उत्तराखंड के जंगलों में गर्मी की शुरुआत में ही आग लग चुकी है। राज्य के जंगलों में हर साल 15 फरवरी से ‘फायर सीजन’ की शुरुआत मानी जाती है। प्रशासन इस बाबत बड़े पैमाने पर तैयारियां भी करता है। लेकिन इस साल ‘फायर सीजन’ की शुरुआत के पहले दिन से ही नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, पौड़ी से धधकते हुए जंगलों की तस्वीरें आ रही हैं।
उत्तराखंड में सर्दियों में इस बार सामान्य से 60 प्रतिशत कम वर्षा हुई है। जिसके कारण जंगलों में नमी कम है। जंगलों में बिखरी चीड़ की पत्तियों को हटाने के लिए प्रशासन की ओर से कंट्रोल बर्निंग भी हो रही है जिससे आग लगने के खतरे को कम किया जा सके।
वहीं मार्च के महीने में ही भयंकर गर्मी पड़ने और हीटवेव की मौसम विभाग की चेतावनी के बाद जंगलों की आग की संभावना और बढ़ गई है। फरवरी से ही इस तरह की घटनाएं सामने आने लगीं हैं।
अनुमान के मुताबिक फरवरी में ही लगभग 50 हेक्टेयर से अधिक वनभूमि आग से तबाह हो चुकी है। पिछले हफ्ते पिथौरागढ़ के नैनी-सैनी क्षेत्र के जंगलों में आग लगने की खबर आई। वहीं फरवरी में अल्मोड़ा, नैनीताल और पौड़ी-गढ़वाल से जंगल की आग की खबरें सामने आईं।
जंगलों की आग प्राकृतिक कारणों के साथ-साथ बहुत हद तक इंसानी गलतियों के कारण लगती है और कई बार कुछ लोग जानबूझकर किसी जंगल को आग के हवाले कर देते हैं। पिछले महीने पौड़ी क्षेत्र में हुई एक ऐसी ही घटना में प्रशासन प्राथमिकी दर्ज कर कार्रवाई भी कर रहा है।
इस प्रकार की घटनाओं को रोकने के लिए जंगलों का प्रबंधन बहुत जरूरी है। लेकिन इस कार्य में उत्तराखंड और दूसरे राज्य लगातार पिछड़ते नजर आ रहे हैं। गर्मियों के ‘फायर सीजन’ से पहले प्लानिंग का अभाव और फारेस्ट गार्ड्स की कमी साफ़ नज़र आ रही है।
दूसरी ओर जंगलों में रहने वाले आदिवासी और स्थानीय समुदाय, जो अक्सर आग की घटनाओं के बारे में सूचना दे दिया करते थे उन्हें भी कई जगहों पर जंगलों से हटा दिया गया है। इस वजह से सामुदायिक सहयोग भी बहुत कम हो गया है।
हालांकि केंद्र सरकार ने इस बार वनों की आग से निपटने के लिए एनडीआरएफ की तैनाती करने की योजना बनाई है, लेकिन फिलहाल इस फ़ोर्स के पास वनाग्नि का सामना करने का अनुभव नहीं है और यह इसके लिए इस चुनौती से निपटने का पहला अवसर होगा।
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