआ है। खेती के लिए भूमि के उपयोग की पूरी समझ रखने से वैज्ञानिकों को ऐसी परियोजनाएं बनाने में मदद मिलेगी जिनसे देश के वनीकरण और वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड को कैप्चर और स्टोर करने (कार्बन सीक्वेस्ट्रेशन) के लक्ष्य पूरे हो सकें।
राणा ने कहा कि सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए नीति निर्माण में ग्राउंड ट्रूथिंग, यानि एरियल डेटा की जमीनी सच्चाई को शामिल करने की जरूरत है। अन्यथा, “असंभव लक्ष्य” तय किए जा सकते हैं, फिर जिन्हें पूरा करने का “ऊपर से बहुत दबाव” होता है।
ऐसा ही जमीनी सर्वेक्षण करने के लिए राणा और उनके सहयोगियों ने उस भूमि का विश्लेषण किया जिसपर हिमाचल प्रदेश वन विभाग ने पहले पेड़ लगाए थे। उन्होंने ऊंचाई, ढलान, मिट्टी की गहराई, सॉयल कार्बन और पहले के वृक्षावरण समेत इन सरकारी भूखंडों का डेटा एकत्र किया और फिर एक मशीन लर्निंग मॉडल के सहयोग से पता लगाया कि वनीकरण के लिए कौनसी भूमि कितनी उपयुक्त है।
ग्राउंड ट्रूथिंग से पता चलता है कि कुछ क्षेत्रों में जलवायु की स्थिति पेड़ों को पनपने नहीं देती है। जैसे “टिम्बरलाइन (वह सीमा जिसके ऊपर पहाड़ों पर पेड़ नहीं उगते) के ऊपर ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पेड़ नहीं उगते हैं, इसलिए, इन ऊंचाई वाले क्षेत्रों पर वृक्षारोपण बिल्कुल भी नहीं किया जा सकता है,” भारतीय वन सर्वेक्षण के क्षेत्रीय निदेशक सत्य प्रकाश नेगी ने बताया। नेगी इस शोध का हिस्सा नहीं हैं।
हिमाचल प्रदेश में 20,000 हेक्टेयर से अधिक भूमि 4,000 मीटर (13,000 फीट) की ऊंचाई पर टिम्बरलाइन पर या उसके ऊपर स्थित है। राज्य का एक बड़ा क्षेत्र ‘ठंडा रेगिस्तान’ है, जो पेड़ लगाने के लिए समान रूप से अनुपयुक्त है, नेगी ने बताया। वहीं कम ऊंचाई पर कृषि और चराई गतिविधियों के कारण वनरोपण के योग्य भूमि सीमित हो जाती है।
इसलिए, इस विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने घास के मैदानों, बर्फीले क्षेत्रों, कृषिभूमि और इंफ्रास्ट्रक्चर के साथ-साथ, ऊंचाई वाले क्षेत्रों को वनरोपण से बाहर रखा। मशीन लर्निंग मॉडल ने दिखाया कि राज्य के केवल एक तिहाई हिस्से पर ही वनरोपण किया जा सकता है। “इसलिए वनीकरण नीति के संदर्भ में इस धारणा पर पुनर्विचार करने की जरूरत है कि हर प्रकार की गैर-वनाच्छादित भूमि रोपण गतिविधियों के लिए उपयुक्त है,” हिमाचल प्रदेश स्थित पर्यावरण नीति शोधकर्ता मीनाक्षी कपूर ने कहा।
अविवेकपूर्ण वृक्षारोपण के खतरे
नेगी ने कहा कि अध्ययन में न केवल हिमाचल प्रदेश, बल्कि देश के अन्य हिस्सों में वृक्षारोपण गतिविधियों के बारे में “अत्यंत प्रासंगिक और व्यावहारिक मुद्दों” पर प्रकाश डाला गया है। वर्तमान में भारत में दो प्रमुख सरकारी योजनाओं द्वारा वृक्षारोपण किया जा रहा है — ग्रीन इंडिया मिशन और प्रतिकरात्मक वनरोपण निधि प्रबंधन और योजना प्राधिकरण (कैम्पा)। इनके अलावा सामुदायिक, क्षेत्रीय और राज्य वनीकरण परियोजनाएं भी हैं।
पहले किए गए शोध से पता चलता है कि हिमाचल प्रदेश में दशकों से वृक्षारोपण का राज्य के वनावरण पर कम ही प्रभाव पड़ा है। इसके बजाय वनों की वह प्रजातियां जो स्थानीय समुदायों के लिए जरूरी हैं, उनसे दूर हो गई हैं।
भविष्य की वनीकरण गतिविधियों के लिए भूमि का चुनाव करने में फारेस्ट रेंजरों की सहायता करने के लिए इस अध्ययन के शोधकर्ताओं ने ई-प्लांटेशन साइट असिस्टेंट (ईपीएसए) नामक एक प्रणाली विकसित की है। यह टूल उसी मशीन लर्निंग दृष्टिकोण के साथ विकसित किया गया है जिसका उपयोग शोधकर्ताओं ने राज्य में वनरोपण के लिए उपयुक्त भूमि का विश्लेषण करने के लिए किया था।
कपूर ने सुझाव दिया कि ईपीएसए का उपयोग करते समय, रेंजरों को भूमि स्वामित्व, भूमि उपयोग के पैटर्न, उससे जुड़ी हुई आर्थिक गतिविधियों और पेड़ों की प्रजातियों जैसे इकोलॉजिकल कारकों पर भी विचार करना चाहिए। राणा ने माना कि नीतियां स्थानीय समुदायों और भूमि की उपयुक्तता के अनुसार होनी चाहिए।
मोटे तौर पर, शोधकर्ताओं ने कहा कि वह “अतिमहत्वाकांक्षी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय वृक्षारोपण लक्ष्यों” का वास्तविकता के साथ तालमेल बिठाना चाहते हैं, जिससे “बड़े पैमाने पर पैसे की बर्बादी से बचा जा सके” और “व्यवहार्य कार्बन मिटिगेशन परिणाम” प्राप्त किए जा सकें।
यह रिपोर्ट Eos पत्रिका से साभार ली गई है। इसे यहाँ अंग्रेजी में पढ़ा जा सकता है।
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