गर्म होती पृथ्वी पर अपने भविष्य की चिंता और इस जलवायु संकट को रोकने में नाकाम होते नेताओं के लिए खीज और गुस्सा—इन दो वजहों से पिछले साल, इसी महीने, हर महाद्वीप में लाखों की तादाद में बच्चे और युवा सड़कों पर उतरे थे।
यह शायद पहली बार था जब दुनिया भर में बच्चों और युवाओं ने एक साथ कोई मुद्दा उठाया और अपना गुस्सा दिखाते हुए सड़क से लेकर संसद के बाहर तक आन्दोलन किया। वो नज़ारा हैरतंगेज़ था। नैरोबी से लेकर नई दिल्ली तक और न्यू यॉर्क से लेकर न्यूज़ीलैंड तक—हर तरफ उस शुक्रवार जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, और पर्यावरण संरक्षण का मुद्दा छाया रहा।
उस दिन को याद करते हुए इलाहबाद के सत्रह वर्षीय शाश्वत ललोरिया कहते हैं, “पिछले साल जब मैनें टीवी पर वो आन्दोलन देखा तब मुझे एहसास हुआ कि वाक़ई अगर हमारी उम्र के लोग इस मुद्दे पर आवाज़ नहीं उठाएंगे तो भला कौन उठायेगा? झेलना तो हमें ही पड़ेगा।” पब्जी और टिक टोक वाली पीढ़ी के शाश्वत अब अपने दोस्तों से इन मुद्दों पर भी चर्चा करते हैं। यह एक बढ़िया बदलाव है। वहीँ लखनऊ में रहने वाली आठ साल की आयरा एक बेहतर पर्यावरण की उम्मीद लगाये बैठीं हैं। उन्हें साफ़ हवा और खुला आसमान चाहिए। वो कहती हैं, “मुझे लगता है इस साल पिछले साल से ज़्यादा गर्मी हुई। बारिश मगर कम हुई। कुछ समझ नहीं आता कैसा मौसम है ये। मैं पिछले साल हिमाचल प्रदेश गयी और मेरा मन करता है उत्तर प्रदेश का मौसम भी वैसा हो जाये। लेकिन शायद वैसा नहीं हो सकता क्योंकि यहाँ पहाड़ नहीं। मगर कोविड की वजह से जब हम लोग घर में रहे तो कम से कम आसमान में धुआं नहीं हुआ। लगा मानो पहाड़ों पर हों। बिल्कुल हिमाचल जैसा साफ़ आसमान दिखा। मैं चाहती हूँ धुआं ऐसे ही कम हो।”
भले ही भारत में यूरोप और अमेरिका जैसे आन्दोलन न दिखें लेकिन बच्चों के मन में ऐसी बढ़ती संवेदनशीलता और अपने भविष्य को लेकर पनपती खीज को देख शाश्वत और आयरा जैसे बच्चों की बातें एक सकारात्मक बदलाव की ओर इशारा करती दिखती हैं।
इस बदलाव के लिए स्वीडेन की ग्रेटा थुनबर्ग की तारीफ़ करना बनता है। ग्रेटा ने संचार क्रांति के जिस दौर में यह मुद्दा उठाया, उसका बड़ा फ़र्क पड़ा इस मुद्दे का एक आन्दोलन की शक्ल लेने में। ग्रेटा ने जब दुनिया के शीर्ष नेताओं से सवाल करने शुरू किये तब न सिर्फ़ उन सवालों की गूँज, बल्कि उन सवालों के आगे लाजवाब हुए नेताओं की चुप्पी भी दुनिया भर के बड़े होते बच्चों ने देखी। बढ़िया बात यह रही कि अपने बच्चों के भविष्य के लिए चिंतित माता-पिताओं ने अपने बच्चों को इस बारे में सोचने पर मजबूर भी किया। आयरा की माँ, विति, पेशे से एक डायटीशियन हैं और प्रकृति से मिली औषधीय सम्पदा में विश्वास रखती हैं। वो जलवायु परिवर्तन पर अपनी बेटी की संवेदनशीलता को ले कर कहती हैं, “अगर हम प्रकृति का ख़याल रखेंगे तो वो हमारा ख़याल रखेगी। जब हम छोटे थे तब ऐसी बातों पर हमारे पेरेंट्स अमूमन चर्चा नहीं करते थे। लेकिन अब, इस विषय पर बच्चों से बात करना वैकल्पिक नहीं, आवश्यक है। हमें जैसी प्रकृति मिली, हम चाहते हैं इन्हें उससे बेहतर मिले। लेकिन बिना इन बच्चों के जागरूक हुए ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए इनके भविष्य के लिए ज़रूरी हैं कि यह अपने भविष्य की बागडोर सँभालते हुए अभी से पर्यावरण के प्रति सम्वेदनशीलता लायें।”
