पर्यावरण मंत्रालय ने उत्तराखंड के सात हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स को पास कराने के लिये तथ्यों को छुपाया और पूरी सूचना नहीं दी जो सरकार के इरादों के खिलाफ जा सकती थी| Photo: Wikimedia Commons

हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स पर सरकार ने छुपाये तथ्य

वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने इस साल 17 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दिया जिसमें कहा गया कि उत्तराखंड में सात जलविद्युत परियोजनाओं को बनाने के लिये भारत सरकार के तीन मंत्रालय (पर्यावरण, जलशक्ति और ऊर्जा) में सहमति बन गयी है। लेकिन द वायर साइंस की एक रिपोर्ट में विश्लेषण के आधार पर यह खुलासा किया गया है कि पर्यावरण मंत्रालय ने इन सात हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स को पास कराने के लिये तथ्यों को छुपाया और पूरी सूचना नहीं दी जो सरकार के इरादों के खिलाफ जा सकती थी।

असल में उत्तराखंड में 2013 में हुई केदारनाथ आपदा के बाद सरकार ने विशेषज्ञों की समिति गठित की थी जिसने कहा था कि आपदा को बिगाड़ने में जल विद्युत परियोजनाओं की निश्चित भूमिका थी। सरकार ने दिसंबर 2014 में इस जांच के बाद सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया था और कहा था कि “विकास परियोजनाओं खासतौर से हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट पर कोई फैसला… मज़बूत और स्पष्ट वैज्ञानिक तर्कों पर आधारित होना चाहिये।” अब सरकार  की नई स्थिति इससे काफी भिन्न है और वह कुल 2000 मेगावॉट से अधिक क्षमताओं की परियोजनाओं पर काम शुरू कर रही है। इस रिपोर्ट को विस्तार से यहां पढ़ा जा सकता है।

कंपनियां लौटा सकेंगी कोयला खदानें

कोयला मंत्रालय ऐसी योजना बना रहा है जिसके मुताबिक जिस कंपनी को कोयला खदान आवंटित की गई है, वह अगर किसी तकनीकी समस्या के कारण खनन शुरू नहीं कर पा रही तो खदान वापस की जा सकती है। पीटीआई के मुताबिक ऐसे में कंपनी एक कमेटी द्वारा जांच के बाद –  बिना कोई वित्तीय दंड  या मैरिट के आधार पर तय किये गये दंड को चुकाकर – खदान वापस कर सकती है। मंत्रालय के एजेंडा नोट के मुताबिक यह योजना “कोयला उत्पादन बढ़ाने और ईज़ ऑफ बिज़नेस” को ध्यान में रखकर बनाई जा रही है। सरेंडर किये गये कोल ब्लॉक को तुरंत नीलामी के लिये उपलब्ध कराया जायेगा।

जलवायु परिवर्तन: पंचवर्षीय लक्ष्यों का समर्थन करेगा यूरोपियन यूनियन

यूरोपियन संघ (ईयू) क्लाइमेट चेंज से निपटने के लिये उन पंचवर्षीय लक्ष्यों का समर्थन करेगा जिन पर नवंबर में ग्लासगो (यूके) में हो रहे जलवायु परिवर्तन महासम्मेलन में चर्चा होनी है। महत्वपूर्ण है कि पोलैंड समेत यूरोपीय यूनियन (ईयू) के कुछ सहस्य देश दस वर्षीय लक्ष्य तय करने की मांग कर रहे हैं फिर भी यूरोपीय संघ के मंत्रियों ने एक बयान में कहा है कि वह पंचवर्षीय लक्ष्यों का समर्थन करेंगे यदि सभी सरकारें इसका पालन करें और यूरोपीय क्लाइमेट क़ानून के तहत यह कदम उठाये जायें।

सोच यह है कि छोटे अवधि के लक्ष्य देशों पर नियमित रूप से दबाव बनाये रखेंगे और वह उस रफ्तार से काम करेंगे जो इमीशन में तय कटौती के लिये ज़रूरी है जबकि लम्बी अवधि के लक्ष्य हों तो देश सुस्त पड़ सकते हैं। बड़े उत्सर्जक देशों में भारत और चीन ने सिंगल टाइम फ्रेम का विरोध किया है।

ग्रीन क्लाइमेट फंड में अब भी ₹ 1000 करोड़ की कमी 

विकसित देशों ने ग्रीन क्लाइमेट फंड (जिसका वादा पेरिस संधि में किया गया था) में हर साल $ 100 बिलियन यानी ₹ 10,000 करोड़ जमा करने का जो वादा किया था वह पूरा नहीं किया है।  इसमें अब भी ₹ 1,000 करोड़ की कमी है। पिछले महीने अमेरिका ने अपना सहयोग बढ़ाकर दोगुना करने का इरादा जताया। जानकार कहते हैं कि अमीर देश इस फंड में सहयोग के गणित में ईमानदारी नहीं बरत रहे और कई दूसरे अनुबन्धों के तहत दिये तकनीकी सहयोग की गणना भी इस फंड में शामिल कर रहे हैं। उधर स्पेन, नॉर्वे और स्वीडन जैसे यूरोपीय देश ग्लासगो सम्मेलन से पहले वादे और हक़ीक़त के अन्तर को कम करने की कोशिश कर रहे हैं। 

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