यूपी के लखीमपुर खीरी ज़िले में बहने वाली एक छोटी सी धारा पिछले कुछ सालों में धीरे धीरे नदी बन गई और अब बरसात के दिनों में यह जौरहा नदी इतना विकराल रूप ले लेती है कि स्थानीय लोगों को उस पर बनाया गया अस्थाई पुल समेटना पड़ता है क्योंकि बार-बार पुल बह जाने से होने वाला आर्थिक नुकसान वह नहीं सह पाते।
असल में लखीमपुर की निघासन विधानसभा सीट के अंतर्गत यह पुल मांझा गांव को सिंगाही कस्बे से जोड़ता है। मांझा गांव के निवासी परमजीत सिंह बताते हैं कि इस पुल पर तीन ग्रामसभाओं के लोग निर्भर हैं जिनमें कुल 15 हज़ार की आबादी है। बरसात के दिनों में जब ये पुल नहीं होता तो गांव वालों को 18 किलोमीटर अधिक दूरी तय करते जाना पड़ता है। इनमें स्कूली बच्चे भी शामिल हैं।
ग्रामीणों के बनाये इस कामचलाऊ पुल से लोग पैदल और मोटरसाइकिलों पर निकलते हैं। चरमराते पुल के नीचे बहती नदी है और दुर्घटना में जान का ख़तरा है।
यह समस्या सरकारी अनदेखी की तो है ही लेकिन बिगड़ते मौसमी मिज़ाज ने लोगों की दिक्कतें और बढ़ा दी हैं। गांव वाले बताते हैं बरसात में बाढ़ विकराल होती जा रही है और पुल अधिक टूटता है। इस कारण बार-बार इसे समेटना (डिस्मेंटल) पड़ता है और उन दिनों मांझा और सिंगाही की दूरी 18 किमी बढ़ जाती है।
परमजीत सिंह कहते हैं, “जब बरसात आती है तो नदी ओवरफ्लो होती है तो हमें खुल इस पुल को तोड़ कर संभालना पड़ता है। फिर अक्टूबर-नवंबर में फिर इसे बनाना पड़ता है। बरसात आने पर हमें 2 किलोमीटर की दूरी की जगह हमें करीब दस गुना दूरी तय करनी पड़ती है। यहां के बच्चों का स्कूल भी वहीं है।”
परमजीत सिहं क्या कहते हैं उनकी पूरी बात इस ट्वीट श्रंखला पर क्लिक करके सुनी जा सकती है।
सिंह कहते हैं कि हर साल बाढ़ आने की वजह से लाखों रुपये का नुकसान होता है। उनके मुताबिक, “पहले बाढ़ कम आती थी। अब तो बाढ़ जल्दी-जल्दी आती है और इसका प्रकोप इतना होता है कि पूरा क्षेत्र जलमग्न हो जाता है।”
एक्सट्रीम वेदर के कारण लोगों की समस्या बढ़ रही है और इसकी इन्वायरेंमेंटल कॉस्ट (पर्यावरण प्रभाव के कारण आर्थिक क्षति) भी है। हर साल लोगों को अपना पैसा इकट्टा करके यह पुल बार -बार बनाना होता है। यह समस्या मांझा गांव के लोगों तक सीमित नहीं है बल्कि उत्तर प्रदेश और पूरे देश के दूर दराज़ के इलाकों में हैं। इनके बार में कभी बात नहीं की जाती। एक ओर सरकारी अनदेखी और दूसरी ओर मौसम की बढ़ती मार।
चुनावों के वक्त इन लोगों को नेताओं के वादे मिलते हैं लेकिन समस्या का समाधान नहीं होता। अक्सर विकराल हो रही ऐसी समस्याओं की जड़ें हमारी पारिस्थितिकी और पर्यावरण से जुड़ी होती है। लेकिन इन चुनावी नारों के बीच इन्हें नहीं सुना जा रहा।