इसमें तो अब कतई कोई दो राय नहीं कि जलवायु परिवर्तन के असर अब दुनिया के हर कोने में साफ़ दिखाई देने लगे हैं। फिर चाहें वो ध्रुवों पर पिघलते ग्लेशियर हों, या अमेज़न के जंगलों में लगने वाली आग हो, या फिर बदलते मौसम हों, जलवायु परिवर्तन के असर किसी न किसी सूरत में अब दिख रहे हैं।
ये बात भी साफ़ है कि अगर अब भी सही फैसले नहीं लिए गए जलवायु परिवर्तन की रफ़्तारकम करने के लिए तो नतीजे बेहद ख़राब साबित हो सकते हैं। बल्कि ताज़ा शोध तो चेतावनी दे रहे हैं कि अगर जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग पर लगाम लगाने के लिए मज़बूत क़दम नहीं लिए गये तो साल 2100 तक नोर्दर्न हेमिस्फियर या उत्तरी गोलार्ध में गर्मी का मौसम करीब-करीब छह महीने का हो जायेगा।
सुनने में ये साधारण सी बात लग सकती है लेकिन अगर सोचने बैठें तो एहसास होता है कि इसका सीधा प्रभाव खेती-किसानी और जन स्वास्थ्य पर तो पड़ता ही है, साथ ही इसका असर ज़मीन और समुद्रों के पारिस्थितिकी तंत्र पर भी पड़ सकता है। पर्यावरण पर इसका असर तो यक़ीनन देखने को मिलेगा।
ये तथ्य सामने आये हैं जियोफिसिकल रिसर्च लैटर्स जर्नल में प्रकाशित ताज़ा शोध पत्र में। मौसमी चक्र की बात करें तो इस शोध में ये भी बताया गया है कि मेडिटरेनियन या भूमध्यसागर के इलाके और तिब्बत के पठार ने इन सीजन के बदलावों में सबसे ज्यादा अंतर देखे हैं।
अगर गर्मियां छह महीने की हो जाएगी तो ऐसा नहीं है कि सूरज की धुप चिलचिलाती रहेगी उस पूरे वक़्त या रातों की अलग फ़िज़ा हो जाएगी। लेकिन हाँ, इतना तय है कि मौसम के यह बदलाव परिस्थितिकी तंत्र, या एकोलोजी, को काफ़ी नुकसान पहुंचाने के लिहाज़ से मज़बूत हो जाएगा। आमतौर पर उत्तरी गोलार्द्ध में साल भर में चार मौसम होते हैं–बसन्त, ग्रीष्म, पतझड़ और सर्दी। और जहाँ 1950 के दशक में इन मौसमों की आमद के बारे में अनुमान लगाना आसान था, वहीँ अब, शोधकर्ताओं ने पाया है कि, इन मौसमों में बड़ी अनियमितताएं देखने को मिलती हैं और इसका सीधा कारण जलवायु परिवर्तन है।
अपने इस अध्ययन पर उसके प्रमुख लेखक और चीनी एकेडमी ऑफ सांसेस के यूपिंग गुआन कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से गर्मियां लंबी और बेहद तीव्र होने लगी है, जबकि सर्दियां कम तीव्र और कम समय के लिए होने लगी हैं। उन्होंने ये निष्कर्ष दरअसल साल 1952 से 2001 तक के उत्तरी गोलार्द्ध के दैनिक जलवायु आंकड़ों का अध्ययन करने के बाद पाए। इस अध्ययन में चारों मौसमों में बदलाव और लंबाई पर भी शोध किया है।
आने वाले समय में मौसमों में किस तरह के बदलाव दर्ज होंगे इसका हिसाब लगाने के लिए टीम ने मौजूद जलवायु मॉडल्स का उपयोग किए। इस क्रम में शोधकर्ताओं ने पाया कि साल 1952 से साल 2011 तक गर्मी का मौसम औसतन 78 से 95 दिन तक बढ़ गया, और सर्दी का मौसम सिकुड़ कर 76 से 73 दिन आ गया। वहीँ बसन्त का मौसम 124 दिन से घट कर 115 दिन रह गया और पतझड़ का मौसम 87 से 82 दिन में सिमट कर रह गया। यही नहीं, इन वैज्ञानिकों ने ये भी पाया कि बसन्त और गर्मी समय से पहले शुरू होने लगीं हैं और पतझड़ और सर्दी के मौसम देर से आने लगे हैं।
ऐसे शोध हालाँकि पहले भी हुए हैं और उनमें पाया गया है कि जलवायु परिवर्तन ण सिर्फ मौसमों में बदलाव लाते हैं, बल्कि पर्यावरण को नुकसान और स्वास्थ्य से जुडी समस्याओं का कारण बन जाते हैं। लेकिन इस शोध में जो ख़ास बात है वो ये कि इसमें जलवायु परिवर्तन की तीव्रता का असर कुछ ऐसा पाया गया कि इसमें गर्मी के मौसम का फ़ैलाव छह महीने तक होने का अनुमान लगाया गया है। इस शोध में तो शोधकर्ताओं ने पक्षियों के विस्थापन के बदलते स्वरुप का भी ज़िक्र किया है और ध्यान दिलाया है फूलों और पौधों के उगने और बड़े होने के समय में हो रहे बदलाव के बारे में।
इस सबका सीधा मतलब ये हुआ कि इस मौसमी बदलाव का असर कृषि पर काफ़ी पड़ेगा और इस सब में सिर्फ नुकसान ही होता दिखता है। और यहाँ जो सबसे ज़्यादा दुःख की बात है वो ये कि इस नुक्सान की भरपाई आसान नहीं क्योंकि ये सारे बदलाव पलट नहीं सकते। इन्हें सिर्फ़ कम किया जा सकता है, इनकी गति को कम किया जा सकता है।
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