एक माँ के रूप में विति कि बात में दम है। शायद इसी तर्क से पूर्वोतर भारत की आठ वर्षीय लिसिप्रिया कंगुजम के माता-पिता ने भी उन्हें प्रेरित किया हो। आज लिसिप्रिया जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ बच्चों की जंग का भारत में चेहरा बन चुकी हैं।
अच्छी बात यह है कि बच्चों की यह जागरूकता और सक्रियता रूकती नहीं दिखती। हरिद्वार की रहने वाली 12 वर्षीय रिधिमा पांडे ने कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा। इस पत्र में रिधिमा प्रधानमंत्री को अपने एक डरावने सपने के बारे में बताते हुए कहती हैं कि उन्होंने देखा कि वह ऑक्सीजन सिलेंडर के साथ स्कूल जा रही हैं। पत्र के माध्यम से रिधिमा ने मोदी जी से अनुरोध किया है कि वे यह सुनिश्चित करें कि उसका सपना किसी बच्चे की हक़ीक़त न बन पाए। रिधिमा ने इस चिट्ठी को 7 सितम्बर, यानि विश्व के पहले इंटरनेशनल डे फॉर क्लीन एयर फॉर ब्लू स्काईज़ वाले दिन पर भेजा।
गौरतलब है कि रिधिमा दुनियाभर के उन 16 बच्चों में शामिल हैं जिन्होंने ग्रेटा के साथ मिल कर तमाम देशों के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र में शिकायत दर्ज की थी, जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर उन देशों की निष्क्रियता को लेकर।
बात भारत के बाहर की करें तो कुछ हफ़्ते पहले पुर्तगाल के चार बच्चों और दो नवयुवाओं ने मिल कर यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय के आगे 33 देशों के खिलाफ एक मुक़दमा दर्ज कर दिया। स्ट्रासबर्ग में यूरोपीय कोर्ट ऑफ ह्यूमन राइट्स के सामने दर्ज इस मुक़दमे में पुर्तगाल के इन चार बच्चों और दो नवयुवाओं ने जलवायु संकट को बढ़ाने के लिए 33 देशों को जवाबदेह ठहराया है। इन सबमें सबसे छोटी याचिकाकर्ता महज़ 8 साल की है। यदि कोर्ट का फ़ैसला इन बच्चों के पक्ष में आया तो न सिर्फ़ यह 33 देश उत्सर्जन में कटौती करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य होंगे; बल्कि उनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर भी जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जवाबदेही तय होगी।
और अब पुर्तगाल के बाद ताज़ा मामला ऑस्ट्रेलिया से आया है जहाँ ऑस्ट्रेलियाई पर्यावरण मंत्री के कोयला खदान विस्तार को मंजूरी देने के फैसले को रोकने के लिए आठ टीनएज बच्चों ने, एक कैथोलिक नन के साथ मिल कर, न्याय की गुहार की है। मामले के अनुसार, जलवायु संकट को बढ़ाने में कोयला की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए, यह तर्कसंगत है कि एक प्रमुख नई कोयला खदान को मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए। यह जलवायु परिवर्तन पर ऑस्ट्रेलिया में पहली ऐसी कार्रवाई है जिसमें 18 साल से कम उम्र के बच्चों ने केस किया है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के असर से सबसे ज्यादा नुकसान उन्हीं को होने की संभावना है।
इसका असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा क्योंकि ऐसे क़ानूनी मामले दुनिया के अन्य न्यायालयों में दिए जाने वाले फैसलों को प्रभावित कर सकते हैं। इन बच्चों की देखा-देखी जलवायु परिवर्तन पर दुनिया के किसी भी कोने में अब बच्चे ऐसा कदम उठा सकते हैं। अब देखना यह है ऐसे मामले कितने बढ़ते हैं और न्यायालयों में इनके प्रति कैसी संवेदनशीलता दिखाई जाती है। लेकिन कुल मिलाकर बच्चों की ऐसी पहल देख लगता है की धुंए के गुबार छटेंगे, राजनीतिक अनिश्चिताओं के बादल हटेंगे और आसमान साफ़ होगा, और अंततः बच्चों का गुस्सा इस तपती धरती को ठन्डा कर के ही दम लेगा।
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